Book Title: Jinabhashita 2006 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 17
________________ त्यागा नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने 'बिजॉय इम्मेनुअल स्टेट | महाप्रस्थान के पथ पर जाने की प्रक्रिया के रूप में मान्य रहा ऑफ केरल' में प्रतिपादित किया है कि धर्म केवल धार्मिक | है। इस प्रकार संथारा आत्महत्या नहीं है। आत्महत्या एक आस्था, धार्मिक प्रैक्टिस तक ही विस्तृत नहीं है, पूजा- | इम्पल्सिव प्रक्रिया है, जबकि संथारा एक उत्सव के रूप में विधि, संस्कार तथा खान-पान आदि भी संस्कृति के अभिन्न | मनाया जाता है। यह किसी भी प्रकार लोकव्यवस्था के अंग हैं। धर्म संस्कृति का ही प्रतीक है। जैन धर्म में संथारा | विरुद्ध नहीं है। जैन मुनि, साधु-साध्वी तथा साधुप्रवृत्ति के व्यक्तियों के 'दैनिक भास्कर' भोपाल, 30 सितम्बर 2006 से साभार लिए जीवन समाप्त करने की अर्थात् मोक्षगामी बनाने की, | समाज से अपील उदयपुर (राज.) में परम पूज्य मुनिपुंगव श्री सुधासागर । एवं नगर में जैन-पाठशालाएँ स्थापित की जायें तथा इनमें | जी महाराज, पू.क्षु. श्री गम्भीर सागर जी महाराज एवं पू.क्षु. | योग्य धार्मिक शिक्षकों की नियुक्ति की जाये। श्री धैर्यसागर जी महाराज के सान्निध्य एवं अखिल भारतवर्षीय | ७. जैनधर्म हिन्दूधर्म से सर्वथा पृथक् एवं मौलिक धर्म दिगम्बर जैन शास्त्रि-परिषद एवं अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर | है. अत: जैनधर्म की मौलिक एवं स्वतंत्र सत्ता को कायम रखा जैन विद्वत्परिषद् के २५० विद्वानों तथा समाज के मध्य | जाये तथा इनके धार्मिक, शैक्षणिक संस्थाओं के अल्पसंख्यक आयोजित संयुक्त अधिवेशन (दि. ४ अक्टूबर २००६) में | स्वरूप को बनाये रखा जाये। दिगम्बर जैनधर्म संस्कृति के संरक्षणार्थ सर्वसम्मति से लिये ८.जैन कालेजों में जैन विद्या एवं प्राकृत विभग स्थापित गये निर्णयों पर आधारित समाज से अपील | किये जायें। इनमें जैन धर्मानुयायी प्राध्यापकों की नियुक्ति की १.शासन देवी-देवताओं की पूजा-विधान-अनुष्ठान | जाये। जैन विद्याथियों को चाहिए कि वे इनमें प्रवेश लेकर जैन आदि आगम सम्मत नहीं है, अतः तीर्थंकरों के समान उनका | संस्कृति के संवर्धन-संरक्षण में सहभागी बनें। पूजन-विधान अनुष्ठान नहीं करना चाहिए। ९. जैनमंदिरों में समाज के मध्य सांध्य/रात्रिकालीन २. वर्तमान में कतिपय साधु-साध्वी-संघों में बढ़ता | स्वाध्याय/वचनिका की परम्परा को पुनजीवित किया जाये, हुआ शिथिलाचार एवं परिग्रह के अधिक संचय की प्रवृत्ति | ताकि हमारी नवीन पीढ़ी को जैनधर्म के मूलभूत सिद्धान्तों का चिन्ताजनक है। साधुओं के द्वारा मोबाइल रखना एवं बिना | परिचय मिल सके तथा हमारी निर्दोष परम्पराओं के प्रति पीछी/कमण्डलु के उनके चित्रों का प्रकाशन उचित नहीं है। | अनवरत आस्था बनी रहे। यह साधुवर्ग का अवमूल्यन है, अतः समाज उक्त प्रवृत्तियों | १०. समाज में बढ़ती हुई मद्यपान की प्रवृत्ति अशोभनीय को प्रोत्साहित न करे। एवं अधार्मिक है अतः इस पर दृढ़ता से रोक लगायी जाये। ३. नवरात्रि का ऐतिहासिक एवं धार्मिक दृष्टि से | ११.दिगम्बर जैन मंदिरों एवं अन्य संस्थाओं के शास्त्रजैनधर्म में कोई अस्तित्व व महत्त्व नहीं है, अतः इस अवसर भण्डारों की समुचित सुरक्षा की जाये। इनमें कुदेव कुगुरुपर किये जानेवाले विशेष अनुष्ठान आगम सम्मत नहीं हैं। पोषक धर्मविरोधी साहित्य नहीं रखा जाये। पूर्व प्रकाशित अतः विद्वानों की कृत-कारित-अनुमोदना नहीं है। साधु वर्ग | अनुपलब्ध ग्रन्थों के पुनः प्रकाशन की व्यवस्था तो अवश्य की को भी चाहिए कि आगम में अस्तित्व न होने के कारण इन | जाये, परन्तु उनमें लेखकों/सम्पादकों/अनुवादकों के नाम पूर्ववत पूजा--अनुष्ठानों की प्रेरणा न दें, न सान्निध्य प्रदान करें। प्रकाशित किये जायें। ४. आचार्य/मुनिसंघ एवं आर्यिकासंघ को एक ही निवेदक वसतिका में नहीं रहना चाहिए। डॉ. श्रेयांसकुमार जैन (अध्यक्ष) डॉ. शीतलचन्द्र जैन (अध्यक्ष) ५.दान की राशि किसी साधु या संघस्थ व्यक्ति को न प्रा. अरुणकुमार जैन (महामंत्री) डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन (मंत्री) देकर सीधे सम्बंधित संस्थाओं/तीर्थस्थानों को भेजी जाये, एवं समस्त पदाधिकारी/सदस्य एवं समस्त पदाधिकारी/सदस्य अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन ताकि दानराशि का शीघ्रता से समुचित उपयोग हो सके। शास्त्रि-परिषद् विद्वत्परिषद् ६. जैनधर्म के समुचित ज्ञानप्रसार हेतु प्रत्येक ग्राम । नवम्बर 2006 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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