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जिनभाषित
वीर निर्वाण सं. 2530
PAAAA
श्री नन्दीश्वर द्वीप-रचना जिनालय _पिसनहारी-मढ़िया, जबलपुर, म.प्र.
श्रावण-भाद्रपद, वि.सं. 2061
अगस्त 2004
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अन्याय के हजार वर्ष की अपेक्षा एक पल सत्य के साथ जीना उचित
आचार्य श्री विद्यासागर जी
पक्ष और विपक्ष दोनों अलग-अलग होते हैं। राष्ट्र में उनका लक्ष्य भी अलग-अलग होता है, किन्तुदीनी काराष्ट्रीय पक्ष एक ही होता है। राष्ट्रहित के पक्ष को मजबूत करने के लिए जिस तरह सभी पक्ष एकजुट हो जाते हैं, उसी प्रकार से अहिंसा का पक्ष भी हर जगह लिया जाना चाहिए। स्थान चाहे लोकसभा, राज्यसभा अथवा विधानसभा हो, अहिंसा के पक्ष को समर्थन सभी जगह दिया जाना चाहिए । अन्याय के पक्ष में हजार वर्ष जीने की अपेक्षा एक पल सत्य के साथ जीना उचित है। सत्य और अहिंसा के साथ ही विजय और मोक्ष के लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है।
शरीर को जैसा आप रखना चाहोगे,वह वैसा ही काम में आता है। जागृति भीतर से आना चाहिए। वह स्वप्रेरणा से मिलती है। आज का युग परिश्रम से दूर है। सुविधा के साथ भी लोग कुछ करना नहीं चाहते हैं। राष्ट्र में पक्ष और विपक्ष दोनों लक्ष्य भूलकर एक-दूसरे के विरोध में रहते हैं। देखने के लिए एक आँख काम में आती है। पर क्या उड़ने के लिए एक पंख पर्याप्त है ? कदापि नहीं । एक आँख से देखा तो जा सकता है, लेकिन दोनों आँखों से अलग-अलग जगहों पर एक साथ देखा नहीं जा सकता है। आँखें एक-दूसरे की मदद करती हैं और नाक उनके बीच कलह को रोकने का काम करती है। केन्द्र की बात करना सरल है, लेकिन केन्द्रीभूत होना बहुत कठिन होता है। मन को ब्रेक लगाओ और यदि मन मंजूरी देता है, तो सभी काम आँखों से ठीक हो सकते हैं। राष्ट्र में पक्ष और विपक्ष दोनों को चाहिए कि राष्ट्रीयता की भावना के साथ अपनी शक्ति और क्षमता का राष्ट्रहित में सदुपयोग करें।
सही दिशा में कार्य करने से सुफल मिलता है। विचार को शालीनता से रखा जाना चाहिए। क्षोभ के बिना जो कार्य होता है,वह उचित है। लेकिन क्षोभ के बिना कार्य का यह अर्थ भी नहीं कि हाँ में हाँ मिला दें, अवसरवादी बन जायें। सभी मिलकर राष्ट्रीय पक्ष मजबूत करें। आत्मा का उद्धार स्वपरप्रकाशक ज्ञान के माध्यम से होता है। नेतृत्व करने वाला व्यक्ति काफी गम्भीर होता है। उसे किसी भी निर्णय को करने से पहले काफी गम्भीरता से विचार करना पड़ता है। नदी के बीच में उथल-पुथल नहीं होती, तथा न ही तरंग उठती है। वह तो किनारों को साथ लेकर चलती है। इसी प्रकार नेतृत्वकर्ता राष्ट्र के सर्वांगीण हित में विकास के लिए सोचता रहे, सभी को साथ में लेकर चलता रहे। शतरंज के खेल का उदाहरण देते हुए तपोनिधि ने कहा कि इस खेल में अपने को तथा विपक्ष को दोनों को देखें। पक्ष वाले को सामने वाले का पक्ष सीधा नहीं दिखता। उसके लिए उल्टी चाल चलनी होती है। वर्तमान में शतरंज का खेल प्रत्येक के जीवन के साथ चल रहा है। अन्याय का विरोध शतरंज के खेल की तरह उल्टी चाल से किया जा सकता है।
विभीषण ने अन्याय के विरुद्ध स्वयं को मन,वचन और कर्म से समर्पित किया था। भगवान राम के समक्ष जब वह गया, तो बिना बोले ही उसका त्याग और समर्पण झलक रहा था, जैसे कि वह अग्निपरीक्षा के लिए तैयार हो। उसके हाव-भाव देखकर क्रोधित लक्ष्मण भी शांत हो गये। हमें भी शांति प्राप्ति के लिये क्रोधरूपी अग्नि को उतार देना चाहिए। अपने मनोभावों को हम बिना बोले ही प्रदर्शित कर सकते हैं। शब्द पंगु है। जवाब दिये बिना भी अपने सम्पूर्ण भावों को मुखमण्डल के माध्यम से अभिव्यक्त कर सकते हैं। प्रार्थना करो कि सामनेवाला आपके मनोभाव समझ ले।
प्रेषक : निर्मलकुमार पाटोदी 22,जॉय बिल्डर्स कॉलोनी,इन्दौर 452003 (म.प्र.)
