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यज्ञोपवीत और जैनधर्म
स्व०पं०नाथूराम जी प्रेमी उपनयन या यज्ञोपवीत-धारण सोलह संस्कारों में से । विक्रम की पहली शताब्दी के बने हुए प्राकृत एक मुख्य संस्कार है। इस शब्द का अर्थ समीप लेना है। | पउमचरिय में भी ठीक इसी आशय की एक गाथा हैउप-समीप, नयन-लेना। आचार्य या गुरु के निकट वेदाध्ययन वण्णाणसमुप्पत्ती तिण्हं पि सुया मए अपरिसेसा। के लिए लड़के को लेना अथवा ब्रह्मचर्याश्रम में प्रवेश कराना यत्तो कहेह भवयं उप्पत्ती सुत्तकंठाणं॥ ही उपनयन है। इस संस्कार के चिह्नस्वरूप लड़के की इन दोनों पद्यों का 'सूत्रकण्ठ' या 'सुत्तकंठ' शब्द कमर में मूंज की डोरी बाँधने को मौञ्जीबन्धन और गले में | ध्यान देने योग्य है, जो ब्राह्मणों के लिए प्रयुक्त किया गया है। सत के तीन धागे डालने को उपवीत. यज्ञोपवीत या जनेऊ | यह शब्द ब्राह्मणों और उनके जेनऊ के प्रति आदर या श्रद्धा कहते हैं-"यज्ञेन संस्कृतं उपवीतं यज्ञोपवीतम्।" यह एक | प्रकट करनेवाला तो कदापि नहीं है, इससे तो एक प्रकार शुद्ध वैदिक क्रिया या आचार है और अब भी वर्णाश्रम धर्म | की तुच्छता या अवहेला ही प्रकट होती है। ग्रन्थकर्ता आचार्यों के पालन करनेवालों में चालू है, यद्यपि अब गुरुगृहगमन | के भाव यदि यज्ञोपवीत के प्रति अच्छे होते, तो वे इसके और वेदाध्ययन आदि कुछ भी नहीं रह गया है।
बदले किसी अच्छे उपयुक्त शब्द का प्रयोग करते। इससे यज्ञोपवीत नाम से ही प्रकट होता है कि यह जैन | अनुमान होता है कि जब पउमचरिय और पद्मपुराण लिखे क्रिया नहीं है। परन्तु भगवज्जिनसेन ने अपने आदिपुराण में | गये थे, तब जैनधर्म में यज्ञोपवीत को स्थान नहीं मिला था। श्रावकों को भी यज्ञोपवीत धारण करने की आज्ञा दी है और 2. यदि जनेऊ धारण करने की प्रथा प्राचीन होती, तो तदनुसार दक्षिण तथा कर्नाटक के जैनगृहस्थों में जनेऊ पहना | उत्तर भारत और गुजरात आदि में इसका थोड़ा बहुत प्रचार भी जाता है। इधर कुछ समय से उनकी देखादेखी उत्तर | किसी न किसी रूप में अवश्य रहता, उसका सर्वथा लोप न भारत के जैनी भी जनेऊ धारण करने लगे हैं। परन्तु हमारी | हो जाता। हम लोग पुराने रीति-रिवाजों की रक्षा करने में समझ में यह क्रिया प्राचीन नहीं है, संभवतः नवीं-दसवीं | इतने कट्टर हैं कि बिना किसी बड़े भारी आघात के उन्हें शताब्दि के लगभग या उसके बाद ही इसे अपनाया गया है | नहीं छोड़ सकते । यह हो सकता है कि उन रीति-रवाजों और शायद आदिपुराण ही सबसे पहला ग्रन्थ है, जिसने | का कुछ रूपान्तर हो जाय, परन्तु सर्वथा लोप होना कठिन यज्ञोपवीत को भी जैनधर्म में स्थान दिया है। इसके पहले का | है। इससे मालूम होता है कि उत्तर भारत और गुजरात आदि
और कोई भी ऐसा ग्रन्थ अब तक उपलब्ध नहीं हुआ है, | में इसका प्रचार हुआ ही नहीं और शायद आदि पुराण का जिसमें यज्ञोपवीत-धारण आवश्यक बतलाया हो। उपलब्ध प्रचार हो चुकने पर भी यहाँ के लोगों ने इस नई प्रथा का श्रावकाचारों में सबसे प्राचीन स्वामी समन्तभद्र का रत्नकरण्ड | स्वागत नहीं किया। है, पर उसमें यज्ञोपवीत की कोई भी चर्चा नहीं की गई है। अब से लगभग तीन-सौ वर्ष पहले आगरे में पं. अन्यान्य श्रावकाचार आदिपुराण के पीछे के और उसी का | बनारसीदास जी एक बड़े भारी विद्वान् हो गये हैं, जिनके अनुधावन करने वाले हैं, अतएव इस विषय में उनकी चर्चा | 'नाटक समयसार' और 'बनारसी विलास' नामक ग्रन्थ प्रसिद्ध व्यर्थ है।
हैं। उन्होंने 'अर्द्ध-कथानक' नाम की एक पद्यबद्ध आत्मकथा 1. आचार्य रविषेण का पद्मपुराण आदिपुराण से कोई | लिखी है, जिसमें उनकी ५२ वर्ष तक की मुख्य-मुख्य डेढ़ सौ वर्ष पहले का है। उसके चौथे पर्व का यह श्लोक | जीवन घटनाएँ लिपिबद्ध हैं। एक बार बनारसीदास जी अपने देखिए
एक मित्र और ससुर के साथ एक चोरों के गाँव में पहुँच वर्णत्रयस्य भगवन् संभवो मे त्वयोदितः। । | गये। वहाँ रक्षा का और कोई उपाय न देखकर उन्होंने उसी
उत्पत्तिः सूत्रकण्ठानां ज्ञातुमिच्छामि साम्प्रतम्॥ | समय धागा बँटकर जनेऊ पहिन लिये और ब्राह्मण बन गये! अर्थात् राजा श्रेणिक गौतम स्वामी से कहते हैं कि
सूत काढ़ि डोरा बट्यौ, किए जनेऊ चारि। भगवन्, आपने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों की पहिरे तीनि तिहूँ जने, राख्यो एक उबारि॥ उत्पत्ति तो बतला दी, पर अब मैं सूत्रकंठों की (गले में सूत माटी लीनी भूमिसों, पानी लीनों ताल। लटकाने वाले ब्राह्मणों की) उत्पत्ति जानना चाहता हूँ।
विप्र भेष तीनों बनें,टीका कीनों भाल॥ 18 नवम्बर 2006 जिनभाषित
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