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एक ही भाव से दो कार्य कैसे?
मुनि श्री प्रमाणसागर जी शुभोपयोग के विषय में प्रायः यह प्रश्न उठाया । है। यही बात आचार्य पूज्यपाद ने इष्टोपदेश में कही है। जाता है कि एक ही भाव से दो कार्य कैसे हो सकते दर्शनपाहुड़ में भी आचार्य कुन्दकुन्द ने एक ही हैं? शुभोपयोग रागभाव है, रागभाव बन्धन का कारण | भाव से दोनों कार्यों के होने का कथन किया हैहै। जो भाव बन्धन का कारण है, वह मोक्ष का कारण | सेयासेयविदण्हू उद्बुददुस्सील सीलवंतो वि। नहीं हो सकता।
सीलफलेणब्भुदयं तत्तो पुण लहई णिव्वाणं॥ १६॥ आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने इस प्रश्न का समाधान
दर्शनपाहुड़ मूलक विवचेन करते हुए कहा है कि
अर्थ- श्रेय और अश्रेय को जाननेवाला मिथ्यात्व ननु च तपोऽभ्युदयाङ्गमिष्टं देवेन्द्रादिस्थानप्राप्ति- | को नष्ट करके शीलवान् हो जाता है। शील के फलस्वरूप हेतत्वाभ्युपगमात्। तत् कथम् निर्जराङ्गं स्यादिति ? नैष । अभ्युदय सुख को पाकर फिर मोक्ष सुख पाता है। दोषः, एकस्यानेककार्यदर्शनादग्निवत्। यथाग्निरेकोपि पञ्चास्तिकाय में आचार्य कुन्दकुन्द ने एक ही विक्लेदनभस्मांगारादिप्रयोजन उपलभ्यते तथा तपोऽभ्यु- | रत्नत्रय से बन्ध और मोक्ष रूप दोनों कार्यों का विधान दयकर्मक्षयहेतुरित्यत्र को विरोधः। सवार्थसिद्धि/पृ. ३२१। | किया है
अर्थ- तप को अभ्युदय का कारण मानना इष्ट | दंसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गोऽति सेविदव्वाणि। है, क्योंकि वह देवेन्द्रादि स्थान-विशेष की प्राप्ति के हेतु | साघूहि इदं भणिदं तेहिं दु बन्धो व मोक्खो वा ॥ १६४ ॥ रूप से स्वीकार किया गया है, अर्थात् तप को पुण्य अर्थ- दर्शन, ज्ञान, चारित्र की एकता मोक्षमार्ग बन्ध का कारण माना गया है, इसलिए वह निर्जरा का | है, इसलिए वे सेवन करने योग्य हैं, ऐसा साधुओं ने कारण कैसे हो सकता है? यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि | कहा है, परन्तु उनसे बन्ध भी होता है और मोक्ष भी। अग्नि एक है, तथापि उसके विक्लेदन, भस्म और अंगार
आचार्य वीरसेन स्वामी ने भी एक ही भाव के आदि अनेक कार्य उपलब्ध होते हैं, वैसे ही तप अभ्युदय
| द्वारा बन्ध और मोक्ष दोनों कार्यों का विधान किया हैऔर कर्मक्षय (मोक्ष) इन दोनों का कारण है। ऐसा मानने
“अरिहंतगमोक्कारो संपहिय बंधादो असंखेजगुण में क्या विरोध है?
कम्मक्खयकारओत्ति तत्थवि मणीणं पवत्तिपसंगादो॥" स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द ने अनेक स्थलों पर यह
जयधवला १/९। स्पष्ट लिखा है कि एक ही भाव से मोक्ष और पुण्य
अर्थ- अरिहन्तनमस्कार तत्कालीन बन्ध की अपेक्षा बन्ध रूप सांसारिक सुख दोनों मिल सकते हैं। देखें
अससंख्यातगुणी कर्म-निर्जरा का कारण है। उसमें भी निम्न प्रमाण
मुनियों की प्रवृत्ति होती है। जिणवरमएण जोई झाणे झाएड सद्धमप्याणं।
आचार्य वीरसेन स्वामी यह भी कहते हैं कि रत्नत्रय जेण लहइ णिव्वाणं ण लहइ किं तेण सुरलोयं ॥ २०॥ | स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग है-- जो जाइ जोयणसयं दियहेणेक्केण लेवि गुरुभारं।
स्वर्गापवर्गमार्गत्वाद्रत्नत्रयं प्रवरः स उच्यते निरूसो किं कोसद्धं पि ह ण सक्कए जाहु भुवणयले॥ २१॥ ।
प्यते अनेनेति प्रवरवादः। धवला १३/२८७ । मोक्षपाहुड़
अर्थ- स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग होने से रत्नत्रय अर्थ- जिनेन्द्र भगवान् के मत से योगी शुद्ध आत्मा | का नाम प्रवर है। उसका वाद अर्थात् कथन इसके द्वारा का ध्यान करता है, जिससे वह मोक्ष जाता है, उसी
किया जाता है, इसलिए इस आगम का नाम प्रवरवाद आत्मध्यान से क्या वह स्वर्गलोक प्राप्त नहीं कर सकता? | है। यहाँ रत्नत्रय को मोक्ष और स्वर्ग दोनों का कारण अर्थात् अवश्य प्राप्त कर सकता है। जैसे, जो पुरुष भारी | कहा है। बोझ लेकर एक दिन में सौ योजन जाता है, वही पुरुष
इसी प्रकार अनेक प्रसंगों में आचार्यों ने एक ही क्या भूमि पर आधा कोस भी नहीं चल सकता? अर्थात्
| भाव से बन्ध और मोक्ष रूप दोनों कार्यों का सद्भाव सरलता से चल सकता है। तात्पर्य यह है कि जिस
स्वीकार किया है। अतः हमें शुभोपयोग को पुण्यबन्ध के आत्मध्यान से मोक्ष की प्राप्ति होती है, उसी आत्मध्यान
साथ परम्परा से मोक्ष का कारण मानना चाहिए। से पुण्यबन्ध होकर उसके फलस्वरूप स्वर्ग में देव होता ।
___ 'जैनतत्त्वविद्या' से साभार 8 अक्टूबर 2008 जिनभाषित -
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