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रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC
डाक पंजीयन क्रं.-म.प्र./भोपाल/588/2003-05
अगस्त 2004
मासिक
वर्ष 3, अङ्क 7
जिनभाषित
सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन
अन्तस्तत्त्व
* सम्पादकीय : वात्सल्य, बन्धुत्व एवं गुरुभक्ति का प्रतीक
रक्षाबन्धन पर्व
कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल 462039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666
सहयोगी सम्पादक पं.मूलचन्द लुहाड़िया (मदनगंज किशनगढ़) पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ.श्रेयांस कुमार जैन, बडौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन, 'भारती', बुरहानपुर
शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी (मे.आर.के. मार्बल्स लि.)
किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर
* प्रवचन : अन्याय के हजार वर्ष की अपेक्षा एक पल सत्य के साथ जीना उचित
: आ. श्री विद्यासागर जी आ.पृ.2 * लेख • समाधिमरण के अवसर में मुनिदीक्षा
: पं.मिलापचन्द कटारिया 5 • श्रमणचर्या का अभिन्न अंग अनियतविहार
डॉ. श्रेयांस जैन प्राचीन जैन ग्रन्थकारों द्वारा कुन्दकुन्द के नाम-अनुल्लेख का कारण : प्रो. रतनचन्द्र जैन परिग्रह से निवृत्ति का साधन उत्तम त्याग धर्म
डॉ. नरेन्द्र जैन भारती • भगवान की जन्मभूमि में अंतर क्यों ?
: कैलाश मड़बैया आदर्श जीवन शैली ही धर्म है : प्रो. वी.के. जैन वासना से वात्सल्य की ओर : श्रीमती सुशीला पाटनी यदि आप शाकाहारी हैं तो अवश्य ध्यान रखें
: पदम रांटा * प्राकृतिक चिकित्सा • वायु है वरदान
: डॉ. वंदना जैन * जिज्ञासा- समाधान
: पं. रतनलाल बैनाड़ा म.प्र. अल्पसंख्यक आयोग द्वारा लिखा पत्र
: अरुण जैन * बाल वार्ता • वह देना सीख रही है
: डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 14 * कविता . आचार्य श्री शान्तिसागर विनयांजलि अष्टक
: मुनि श्री आर्जवसागर आ.पृ. 3 समाचार
30-32
प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-2151428,
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लेखक के विचारों से सम्पादक को सहमत होना आवश्यक नहीं है। जिनभाषित से सम्बन्धित विवादों के लिए न्यायक्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा।
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सम्पादकीय.
