________________ रजि नं. UPHIN/2006/16750 0 मुनि श्री योगसागर जी श्रेयांसनाथ स्तवन वासुपूज्यनाथ स्तवन (इन्द्रवज्रा छन्द) (इन्द्रवज्रा छन्द) श्री बाल ब्रह्मेश्वर वासुपूज्य। चम्पापुरी की रज धूल पूज्य // देवेन्द्र नागेन्द्र नरेन्द्र पूजे जो आज भी तीर्थ महान् प्यारे॥ आनन्ददायी शिवमार्ग-दी। जो भेद विज्ञान अपूर्व-दर्शी // मिथ्या निशा को क्षण में मिटाये। अरहन्त-मुद्रा सुख को दिलाये॥ 3 . श्रेयांस तीर्थेश्वर को सुध्याऊँ। पादार विन्दो उर में बिठाऊँ॥ आशीष देदो वह शक्तिशाली। जो कर्म वल्ली मिट जाय सारी॥ 2 पावित्रता तो रसना हुई है। जो आप के ही स्तव से हुई है। संसार में क्या वह वस्तु ही है। पावित्रता ही जिससे मिली है। 3 सौभाग्य मेरा तव कीर्ति गाऊँ। पुण्यानुबन्धी बहु पुण्य पाऊँ / यों पाप का संवर निर्जरा है। शुद्धोपयोगी बनना हमें है॥ 4 मिथ्यात्व की घोर अमा निशा है। तो भी न आस्था डिगती कहाँ है॥ सम्यक्त्व की भोर यहाँ दिखाये। कैवल्य का सूर्य अवश्य आये। 5 ये धर्म नेता शिवमार्ग के हैं। जो कर्म के पर्वत भेदते हैं। ये विश्व के सर्व पदार्थ ज्ञाता। वन्दू सदा मैं शिर को झुकाता // पुण्याभिलाषी दिन रात पूजें / रागी कुलिंगी देवता ये॥ ये तो सदा संसृति में भ्रमायें। आपत्ति से ही सबही धिरे हैं। 4 था घोर वैराग्य विवाह त्यागा। जो मुक्ति स्त्री में अनुराग जागा॥ देवर्षि लोकन्तिक देव आये। है भाग्यशाली तव कीर्ति गाये॥ 5 लगायें। है भक्ति की शक्ति अचिन्त्यता है। तष्णा किसी की लवमात्र ना है। नाना तरंगे उठती नहीं हैं। एकाग्रता से स्तव जागती है। है भक्ति-गंगा डुबकी लगायें। जो पाप मैला धुल के बहाये॥ ये कार्य तो पंचम काल का है। प्रमुखतया भक्ति प्रधान ही है। प्रस्तुति - रतनचन्द्र जैन स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, Jain Education Inteभोषालावा म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा:O282002 .प्र.) से प्रकाशित। संपादक : रतनचन्द्र जैन www.jainelibrary.org