Book Title: Jinabhashita 2006 11 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 8
________________ . संन्यास = abstinence from food, giving up the body. संन्यासिन् = abstaining from food (Bhatt). departure from life, seeking death by fasting (as a religious or penitentiary act, or to enforce compliance with a demand). आमरण अनशन, किसी इष्टसिद्धि के लिए खाना-पीना छोड़कर धरना देना (आप्टेकोश)। प्रायोपगमन = going to meet death, seeking death (by abstaing from food). प्रायोपवेशन= abstaining from food and awaiting in a sitting posture the approach of death. सल्लेखना के लिए 'संन्यासमरण' और 'प्रायोपगमन' शब्दों का प्रयोग जैनशास्त्रों में भी किया गया है। यथा"अथ संन्यासक्रिया-प्रयोगविधिं श्लोकद्वयेनाह" = आगे संन्यासपूर्वक मरण की विधि दो श्लोकों में कहते हैं। (अनगारधर्मामृत ९/६१-६२/उत्थानिका/पृ.६७३/हिन्दी अनुवाद : सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री)। पायोपगमणमरणं भत्तपइण्णा य इंगिणी चेव।। तिविहं पंडितमरणं साहुस्स जहुत्तचारिस्स॥२८॥ भगवती-आराधना। अनुवाद- प्रायोपगमन-मरण, भक्तप्रतिज्ञा-मरण और इंगिनीमरण, ये तीन पण्डितमरण हैं। ये शास्त्रोक्त आचरण करनेवाले साधु के होते हैं। "प्राय अर्थात् संन्यास की तरह उपवास के द्वारा जो समाधिमरण होता है, उसे प्रायोपगमन समाधिमरण कहते हैं।" (षट्खण्डागम-धवलाटीका / विशेषार्थ । पुस्तक १/१, १, १/ पृष्ठ २४/१९९२ ई०/ सोलापुर)। उपनिषदों में कहा गया है कि परिव्राजक एवं परमहंसपरिव्राजक साधु 'संन्यास' (अनशन) से ही देहत्याग करते हैं १. "तदेतद्विज्ञाय ब्राह्मणः परिव्रज्य --- संन्यासेनैव देहत्यागं करोति।" (नारदपरिव्राजकोपनिषत् / तृतीयोपदेश/ ईशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषदः । पृष्ठ २६८)। २."--- परमहंसाचरणेन संन्यासेन देहत्यागं कुर्वन्ति ते परमहंसा नामेत्युपनिषत्।" (भिक्षुकोपनिषत् / ईशाद्यष्टोत्तर. / पृ.३६८)। __३."--- कुटीचको वा बहूदको वा हंसो वा परमहंसो वा --- संन्यासेनैव देहत्यागं करोति स परमहंस-परिव्राजको भवति।" (परमहंसपरिव्राजकोपनिषत्/ईशाद्यष्टोत्तर/पृ. ४१९)। संन्यासमरण को 'योगमरण' शब्द से भी अभिहित किया गया है और बतलाया गया है कि रघुकुल के राजा जीवन के अन्त में योग से शरीर का परित्याग करते थे शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्। वार्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम्॥१८॥ चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहते हैं- "योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः" (पातञ्जलयोगदर्शन/ समाधिपाद/सूत्र २)। इसके लिए प्रत्याहार आवश्यक होता है, जिसमें इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से निवृत्त होकर चित्ताकार सदृश हो जाती हैं- "स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः" (वही/साधनपाद/सूत्र ५४)। इससे योग में आहारादि का त्याग अपने-आप हो जाता है। हिन्दूपुराणों में दो प्रकार के नर-नारियों को स्वर्ग या मोक्षफल पाने की इच्छा से अग्निप्रवेश, जलप्रवेश अथवा अनशन द्वारा देहत्याग का अधिकारी बतलाया गया है समासक्तो भवेद्यस्तु पातकैर्महदादिभिः। दुश्चिकित्स्यैर्महारोगैः पीडितो वा भवेत्तु यः॥ - 6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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