वात्सल्य, बन्धुत्व एवं गुरुभक्ति का प्रतीक रक्षा बन्धन पर्व
भारतीय संस्कृति में पर्यों का विशिष्ट महत्त्व है। किसी भी समाज के पर्वो को देखकर उसकी संस्कृति, सभ्यता, जीवन शैली,धार्मिकता एवं प्राचीन परम्पराओं का सहज ही पता चल जाता है। ये पर्व सामाजिक, राष्ट्रीय,धार्मिक,पारिवारिक,अन्तर्राष्ट्रीय आदि विविध प्रकार के माने गए हैं। सम्पूर्ण भारत देश में विशेष उत्साह से मनाया जानेवाला रक्षाबन्धन पर्व सामाजिक, धार्मिक एवं राष्ट्रीय महत्त्व वाला महान पर्व है, जो प्रतिवर्ष श्रावण शुक्ला पूर्णिमा को विशेष उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस पर्व का प्रारंभ जैन धर्म के अठारहवें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ के तीर्थकाल से माना जाता है। इसकी उत्पत्ति-सम्बन्धी कथा पुण्यास्रव कथाकोश में इस प्रकार की गई है
अवन्ती देश की उजयिनी नगरी में राजा श्रीवर्मा था, उसकी रानी श्रीमती थी और बलि, वृहस्पति, प्रह्लाद तथा नमुचि ये चार मंत्री थे। एक बार उज्जयिनी में समस्त श्रुत के धारी, दिव्यज्ञानी सात सौ मुनियों के साथ अकम्पनाचार्य उद्यान के वन में ठहर गए। आचार्य ने समस्त संघ से कहा कि यदि राजादिक भी आयें तो भी कोई मुनि बोले नहीं, अन्यथा समस्त संघ का नाश हो जायेगा। धवलगृह पर स्थित राजा ने हाथ में पूजा की सामग्री लेकर नगर के लोगों को जाते हुए देखकर मन्त्रियों से कहा-बहुत से जैन मुनि नगर के बाहरी उद्यान में आये हुए हैं,वहाँ पर ये लोग जा रहे हैं। हम भी उनके दर्शन के लिये चलें,ऐसा कहकर राजा भी उन चार मन्त्रियों के साथ गया। प्रत्येक मुनि की सभी ने वन्दना की, किन्तु किसी ने भी आशीर्वाद नहीं दिया। राजा ने सोचा दिव्य अनुष्ठान के कारण नि:स्पृह (इच्छा रहित) ये मुनि बैठे हैं, अतः वह वापिस लौटने लगा। रास्ते में दुष्ट अभिप्राय-धारक मन्त्रियों ने उपहास किया कि ये मूर्ख बैल हैं- इस प्रकार बोलते हुए जब वे आगे जा रहे थे, तभी आगे चर्याकर श्रुतसागर मुनि को आते हुए देखकर उन मन्त्रियों में से किसी ने कहा- 'यह तरुण बैल ,ऐट भर कर आ रहा है।' यह सुनकर श्रुतसागर मुनि ने राजा के ही सामने उन मन्त्रियों को शास्त्रार्थ में जीत लिया तथा आकर अकम्पनाचार्य से समाचार कहा। आचार्य श्री ने कहा तुमने सारे संघ को मार दिया। यदि शास्त्रार्थ के स्थान में जाकर रात में तुम अकेले ठहरते हो, तो संघ जीवित रहेगा तथा तुम्हारी शुद्धि होगी।अनन्तर श्रुतसागर मुनि वहाँ जाकर कायोत्सर्गपूर्वक खड़े हो गये। अत्यन्त लजित क्रुद्ध मन्त्रियों ने रात्रि में संघ को मारने के लिए जाते समय उन एक मुनि को देखकर 'जिसने हमारा निरादर किया,उसे ही मारना चाहिए' ऐसा विचार कर उनके वध के लिए एक साथ चार तलवारें खींची। इसी समय नगर देवी का आसन कम्पायमान हुआ, उसने उन मन्त्रियों को उसी अवस्था में कील दिया। प्रात:काल समस्त लोगों ने उन्हें उसी प्रकार देखा। राजा बहुत रुष्ट हुआ, किन्तु ये मन्त्री कल परम्परा से आगत हैं, ऐसा जानकर उन्हें उसने नहीं मारा। उन्हें गधे पर चढ़ाना आदि कराकर (सजा देकर) देश से निकाल दिया।
कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर का राजा पद्मरथ था। उसकी रानी का नाम लक्ष्मीमति था। उसके पद्मरथ और विष्णु दो पुत्र थे। एक बार पद्मरथ को राज्य देकर पद्मरथ विष्णु के साथ श्रुतसागर चन्द्राचार्य के समीप मुनि हो गये। वे बलि आदि मंत्री आकर राजा पद्मरथ के मंत्री हो गए। कुम्भपुर नगर में राजा सिंहबल था में पद्मरथ के मण्डल के ऊपर उपद्रव करता था। उसे पकड़ने की चिन्ता के कारण पद्मरथ को दुर्बल देखकर वलि ने पूछा 'महाराज दुर्बलता का क्या कारण है?' राजा ने उसी समय अपनी दुर्बलता का कारण कहा । वह सुनकर आदेश माँगकर कुम्भपुर जाकर बुद्धि के माहात्म्य से दुर्ग तोड़कर सिंहबल को पकड़कर लौटकर उसे पद्मरथ को समर्पित कर दिया- 'महाराज! वह सिंहबल यह है। सन्तुष्ट होकर उसने कहा-'इच्छित वर माँगों।' बलि ने कहा'जब माँगूगा, तब दीजिएगा।'
अनन्तर कुछ दिनों में विहार करते हुए वे अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनि हस्तिनापुर आए। नगर में चहलपहल होने पर बलि आदि ने भयपूर्वक विचार किया कि राजा इनका भक्त है। अतः संघ को मारने के लिए पहले
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से ही पद्मने प्रार्थना की- हमें सात दिन के लिए राज्य देकर अपने अन्तःपुर में रहने लगे। बलि ने आतापान गिरि पर कायोत्सर्ग से स्थित मुनियों को बाड़ से घेरकर मण्डप बनाकर यज्ञ करना आरम्भ किया । छोड़े हुए सकोरे तथा बकरे आदि जीवों के कलेवर और धुएँ से मुनियों को मारने के लिए उपद्रव किया। मुनि आभ्यन्तर और बाह्य संन्यास पूर्वक स्थित हो गए (अर्थात् जब तक उपसर्ग दूर नहीं होगा तब तक अन्नजल का त्याग एवं मन में कषायों को शान्त रखते हुए ध्यान करने लगे)।
अनन्तर मिथिला नगरी में आधी रात्रि के समय बाहर निकलते हुए श्रुतसागरचन्द्र आचार्य ने श्रवण नक्षत्र को काँपता हुआ देखकर अवधिज्ञान से जानकर कहा- 'महामुनियों के ऊपर महान उपसर्ग हो रहा है।' उसे सुनकर पुष्पदन्त नामक विद्याधर क्षुल्लक ने पूछा- 'भगवन कहाँ पर ? किन मुनियों के ऊपर उपसर्ग हो रहा है?' आचार्य ने कहा- 'हस्तिनापुर में अकंपनाचार्य आदि मुनियों के ऊपर उपसर्ग हो रहा है।' क्षुल्लक ने पूछा 'वह उपसर्ग कैसे नष्ट होगा?' आचार्य ने उत्तर दिया- 'धरणिभूषण पर्वत पर विष्णुकुमार मुनि ठहरे हैं। उन्हें विक्रिया ऋद्धि प्राप्त है, वह उपसर्ग का नाश करेंगे' यह सुनकर क्षुल्लक ने उनके समीप जाकर सब वृत्तान्त सुनाया। विष्णुकुमार (मुनि) 'क्या मुझे विक्रिया ऋद्धि है?' यह विचार कर विक्रिया ऋद्धि के लिए हाथ फैलाया। वह हाथ पर्वत को भेदकर दूर चला गया। अनन्तर विक्रिया ऋद्धि का निर्माण कर हस्तिनापुर जाकर उन्होंने पद्मराज से कहा- 'क्या मुनियों के ऊपर उपसर्ग तुमने कराया है? आपके कुल में किसी ने भी ऐसा नहीं किया' पद्मराज ने कहा- 'क्या करूँ ? पहले इन्हें मैंने वर दे दिया है। '
