Book Title: Jinabhashita 2004 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 35
________________ मुनि श्री शान्तिसागर विनयांजलि अष्टक मुनि श्री आर्जवसागर जी वर्तमान में श्रमण मार्ग के, श्रेष्ठ सु-धारक आप रहे। चौथे युग की चर्या के भी, ज्ञाता उत्तम आप रहे। घोर तपों बहु उपवासों से, कर्मबंध को शिथिल किया। शान्तिश्री के पद कमलों में, मम मन ने यह नमन किया। जिनके पावन दर्शन पाने, श्रावक दौड़े आते थे। अमृतमय गुरु सदुपदेश से, शान्ति सुधा को पाते थे। त्याग, दया व क्षमाशीलता, गुण जीवन में लाते थे। शान्तिश्री की गौरवता को, सब मिल करके गाते थे। शूरवीर बन इस भारत की, तीर्थ वंदना जिनने की। सत्य अहिंसा जैन धर्म की, श्रेष्ठ पताका फहरा दी। श्रमण जनों के दर्शन का ये, स्वज यहाँ साकार हुआ। शान्तिश्री का जीवनदर्शन,जन जन का हित दर्श हुआ। ज्ञानी ध्यानी महाव्रती वे, स्वानुभवी व समधनी थे। पूजा ख्याति प्रलोभनों से, बहुत दूर वे यतिवर थे॥ अहंकार का नाम नहीं था, ओंकार से पूरित थे। शान्तिश्री जी इस धरती पर, धर्ममार्ग की मूरत थे। सरल वृत्ति का शान्त सरोवर, जिनमें है लहराता था। स्याद्वाद के तट में बँधना, इस जग को सिखलाता था। सभी मतों से बने एकता, धर्मसूत्र हैं बतलाये। जीव मात्र पर करुणा के थे, सबक आपने सिखलाये॥ मिथ्यारूपी अंधकार को, आगम पथ दे दूर किया। सम्यग्दर्शन की किरणों से, मुक्तिमार्ग प्रशस्त किया। वीर जवानों की सेना के, आप रहे आदर्श यति। महामनीषी महा सु-योगी, बड़े आपकी शुभ कीर्ति ॥ भगवन देश व कुलभूषण के, परम भक्त हैं आप रहे। समाधि लेकर उनके पद में, मरणविजेता आप रहे। संत शिरोमणि महातपोधन, शान्तिसागराचार्य श्री॥ हम सब वंदन करते पद में, हमें मिले वह मुक्तिश्री॥ शान्ति वीर अरु शिवसागर थे, ज्ञान, विद्या के आधार। जिनके कदमों पर चल करके, बना आर्जव' मैं अनगार॥ यही भावना गुरुचरणों में, वन्दन करके शत बार। बने चेतना निर्मल मेरी, पाऊँ मुक्ति समता धार॥ 'धर्मभावना' से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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