Book Title: Jinabhashita 2004 08 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 4
________________ सम्पादकीय. वात्सल्य, बन्धुत्व एवं गुरुभक्ति का प्रतीक रक्षा बन्धन पर्व भारतीय संस्कृति में पर्यों का विशिष्ट महत्त्व है। किसी भी समाज के पर्वो को देखकर उसकी संस्कृति, सभ्यता, जीवन शैली,धार्मिकता एवं प्राचीन परम्पराओं का सहज ही पता चल जाता है। ये पर्व सामाजिक, राष्ट्रीय,धार्मिक,पारिवारिक,अन्तर्राष्ट्रीय आदि विविध प्रकार के माने गए हैं। सम्पूर्ण भारत देश में विशेष उत्साह से मनाया जानेवाला रक्षाबन्धन पर्व सामाजिक, धार्मिक एवं राष्ट्रीय महत्त्व वाला महान पर्व है, जो प्रतिवर्ष श्रावण शुक्ला पूर्णिमा को विशेष उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस पर्व का प्रारंभ जैन धर्म के अठारहवें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ के तीर्थकाल से माना जाता है। इसकी उत्पत्ति-सम्बन्धी कथा पुण्यास्रव कथाकोश में इस प्रकार की गई है अवन्ती देश की उजयिनी नगरी में राजा श्रीवर्मा था, उसकी रानी श्रीमती थी और बलि, वृहस्पति, प्रह्लाद तथा नमुचि ये चार मंत्री थे। एक बार उज्जयिनी में समस्त श्रुत के धारी, दिव्यज्ञानी सात सौ मुनियों के साथ अकम्पनाचार्य उद्यान के वन में ठहर गए। आचार्य ने समस्त संघ से कहा कि यदि राजादिक भी आयें तो भी कोई मुनि बोले नहीं, अन्यथा समस्त संघ का नाश हो जायेगा। धवलगृह पर स्थित राजा ने हाथ में पूजा की सामग्री लेकर नगर के लोगों को जाते हुए देखकर मन्त्रियों से कहा-बहुत से जैन मुनि नगर के बाहरी उद्यान में आये हुए हैं,वहाँ पर ये लोग जा रहे हैं। हम भी उनके दर्शन के लिये चलें,ऐसा कहकर राजा भी उन चार मन्त्रियों के साथ गया। प्रत्येक मुनि की सभी ने वन्दना की, किन्तु किसी ने भी आशीर्वाद नहीं दिया। राजा ने सोचा दिव्य अनुष्ठान के कारण नि:स्पृह (इच्छा रहित) ये मुनि बैठे हैं, अतः वह वापिस लौटने लगा। रास्ते में दुष्ट अभिप्राय-धारक मन्त्रियों ने उपहास किया कि ये मूर्ख बैल हैं- इस प्रकार बोलते हुए जब वे आगे जा रहे थे, तभी आगे चर्याकर श्रुतसागर मुनि को आते हुए देखकर उन मन्त्रियों में से किसी ने कहा- 'यह तरुण बैल ,ऐट भर कर आ रहा है।' यह सुनकर श्रुतसागर मुनि ने राजा के ही सामने उन मन्त्रियों को शास्त्रार्थ में जीत लिया तथा आकर अकम्पनाचार्य से समाचार कहा। आचार्य श्री ने कहा तुमने सारे संघ को मार दिया। यदि शास्त्रार्थ के स्थान में जाकर रात में तुम अकेले ठहरते हो, तो संघ जीवित रहेगा तथा तुम्हारी शुद्धि होगी।अनन्तर श्रुतसागर मुनि वहाँ जाकर कायोत्सर्गपूर्वक खड़े हो गये। अत्यन्त लजित क्रुद्ध मन्त्रियों ने रात्रि में संघ को मारने के लिए जाते समय उन एक मुनि को देखकर 'जिसने हमारा निरादर किया,उसे ही मारना चाहिए' ऐसा विचार कर उनके वध के लिए एक साथ चार तलवारें खींची। इसी समय नगर देवी का आसन कम्पायमान हुआ, उसने उन मन्त्रियों को उसी अवस्था में कील दिया। प्रात:काल समस्त लोगों ने उन्हें उसी प्रकार देखा। राजा बहुत रुष्ट हुआ, किन्तु ये मन्त्री कल परम्परा से आगत हैं, ऐसा जानकर उन्हें उसने नहीं मारा। उन्हें गधे पर चढ़ाना आदि कराकर (सजा देकर) देश से निकाल दिया। कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर का राजा पद्मरथ था। उसकी रानी का नाम लक्ष्मीमति था। उसके पद्मरथ और विष्णु दो पुत्र थे। एक बार पद्मरथ को राज्य देकर पद्मरथ विष्णु के साथ श्रुतसागर चन्द्राचार्य के समीप मुनि हो गये। वे बलि आदि मंत्री आकर राजा पद्मरथ के मंत्री हो गए। कुम्भपुर नगर में राजा सिंहबल था में पद्मरथ के मण्डल के ऊपर उपद्रव करता था। उसे पकड़ने की चिन्ता के कारण पद्मरथ को दुर्बल देखकर वलि ने पूछा 'महाराज दुर्बलता का क्या कारण है?' राजा ने उसी समय अपनी दुर्बलता का कारण कहा । वह सुनकर आदेश माँगकर कुम्भपुर जाकर बुद्धि के माहात्म्य से दुर्ग तोड़कर सिंहबल को पकड़कर लौटकर उसे पद्मरथ को समर्पित कर दिया- 'महाराज! वह सिंहबल यह है। सन्तुष्ट होकर उसने कहा-'इच्छित वर माँगों।' बलि ने कहा'जब माँगूगा, तब दीजिएगा।' अनन्तर कुछ दिनों में विहार करते हुए वे अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनि हस्तिनापुर आए। नगर में चहलपहल होने पर बलि आदि ने भयपूर्वक विचार किया कि राजा इनका भक्त है। अतः संघ को मारने के लिए पहले 2 अगस्त 2004 जिन भाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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