अनन्तर विष्णुकुमार मुनि ने वामन (बौने) ब्राह्मण का रूप धारण कर दिव्यध्वनि से प्रार्थना की। बलि ने कहा- 'आपको क्या दूँ?' उन्होंने कहा 'तीन डग भूमि दीजिए।' 'हठी ब्राह्मण अन्य बहुत मांगो' इस प्रकार बारम्बार लोगों के द्वारा कहे जाने पर भी वे वही माँगने लगे। हाथ में जल लेने आदि की विधि से तीन पैर भूमि दिए जाने (का संकल्प लिए जाने पर उन्होंने एक पैर मेरु पर रखा, दूसरा पैर मानुषोत्तर पर्वत पर तथा तीसरे पैर से देवविमान आदि में क्षोभ उत्पन्न कर बलि की पीठ पर उस पैर को रखकर बलि को बाँधकर मुनियों के उपसर्ग का निवारण किया। अनन्तर वे चारों मंत्री और पद्म भयवश आकर विष्णु कुमार और अकम्पनाचार्यादि मुनियों के पैरों में पड़ गए। वे मंत्री श्रावक हो गये । व्यन्तर देवों ने विष्णुकुमार की पूजा की ( पृ 29-31)
इस प्रकार विष्णुकुमार मुनि ने वात्सल्य भावना से अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनियों के ऊपर किये जा रहे उपसर्ग को दूर करने के बाद प्रायश्चित पूर्वक पुनः दीक्षा धारणकर आत्मसाधना की । इधर आम जनता ने यह प्रतिज्ञा कर रखी थी कि मुनियों के उपसर्ग निवारण होने पर आहार कराने के बाद ही भोजन ग्रहण करेंगे । अतः | अनेक दिनों के उपवास करने वाले उन मुनियों को दूध की सीमियों का हल्का (पथ्य) आहार कराया तथा परस्पर में एक दूसरे की रक्षा के भाव से संकल्पबद्ध हो बन्धन बाँधा, जिसकी पावन स्मृति में आज भी प्रतिवर्ष श्रावक शुक्ल पूर्णिमा (उपसर्ग निवारण दिवस) को रक्षाबन्धन मनाया जाता है।
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कालान्तर में यह रक्षाबन्धन पर्व भाई-बहिन के पवित्र प्रेम का प्रतीक, देश रक्षा का प्रतीक, वात्सल्य का प्रतीक पर्व बन गया है। इस दिन बहिनें अपने भाइयों की कलाई पर राखी बाँधने के साथ ही भाई से अपनी आजीवन रक्षा का पुरस्कार पाती हैं। वास्तव में यह पर्व देव -शास्त्र-गुरु ( मुनि) रक्षण, सामाजिक एवं राष्ट्रीय सुरक्षा के रूप में यह सन्देश जन-जन में प्रचारित करता है कि हम सब संकल्पबद्ध एकता के साथ ही आत्मरक्षा कर सकते हैं।
इसी दिन यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करने की भी परम्परा है, जिसे रत्नत्रय के प्रतीक स्वरूप श्रावकोचित अष्टमूल गुणों यथा-मद्य ( शराब, भांग, गांजा, चरस ) मांस, मधु ( शहद ) तथा पंच उदुम्बर (बड़, पीपल, पाकर, ऊमर, कठूमर) फलों के त्याग के पालन करने की प्रतिज्ञा के साथ धारण किया जाता है।
इस दिन नियम से हमें मुनियों (साधुओं) को प्रथम आहार दान तथा शास्त्र भेंट आदि ज्ञानदान के साथ साधर्मी श्रावकों को वात्सल्यभाव से उपकृत करना चाहिए।
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एक ओर वे अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनि धन्य हैं, जो घोर कष्टों (उपसर्ग) को सहते हुए भी विरोधियों पर कुपित न होकर उन्हें क्षमा करते हैं । दूसरी ओर वे श्रुतसागर जैसे मुनि धन्य हैं जो गुरु आज्ञा के पालन तथा संघ की रक्षा के लिए स्वयं उपसर्ग झेलते हैं। तीसरी ओर वे विष्णुकुमारमुनि धन्य हैं जो स्वपररक्षा, धर्मरक्षा तथा मुनिरक्षा के भाव से अपनी शक्ति का उपयोग न्याय व धर्म की प्रतिष्ठा में करते हैं तथा जीतने के बाद भी शत्रु के प्रति शत्रुता न रखकर उसे क्षमा कर देते हैं। चौथी ओर वे श्रावक- उनकी गुरुभक्ति धन्य है जो मुनियों के उपसर्गनिवारण तक स्वयं अन्न जल का त्याग कर उपसर्ग दूर करने की प्रार्थना करते हैं। वास्तव में मुनि समाज के लिए दिशानिर्देशक एवं पथप्रदर्शक का कार्य करते हैं, हमें सुयोग प्राप्त इन मुनियों का संरक्षण करते हुए आहारदानादिक देकर स्वयं के जीवन को कृतार्थ करना चाहिए ।
