Book Title: Jinabhashita 2006 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 5
________________ सल्लेखनामरण में मृत्यु के कारण बाहर से आते हैं। आत्महत्या में मनुष्य स्वयं ही फाँसी लगाता हैं, कुए में कूदता है, आग में जलता है, जहर खाता है या अपने को गोली मार लेता है। लेकिन सल्लेखना-मरण दूसरों के द्वारा प्राणघातक उपसर्ग किये जाने पर, प्राणघातक प्राकृतिक विपदा आने पर अथवा प्राणघातक असाध्यरोग या अतिवृद्धावस्था हो जाने पर होता है। और इसमें भी विशेषता यह है कि सल्लेखनाव्रतधारी मरते समय न तो क्रोध के आवेग में रहता है, न शोक के, न भय के, न विषाद के और न निराशा के। वह परम शान्तभाव में स्थित रहता है। सल्लेखना आत्महत्या क्यों नहीं है, इसका खुलासा पाँचवीं शताब्दी ई० के जैनाचार्य पूज्यपाद स्वामी ने निम्नलिखित शब्दों में किया है "स्यान्मतमात्मवधः प्राप्नोति, स्वाभिसन्धिपूर्वकायुरादिनिवृत्तेः? नैष दोषः, अप्रमत्तत्वात्। 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा' इत्युक्तम्। न चास्य प्रमादयोगोऽस्ति। कुतः? रागाद्यभावात्। रागद्वेषमोहाविष्टस्य हि विषशस्त्रायुपकरणप्रयोगवशादात्मानं धनतः स्वघातो भवति। न सल्लेखनां प्रतिपन्नस्य रागादयः सन्ति ततो नात्मवधदोषः। उक्तं च रागादीणमणुप्या अहिंसगत्तं ति देसिदं समये। तेसिं च उप्पत्ती हिंसेति जिणेहि णिद्दिवा॥ किं च मरणस्यानिष्टत्वाद्यथा वणिजो विविधपण्यदानादानसञ्चयपरस्य स्वगृहविनाशोऽनिष्टः। तद्विनाशकारणे च कतश्चिदपस्थिते यथाशक्ति परिहरति। दुष्परिहारे च पण्यविनाशो यथा न भवति तथा यतते। एवं गहस्थोऽपि व्रतशीलपण्यसञ्चये प्रवर्तमानः तदाश्रयस्य न पातमभिवाञ्छति। तदुपप्लवकारणे चोपस्थिते स्वगुणाविरोधेन परिहरति। दुष्परिहारे च यथा स्वगुणविनाशो न भवति तथा प्रयतत इति कथमात्मवधो भवेत्? (सर्वार्थसिद्धि ७/२२)। अनुवाद - शंका : चूँकि सल्लेखना में अपने आभप्राय से आयु आदि का त्याग किया जाता है, इसलिए यह आत्मघात है। समाधान : ऐसा नहीं है, क्योंकि सल्लेखना में प्रमाद (रागद्वेषमोह) का अभाव है। 'प्रमत्तयोग से (रागद्वेषमोह के कारण = क्रोधादि के आवेग में)प्राणों का घात करना हिंसा है' यह पहले (तत्त्वार्थसूत्र/अध्याय ७/सूत्र १३ में) कहा जा चुका है। किन्तु सल्लेखनाव्रतधारी के प्रमाद नहीं होता, क्योंकि उसमें रागादि का अभाव होता है। जो मनुष्य रागद्वेषमोह से आविष्ट होकर विष, शस्त्र आदि उपकरणों से अपना वध करता है, वह आत्मघाती होता है। सल्लेखना को प्राप्त मनुष्य में रागद्वेषमोह नहीं होते, अतः वह आत्मघाती नहीं होता। कहा भी गया है "जिनेन्द्रदेव ने यह उपदेश दिया है कि रागादिभावों की उत्पत्ति न होना अहिंसा है, और उनका उत्पन्न होना हिंसा।" इसके अतिरिक्त मरना कोई भी नहीं चाहता। जैसे कोई व्यापारी अपने घर में अनेक प्रकार की विक्रेय वस्तुओं का संग्रह और देनलेन करता है, उसे अपने घर का विनाश इष्ट नहीं होता। फिर भी यदि कहीं से उसके विनाश का कारण उपस्थित हो जाय, तो वह यथाशक्ति उसे टालने का प्रयत्न करता है। किन्तु यदि टालना संभव न हो, तो घर में रखी विक्रेय सामग्री को नष्ट होने से बचाने की कोशिश करता है, इसी प्रकार गृहस्थ भी अपने शरीररूपी घर में व्रतशीलरूप सामग्री का संचय करता है, अत: वह उस सामग्री के आश्रयभूत शरीर का विनाश नहीं होने देना चाहता। फिर भी यदि उसके विनाश का कारण उपस्थित हो जाता है, तो वह अपने व्रतशीलादि गुणों को आघात न पहुँचाते हुए विनाश के कारण का परिहार करता है। किन्तु शरीरविनाश के कारण का परिहार संभव न होने पर ऐसा प्रयत्न करता है, जिससे अपने गुणों का विनाश न हो। ऐसा करना आत्मवध कैसे हो सकता है?" (स.सि.७/२२) इस आर्षवचन से स्पष्ट है कि सल्लेखना में न तो मरने की इच्छा की जाती है, न मरने का प्रयत्न, अपितु जब उपसर्ग, दुर्भिक्ष, रोग, बुढ़ापा आदि बाह्य कारण मुनि या श्रावक को मृत्यु के मुख में घसीट कर ले जाने लगते हैं, तब शरीर को न बचा पाने की स्थिति में वह अपने व्रत-शील-संयम आदि धर्म की रक्षा का प्रयत्न करता है। इस प्रकार सल्लेखना में मनुष्य के पास मरने के कारणों को स्वयं जुटाने का अवसर ही नहीं रहता, क्योंकि वे बाहर से ही अपनेआप जुट जाते हैं। अपने-आप उपस्थित मृत्यु के कारणों को जब टालना असंभव हो जाता है, तभी तो सल्लेखनाव्रत ग्रहण किया जाता है, अतः इसे आत्महत्या कहने के लिए तो कोई कारण ही नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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