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मानवता
सर्दी का समय है। रात की बात, लगभग बारह बज गये। हैं। सब लोग अपने-अपने घरों में अपनी-अपनी व्यवस्था के अनुरूप सर्दी से बचने के प्रयत्न में हैं। खिड़कियाँ और दरवाजे सब बंद हैं। पलंग पर विशेष प्रकार की गर्म दरी बिछी है। उसके ऊपर भी गादी है, ओढ़ने के लिए रजाई है। पलंग के समीप अंगीठी भी रखी है। एक-एक क्षण आराम के साथ बीत रहा है।
इसी बीच कुछ ऐसे शब्द ऐसी आवाज सुनाई पड़ी, जो दुख-दर्द भरी थी। इस प्रकार दुखभरी आवाज सुनकर मन बेचैन हो गया। इधर-उधर उठकर देखते हैं, तो सर्दी भीतर घुसने का प्रयास कर रही है। वह सोचते हैं कि उहूँ कि नहीं उहूँ। कुछ क्षण बीतने के उपरांत वह करुण आवाज पुनः कानों में आ जाती है। उठने की हिम्मत नहीं है, सर्दी बढ़ती जा रही है, पर देखना तो आवश्यक लग रहा है।
थोड़ी देर बाद साहस करके उठकर देखते हैं, तो बाहर कुत्ते के तीन चार छोटे-छोटे बच्चे सर्दी के मारे सिकुड़ गये थे । आवाज इन्हीं के रोने की थी। उन्हें देखकर रहा नहीं गया और वे अपने हाथों में उन कुत्ते के बच्चों को उठा लेते हैं और जिस गादी पर वे शयन कर रहे थे, उसी पर लिटा देते हैं। धीरे-धीरे अपने हाथों से उन्हें सहलाते हैं। सहलाने से वे कुत्ते के बच्चे सुखशांति का अनुभव करने लगे। वेदना का अभाव सा होने लगा । उन बच्चों को ऐसा लगा जैसे कोई माँ उन्हें सहला रही हो ।
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आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज F.M
लिए ऐसा ही कोई न कोई निमित्त आवश्यक होता है। यह कथा गाँधी जी के जीवन की है। गादी पर सुलाने वाले और कुत्ते के बच्चों को सहलाने वाले वे गाँधी जी ही थे।
इस घटना से प्रभावित होकर उन्होंने नियम ले लिया कि सभी के हित के लिए अपना जीवन समर्पित करूँगा। जिस प्रकार मैं इस संसार में दुखित हूँ, उसी प्रकार दूसरे जीव भी दुखित हैं। मैं अकेला ही सुखी बनूँ यह बात ठीक नहीं है। में अकेला सुखी नहीं बनना चाहता, मेरे साथ जितने और प्राणी हैं सभी को बनाना चाहता हूँ। जो कुछ मेरे लिए है वह सबके लिए होना चाहिए। दूसरों के सुख में ही मेरा भी सुख निहित है। उन्होंने अपनी आवश्यकताएँ सीमित कर लीं। एकत्रित भोग्य प्रदार्थों की सीमा बाँध ली।
एक दिन की बात। वे घूमने जा रहे थे। तालाब के किनारे उन्होंने देखा कि एक बुढ़िया अपनी धोती धो रही थी। देखते ही उनकी आँखों में आँसू आ गये। आधी धोती बुढ़िया ने पहन रखी. थी और आधी धोती धो रही थी। आपने कभी सोचा? कितने हैं आपके पास कपड़े? एक बार में एक ही जोड़ी पहनी जाती है, यह बात सभी जानते हैं, लेकिन एडवांस में जोड़कर कितने रखे हैं? बोलो, चुप क्यों?
आपकी जिन पेटियों में सैकड़ों कपड़े बंद पड़े हैं, उन पेटियों में घुस - घुसकर चूहे कपड़े काट रहे होंगे, पर फिर भी आपके दिमाग में यह चूहा काटता रहता है कि उस दिन बाजार में जो बढ़िया कपड़ा देखा था, वह हमारे पास होता। जो पेटी मे बंद हैं उनकी ओर ध्यान नही हैं, जो बाजार में आया है उसे खरीदने की बेचैनी है। सारे काम छोड़कर उसी की पूर्ति का प्रयत्न है । यही तो अपव्यय है । यही दुख का कारण है। गाँधी जी ने उस बुढ़िया की हालत देखकर सोचा कि अरे ! इसके पास तो ठीक से पहनने के लिए भी नही है, ओढ़ने की बात तो बहुत दूर है । कितना अभावग्रस्त जीवन है इसका, लेकिन फिर भी इसने किसी से जाकर अपना दुख नहीं कहा। इतने में ही काम चला रही है। जब से गाँधी जी ने जनता के दुख भरे जीवन को देखा, तब से उन्होंने सादा जीवन बिताना प्रारम्भ कर दिया। छोटी सी धोती पहनते थे, जो घुटने तक आती थी। आप जरा अपनी ओर देखें, आपके जीवन में कितना व्यर्थ खर्च हो रहा है। जो किसी और के काम आ सकता था, वह व्यर्थ ही नष्ट हो रहा हैं।
सहलाते-सहलाते उनकी आँखे डब डबाने लगीं। आँसू बहने लगे। वे सोचने लगे कि इन बच्चों के ऊपर मैं और क्या उपकार कर सकता हूँ । इनका जीवन अत्यंत परतंत्र है। प्रकृति का कितना भी प्रकोप हो, पर उसका कोई प्रतिकार ये नहीं कर सकते। ऐसा दयनीय जीवन ये प्राणी जी रहे हैं। हमारे जीवन में एक क्षण के लिए भी प्रतिकूल अवस्था आ जाए, तो हम क्या करते हैं । सारी शक्ति लगा कर उसका प्रतिकार करते हैं। संसार में ऐसे कई प्राणी होंगे, जो प्रतिकार की शक्ति के अभाव में यातनापूर्वक जीते हैं । कोई-कोई तो मनुष्य होकर भी पीड़ा और यातना सहन करते हैं। उन्होंने इसी समय संकल्प ले लिया कि " अब मैं ऐश-आराम की जिन्दगी नहीं जिऊँगा । ऐश-आराम की जिंदगी विकास के लिए कारण नहीं बल्कि विनाश के लिए कारण है। या कहो ज्ञान का विकास रोकने में कारण हैं। मैं ज्ञानी बनना चाहता हूँ। मैं आत्म-ज्ञान की खोज करूँगा। सबको सुखी बनाने का उपाय खोजूँगा।" उन कुत्ते के बच्चें की पीड़ा को उन्होंने अपने जीवन के निर्माण का माध्यम बना लिया। जीवन के विकास के । जाते थे। उनका जीवन कितना आदर्श था। उन्हें दूसरे के
आप भारत के नागरिक हैं। गाँधी जी भारत के नेता माने
10 नवम्बर 2006 जिनभाषित
दुख का
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