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रक्षा बन्धन पर्व हमें बताता है कि बंधनों से अपनी आत्मा की रक्षा करो। हमारा अध्यात्म कहता है कि हमारे लिए रक्षणीय हमारी आत्मा है, जिसे अहितकर प्रवृत्तियों से निवृत्ति दिलानी है। हमारे लिए अहितकर हैं - विषय और कषाय । कहा भी है। 'आतम के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय' । विषय कषायों से
कड़ी आत्मा अपना उद्धार नहीं कर सकती, अतः क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषायों के पाश से आत्मा की रक्षा आवश्यक है। विभावदशा का त्याग कर स्वभाव की ओर उन्मुख होना ही रक्षा बन्धन है। विषय वासनाओं के जाल से मुक्ति के लिए मन पर नियंत्रण स्थापित करना आवश्यक है। हमारा प्रयत्न हो कि हमारा मन इन्द्रियोन्मुख न होकर अतीन्द्रियआत्मा की ओर मुड़े। यही मानव जीवन की सार्थकता है। आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में लिखा है
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इन्द्रियाणि न गुप्तानि नाभ्यस्तश्चित्तनिर्जय । न निर्वेदः कृतो मित्र नात्मा दुःखेन भावितः ॥ एवमेवापवर्गाय प्रवृत्तैर्ध्यानसाधने । स्वमेव वञ्चितं मूढैर्लोकद्वयपथच्युतैः ॥
अर्थात् हे मित्र ! जिन्होंने इन्द्रियों को वश में नहीं किया, चित्त को जीतने का अभ्यास नहीं किया, वैराग्य को प्राप्त नहीं हुए, आत्मा को कष्टों से भाया नहीं और वृथा ही मोक्ष हेतु ध्यान में प्रवृत हो गये, उन्होंने अपने को ठगा और इहलोक, परलोक दोनों से च्युत हुए।
हमारे हृदय में प्रेम, वात्सल्य, क्षमाशीलता, अहिंसा तथा धर्म (समाज, राष्ट्र, अध्यात्म) की रक्षा के भाव जागृत हों, इसी भावना एवं प्रयत्न के साथ रक्षाबन्धन पर्व मनाना चाहिए ।
श्रमण तुम्हारी वाणी के अमृत रस का हम पान करें । विषदूर विषमता का होवे, समरस जीवन निर्माण करें
संशोधन कर पढ़ने की कृपा करें
जुलाई 2004 के 'जिनभाषित' में प्रकाशित 'कर्मसिद्धान्तव्यवस्था से वेदवैषम्य की सिद्धि' नामक लेख में प्रूफरीडिंग में असावधानी के कारण प्रथम अनुच्छेद (पैरा) में कुछ वाक्य त्रुटिपूर्ण हो गये हैं। उक्त वाक्यों को इस
प्रकार पढ़ा जाए।
"देवों, नारकियों, भोगभूमिजों तथा कर्मभूमि के सम्मूर्च्छनज संज्ञी - असंज्ञी तिर्यंचों और सम्मूर्च्छनज मनुष्यों में द्रव्यवेद और भाववेद समान ही होते हैं ..... किन्तु कर्मभूमि के गर्भज संज्ञी असंज्ञी तिर्यंचों और मनुष्यों में व्यवस्था कुछ भिन्न है । "
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डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन
एल - 65, न्यू इन्दिरा नगर, बुरहानपुर (म.प्र.)
