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जिज्ञासा-समाधान
पं.रतनलाल बैनाड़ा
प्रश्नकर्ता - पं. आनंद कुमार वाराणसी
जिज्ञासा - केवली के सात प्रकार का योग बताया है। जिज्ञासा - क्या शास्त्रों में आर्यिकाओं को विनय से | जबकि उनकी आत्मा को कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता। फिर 'वन्दामि' करने का उल्लेख मिलता है?
इन योगों में कारण क्या है? समाधान - शास्त्रों में आर्यिकाओं की वन्दना करते समाधान - सयोग केवली के औदारिक काय योग, समय 'इच्छाकार' तथा 'वन्दामि' इन दोनों शब्दों का उल्लेख
औदारिक मिश्रकाययोग, कार्मणकाययोग, सत्यमनोयोग, मिलता है । संस्कृत भावसंग्रह (आ. वामदेव) तथा सुत्त पाहुड़ अनुभय मनोयोग, सत्यवचनयोग तथा अनुभयवचनयोग, ये (आ. कुन्दकुन्द) में आर्यिकाओं को 'इच्छाकार' करने का सात योग कहे गये हैं। इनके होने में निम्नलिखित कारण हैंविधान पाया जाता है जबकि 'वन्दामि' करने के भी निम्न 1.सत्यमनोयोग तथा अनुभयवचन योगः श्री जीवकाण्ड प्रमाण उपलब्ध होते हैं।
गोम्मटसार में इस प्रकार कहा है____ 1.सागारधर्मामृत (अध्याय 6/12) में पं. आशाधर जी मणसहियाणं वयणं दिळंतप्पुव्वमिदि सजोगम्हि। ने ततश्चावर्जयेत्' .... इस श्लोक की स्वोपज्ञटीका करते हुए उत्तोमणोवयरेणिंदियणाणेण ही णम्मि॥ 228॥ लिखा है
अर्थ- मन सहित जीवों का वचनप्रयोग मनोज्ञानपूर्वक "यथा हि-यथायोग्य प्रतिपत्त्या।तत्र मुनीन्'नमोऽस्तु' इति। | ही होता है। अत: इन्द्रियज्ञानरहित सयोग केवली में उपचार आर्यिका वन्दे'इति।श्रावकान्'इच्छामि'इत्यादिप्रतिपत्त्या।" | से मनोयोग कहा गया है।
अर्थ - वहाँ मुनियों को 'नमोऽस्तु' आर्यिका को अंगोवंदुदयादो दव्वमणह्र जिणिंद चंदम्हि। 'वन्दे' तथा श्रावकों को इच्छामि' इत्यादि कहकर।
मणवग्गणखंधाणं आगमणादो दुमणजोगो।। 299॥ 2. 'नीतिसार समुच्चय' (श्री इन्द्रनदिसूरि) में इस अर्थ - अंगोपांग नामकर्म के उदय से केवली के प्रकार कहा है
द्रव्यमन होता है। उस द्रव्य मन के लिये मनोवर्गणाओं का निर्ग्रन्थानां नमोस्तु स्यादार्यिकाणाञ्च वन्दना। आगमन होने से मनोयोग कहा गया है। श्रावकस्योत्तमस्योच्चैरिच्छाकारोऽभिधीयते॥51 | उपर्युक्त आगमप्रमाणों से केवली के मनोयोग होता है।
अर्थ - मुनियों को 'नमोऽस्तु', आर्यिकाओं का | कवेली के वचन सत्य तथा अनुभय, इन दो प्रकार के होने से, 'वन्दामि' तथा उत्तम श्रावकों को 'इच्छाकार' अथवा | उनके मनोयोग भी दो प्रकार का कहा है। (टीकास्वोपज्ञ के अनुसार) इच्छामि कहना चाहिये।
2. सत्य तथा अनुभय वचन योग - श्री धवला पु. ____ 3. सिरिवालचरिउ (कविवर नरसेनदेव) में पृष्ठ 5| 1 पृ. 283 तथा धवला पु. 14 पृ. 550-552 के अनुसार पर इस प्रकार कहा है
| केवली भगवान् की दिव्यध्वनि सत्यभाषारूप तथा अनुभय गणहरणिग्गंथहँ पणवेप्पिणुअज्जियाहँ वदणयकरेप्पिणु।। भाषारूप होती है। अतः केवली भगवान् वचनवर्गणा का खुल्लयइच्छायारु करेप्पिणु, सावहाणुसावय पुंछेप्पिणु॥ | ग्रहण करते हैं । केवली के वचन सत्यरूप तो होते ही हैं, परन्तु अर्थ - मुनियों, गणधरों और निर्ग्रन्थों को प्रणाम कर, |
केवली के ज्ञान के विषयभूत पदार्थ अनन्त होने से और श्रोता आर्यिकाओं को वंदना कर.क्षल्लकों को इच्छाकार कर और का क्षयोपशम सामान्य होने से, केवली के वचनों के निमित्त सावधान होकर श्रावकों से पूछकर।
से संशय और अनध्यवसाय की उत्पत्ति हो सकती है, अतः ___ इसके अतिरिक्त 'धर्मरत्नाकर' (आ. जयसेन) में
वे वचन अनुभयरूप भी हैं। साथ ही केवली के वचनों में आर्यिका को 'विनयक्रिया' का भी उल्लेख है।
'स्यात्' इत्यादि रूप से अनुभय वचन का सद्भाव पाया जाता
है। इसलिये केवली की ध्वनि अक्षरात्मक भी कही गई है। प्रश्नकर्ता - सौ. सरिता जैन, नंदुवार
इस प्रकार दो प्रकार के वचन योग केवली के होते हैं। 28 नवम्बर 2006 जिनभाषित
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