Book Title: Jinabhashita 2006 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 11
________________ होनेवाली इस जघन्य मानवहत्या को अवैध घोषित कराने के लिए कदम उठायें। क्या यह मानववध उनके मानवतावादी हृदय को तनिक भी उद्वेलित नहीं करता? मृत्यु के कगार पर पहुँचे हुओं की मौत को रोकने का असंभव कार्य करने के इच्छुक मित्र जीवन की ओर कदम बढ़ाते गर्भस्थ मानवों के नृशंस वध को रोकने का साहस दिखाएँ। इसी प्रकार शरीर के नाजुक अंगों को सड़ा-गलाकर मनुष्य को मौत का ग्रास बना देनेवाले जिस मद्यपान को प्रतिबन्धित कराने के लिए गाँधी जी ने आन्दोलन किया था और उनकी इच्छा का आदर करते हुए सरकार ने उस पर प्रतिबन्ध लगाया भी था, उसे ही उसने राजस्व के लोभ में आकर बाद में हटा दिया और सम्पूर्ण देशवासियों को मद्यपान की खुली छूट देकर धीमी आत्महत्या की अनुमति दे दी। आये दिन सुनने में आता है कि जहरीली शराब पीकर सैकड़ों लोग मर गये । धूम्रपान भी प्राणघातक है। यह कैंसर का प्रमुख कारण है। सिगरेट के पैकिटों पर ऐसा सरकार लिखवाती भी है। इस पर भी प्रतिबन्ध न लगाकर सरकार ने देशवासियों को आत्महत्या की कानूनी मान्यता दे दी। यह सरकार द्वारा करायी जानेवाली और मद्यपान तथा धूम्रपान करनेवालों के द्वारा की जानेवाली आत्महत्या है। इसी तरह शासनव्यवस्था में व्याप्त भयंकर भ्रष्टाचार एवं गलत नीतियों के कारण आज तक लोग गरीबी से छुटकारा नहीं पा सके हैं और हरवर्ष सैकड़ों लोग भुखमरी, कुपोषण, ठंड और लू से पीड़ित होकर मर जाते हैं। यह तो सीधी हत्या है, आत्महत्या नहीं। और अब तो विदेशी आतंकवादियों के द्वारा देश में घुसकर जगह-जगह बमविस्फोट कर एक साथ हजारों नागरिकों को मौत के घाट उतारा जा रहा है। यह हत्या है या आत्महत्या? यदि यह हत्या है, तो इसका जिम्मेदार कौन है? विदेशी आतंकवादी या टाडा जैसे कानून को रद्द कर देनेवाली देश की सरकार? देश के नागरिकों की जानमाल की रक्षा का जिम्मेदार कौन है? ___जो सल्लेखना आत्महत्या नहीं है, उसे आत्महत्या का नाम देकर झूठी आत्महत्या को रोकने की कवायद झूठा मानवतावाद है। जिन मित्र ने सल्लेखना को आत्महत्या कहकर उसे अवैध घोषित कराने के लिए राजस्थान उच्चन्यायालय में याचिका प्रस्तुत की है, उनसे प्रार्थना है कि वे यदि सच्चे मानवतावादी हैं, तो सर्वप्रथम उपर्युक्त वास्तविक हत्याओं और आत्महत्याओं को अवैध घोषित कराने का प्रयत्न करें। रतनचन्द्र जैन उद्दायन राजा कच्छदेश में रोरव नाम का नगर था। वहाँ के राजा का । नौकर चाकर भी उसे न सह सके और भाग गये। वहाँ राजा नाम उद्दायन और रानी का नाम प्रभावती था। और रानी के सिवाय कोई नहीं बचा। मुनि ने दुबारा भी राजा एक समय प्रथम स्वर्ग की इन्द्र, सभा में बैठे देवताओं | और रानी के ऊपर ही वमन कर दिया। इतना होने पर भी से कहने लगे कि राजा उद्दायन ग्लानि जीतने में बहुत पक्का | | राजा ने ग्लानि नहीं की। है। उनमें से वासव नामक देव के मन में आया कि इस राजा वे पछतावा करने लगे कि हाय मुझ पापी से आहार की परीक्षा करें। वह साध का वेष धारण कर अपने शरीर को | देने में कुछ भूल हो गई अथवा मैंने पूर्व जन्म में कोई महापाप घिनावना रोगी तथा दुर्गन्धित बना राजा के दरवाजे पर पहुँचा। | किया है, जिससे आहारदान में विघ्न आया। राजा पानी लाया भोजन का समय था। इसलिये राजा ने साधु को देखते ही कहा | और साधु का शरीर बड़ी सावधानी से धोने लगा। देव ने राजा कि हे महाराज! अन्न जल शुद्ध है। खड़े रहो! खड़े रहो! | की गहरी भक्ति और निर्विचिकित्सा देख अपना असली रूप राजा उसे सच्चा मुनि जानकर अपने घर में ले गये और | प्रगट किया और नमस्कार कर राजा की बड़ाई करने लगा उँचे आसन पर बैठाया। राजा-रानी ने अष्ट द्रव्य से उनकी | तथा सब सच्चा हाल कह सुनाया। पूजा की और भक्तिसहित भोजन कराया। उस बनावटी मुनि | भावार्थ-राजा उद्दायन की देवताओं ने बड़ाई की। उनके को तो राजा की परीक्षा करनी थी, इसलिये उसने वहाँ ही | समान हम सबको ग्लानि जीतना चाहिये।वमन व दूसरे दुर्गन्धित वमन कर दिया। उसकी इतनी बदबू बढ़ी कि राजा के पास के | पदार्थ पुद्गल ही हैं, उनसे ग्लानि करना अज्ञान है। (9) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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