संपादक
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समाधिमरण के अवसर में मुनिदीक्षा
स्व. पं. मिलापचंद कटारिया जब किसी ब्रह्मचारी आदि श्रावक की जिस दिन मृत्यु | को अंतिम समय में मुनि बनने की क्या आवश्यकता है? होने को होती है तो प्रायः आज-कल उसे नग्नलिंग धारण उसका भी लक्ष्य उस वक्त सल्लेखनापूर्वक मरण करने का ही
सका गहस्थावस्था का नाम भी बदलकर होना चाहिए न कि मनि बनने का। अपने जीवन में चिरकाल मुनित्व का द्योतक दूसरा ही कोई नाम रखकर पूर्णतः उसे | तक अणुव्रतों और महाव्रतों का पालना भी तभी सफल होता मुनि ही मान लिया जाता है और मृत्यु के बाद उसको उसी है जब समाधिमरण से देहांत हो। ऐसी हालत में मरणकाल नए नाम से पुकारा भी जाता है। परन्तु क्या यह प्रथा वर्तमान | में मुनि दीक्षा लेना निरुपयोगी है। रत्नकरड श्रावकाचार में में ही देखने में आ रही है या पहिले भी थी? और इसका | कहा है किकिसी समीचीन आगम से समर्थन भी होता है या नहीं, इस अंतक्रियाधिकरणं तपःफलं सकलदर्शिनः स्तुवते। पर विचार होना आवश्यक है। यह नहीं हो सकता कि
तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम॥2॥ आजकल के साधु स्वेच्छा से जो कुछ कर दें वही प्रमाण
अधिकार 5 मान लिया जावे।
अर्थ- तपश्चर्या का फल समाधिमरण पर आश्रित है __ अंतिम समय में सावधक्रियाओं को त्याग कर सब परिग्रहों | ऐसा सर्वज्ञ भगवान् कहते हैं। इसलिए अंतसमय में अपनी का छोड देना यह जदी चीज है और मनि बनना जदी चीज | सारी शक्ति समाधिमरण के अनुष्ठान में लगानी चाहिए। है। मुनि बनने के लिए गुरू से दीक्षा लेनी पड़ती है और आदि पुराण में राजा महाबल की कथा में लिखा हैदीक्षा में प्रथम ही लौंच करना जरूरी होता है जिसे आजकल महाबल ने अवधिज्ञानी मुनि से अपनी शेष आयु एक अंतिम समय में मुनि बनने वाले नहीं करते हैं। वे प्राचीन | मास की जानकर समाधिमरण में चित्त लगाया। आठ दिन मर्यादा को भंग करते हैं। मरण के अवसर में मुनि बनने | तक तो उसने घर के चैत्यालय में महापूजा की। तदनंतर वालों को पंच समितियों, षट् आवश्यक, स्थिति, भोजन, | उसने सिद्धवरकूट चैत्यालय जा, वहां सिद्धप्रतिमा की पूजाकर अस्नान, अदंतधावन, आदि मूलगुणों के पालन करने का | सन्यास धारण किया। उसने गुरू की साक्षी से जीवनपर्यंत के अवसर ही नहीं आता है। परीषहों का सहना, तपस्या आदि लिए आहार, पानी, देह की ममता व बाह्याभ्यतंर परिग्रहों का भी उन्हें नहीं करनी पड़ती है। फिर भी उन्हें मुनि मान लेना | त्याग कर दिया। उस वक्त वह मुनि के समान मालूम पड़ता यह तो एक तरह से मुनित्व की विडंबना है। यदि कहो कि | था। उसने प्रायोपगमन सन्यास लिया था। इस प्रकार वह 22 किसी की मुनि दीक्षा लिए बाद दस पांच घंटों में ही सर्पविष दिन तक सल्लेखना विधि में रहकर अंत में प्राण त्यागकर आदि से मृत्यु हो जाए तो क्या वह मुनि नहीं माना जा दूसरे स्वर्ग में ललितांग देव हुआ। सकता? क्योंकि उसको भी मुनि के मूलगुणों के पालने का | इस कथा में भी महाबल के मुनि बनने की बात न