Book Title: Jinabhashita 2006 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 26
________________ पूज्य मुनि श्री त्रिलोकभूषण जी व पूज्य मुनि श्री अतिवीर जी महाराज के सान्निध्य में १४ अक्टूबर ०६ को कैलाश नगर, नई दिल्ली में 'वन्दना विधि' पर एक राष्ट्रीय विद्वत्संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें लगभग १२ देश के ख्यातिप्राप्त विद्वानों ने अपनी सहभागिता की। संगोष्ठी में 'वन्दना विधि' पर एक आलेखनुमा ६ पृष्ठीय परिपत्र भी (आगमप्रमाण सहित) सन्दर्भ हेतु वितरित किया गया, जिसमें पंचपरमेष्ठी को नमोऽस्तु या वंदामि द्वारा नमस्कार करने की पुष्टि की गयी । प्रश्न यह उठा कि जैनागम में दो ही लिंग कहे गये हैं- एक सागार और दूसरा निरागार । आर्यिकाओं को किस लिंग में परिगणित किया जाये? आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने चारित्रप्राभृत में दो प्रकार का चारित्राचार कहा है वन्दना का व्याकरण दुविहं संजमरणं सायारं तह हवे णिरायारं । सायारं सग्गंथे परिग्गहारहिय खलु णिरायारं ॥ २० ॥ एक सागार और दूसरा निरागार। सागार परिग्रहसहित श्रावक के होता है और निरागार परिग्रहरहित मुनि के होता है। दर्शनप्राभृत में कहा है एक्कं जिणस्स रूवं वीयं उक्किट्ठसावयाणं तु । अवरट्ठियाण तइयं चत्थं पुण लिंग दंसणं णत्थि ॥ ८ ॥ एक जिनेन्द्र भगवान का नग्न रूप, दूसरा उत्कृष्ट श्रावकों का और तीसरा 'अवरस्थित ' अर्थात् जघन्य पद में स्थित आर्यिकाओं का लिंग है। चौथा लिंग दर्शन में है नहीं । अब यह विचारणीय है कि कैसे माना जाय कि तीसरा लिंग 'आर्यिका' का है? प्राभृत की गाथा नं. 22 देखें लिंग इत्थीणं हवदि भुंजड़ पिडं सुएयकालम्मि। अजय वि एक्कवत्था वत्थावरणेण भुंजेइ ॥ 22 ॥ तीसरा स्त्रियों का लिंङ्ग इस प्रकार है- इस लिंग को धारण करने वाली स्त्री दिन में एक ही बार आहार ग्रहण करती है । वह आर्यिका भी हो तो एक ही वस्त्र धारण करे और वस्त्र के आवरण सहित भोजन करे । वंदामि तवसमण्णा सीलं च गुणं च बंभचेरं च । सिद्धिगमणं च तेसिं सम्मत्तेण सुद्धभावेण ॥ २८ ॥ दर्शनप्राभृत 24 नवम्बर 2006 जिनभाषित Jain Education International प्राचार्य पं. निहालचंद जैन मैं उन मुनियों को वंदामि या नमस्कार करता हूँ जो तप से सहित हैं। उनके शील को, गुण को, ब्रह्मचर्य को और मुक्ति प्राप्ति को भी सम्यक्त्व तथा शुद्ध भाव से वन्दना करता हूँ। जाए ? जो संजमेसु सहिओ आरम्भ परिग्गहेसु विरओ वि । सो होइ वंदणीओ ससुरासुरमाणुसे लोए ॥ ११ ॥ सूत्रप्राभृत आगे शेष दो लिङ्गों की विनय किस प्रकार की २. श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरि पर्वत पर पार्श्वनाथ वस्ति में एक स्तम्भलेख शक सं. १०५० का है, जिसमें अब दूसरा विचारणीय चरण यह है कि तीनों लिङ्गों कुन्दकुन्दाचार्य के लिए 'वन्द्य' शब्द का प्रयोग किया गया की विनय किस प्रकार की जाए। अवसेसा जे लिंगी दंसणणाणेण सम्मसंजुत्ता । चेलेण य परिगहिया ते भणिया इच्छणिज्जाय ॥ १३ ॥ सूत्रप्राभृत दिगम्बरमुद्रा के सिवाय जो अन्य लिङ्गी हैं, सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान से सहित हैं तथा वस्त्र के धारक हैं, वे इच्छाकार करने के योग्य हैं । इस प्रकार आ. कुन्दकुन्ददेव ने शेष दोनों लिंगों की विनय करने के लिए स्पष्ट रूप से 'इच्छाकार' शब्द का प्रयोग किया है। नीचे आगमग्रन्थों के गाथारूप प्रमाणों से वन्दामि (वन्दना) शब्द का प्रयोग पंचपरमेष्ठी के लिए किया गया है। सन्दर्भ देखें १. लोयस्सुज्जोययरे धम्मं तित्थंकरे जिणे वंदे | अरहंते कित्तिस्से चौवीसं चेव कवलिणो ॥ २ ॥ सहमजियं च वंदे संभवमभिणंदणं च सुमईं च । पउमप्पहं सुपासं जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥ ३ ॥ सुविहिं च पुप्फयंतं सीयले सेयं च वासुपुज्जं च । विमल मणतं भयवं धम्मं संतिं च वंदामि ॥ ४ ॥ अर्थात् सिद्धभक्ति, अरिहंतभक्ति, चौबीस तीर्थंकरों की भक्ति, आचार्यभक्ति, योगभक्ति, और श्रुतभक्ति तथा इनकी अंचलिका-"अच्चेमि पुज्जेमि, वंदामि, णमस्सामि, णिच्चकालं अच्वंति पुज्जंति वंदंति णमस्संति" में वंदामि शब्द के द्वारा विनय की गई है। वन्द्यो विभुर्भुवि न कैरिह कौण्डकुन्दः । कुन्दप्रभा-प्रणयि-कीर्ति - विभूषिताशः ॥ For Private & Personal Use Only जैन शिलालेख संग्रह १, पृष्ठ १०२ www.jainelibrary.org

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