अवसर नहीं प्राप्त हुआ है। उत्तर इसका यह है कि उसमें और | लिखकर यही लिखा है कि वह मुनि के समान जान पड़ता इसमें अंतर है। उसको तो यह पता नहीं था कि-मेरी मृत्यु | था। (देखो पर्व 5 का श्लोक 232) आज ही हो जाएगी इसलिए उसके तो मुनि बनते वक्त यह | आचार्य जिनसेन ने आदि पुराण के पर्व 38 लोक 161 में संकल्प रहता है कि-मुझे मूलगुणों का पालन करते हुए | ऐसा लिखा है कि-आचार्य को चाहिए कि वह किसी को परीषहें सहनी हैं एवं तपस्या करके निर्जरा करनी है इसलिए | मुनि दीक्षा देवे तो शुभ मुहूर्त देखकर देवे। अन्यथा उस वह तो मुनि माने जाने के योग्य है किन्तु दूसरा मृत्यु की | आचार्य ही को संघबाह्य कर देना चाहिए। निकटता के वक्त मुनि बनने वाला जब यह देखता है कि-मैं | इस कथन से मृत्यु समय में मुनि दीक्षा देने का स्पष्ट अब मरने ही वाला हूं, यह भोग सामग्री व धन कुटुम्बादि | निषेध सिद्ध होता है। क्योंकि अव्वल तो दीक्षा लेने वाले का सब थोड़ी ही देर में वैसे ही छूट रहे हैं तो इनको मैं ही क्यों | मरण समय होना यही अशुभ है। दूसरे उस दिन सभी को न त्याग दूं जिससे मैं मुनि माना जाने लगूंगा और उससे मेरा | | शुभ मुहूर्त का संयोग मिल जाए यह भी संभव नहीं है। बेड़ा भी पार हो जाए तो इसके सिवा और कल्याण का सरल | अंतसमय में मुनि दीक्षा लेने देने का कथन जैन-शास्त्रों में मार्ग भी क्या हो सकता है? ऐसा विचार कर वह मुनि बनता | कहीं नहीं है। इस विषय का वर्णन शास्त्रों में जिस ढंग से है। इस प्रकार दोनों की परिणति में बड़ा अंतर है। किया है उसका मतलब लोगों ने भ्रम से मुनि दीक्षा लेना
दूसरी बात यह है कि - मुनि के भी जब यही बांछा | समझ लिया है। जबकि वैसा मतलब वहां के कथन का रहती है कि उसकी मृत्यु समाधि मरण पूर्वक हो तो श्रावक | निकलता नहीं है। इस प्रकार का वर्णन पं. आशाधरजी कृत
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सागारधर्मामृत के 8 वें अध्याय में निम्न प्रकार पाया जाता | का अर्थ यहां क्षुल्लिका मालूम पड़ता है। पं. आशाधर जी ने
इसी कथन को भगवती आराधना की गाथा 81 की अपनी त्रिस्थानदोषयुक्तायाप्यापवादिकलिंगिने। मूलाराधना टीका में निम्न प्रकार किया है। महाव्रतार्थिने दद्याल्लिंगमौत्सर्गिकं तदा ॥35॥ स्त्रियां अपि औत्सर्गिकं आगमऽभिहितं, परिग्रहमल्पं निर्यापके समर्प्य स्वं भक्त्यारोप्य महाव्रतम्। कर्वत्या इति योज्यं औत्सर्गिकं तपस्विनीनां, शाटकमात्र निश्चेलो भावयेदन्यस्त्वनारोपितमेव तत्॥44॥ परिग्रहे ऽपि तत्र ममत्व परित्यागादपचारतो अर्थ-अंडकोश और लिंगेन्द्रिय संबंधी तीन दोष युक्त भी नैग्रन्थव्यवहारणानुसरणात।आपवादिकं श्राविकाणां तथा हो तथापि आपवादिक लिंगी कहिए 11 वीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट विधममत्व परित्यागाभावादुपचारोतोऽपि नैग्रन्थ्य श्रावक जो कि आर्य कहलाता है वह यदि महाव्रत का अर्थी | | व्यवहारानवतारात्। तत्र संन्यास काले लिंग हो तो उसे समाधिमरण के अवसर में आचार्य मुनि के 4 | तपस्विनीनामयोग्यस्थाने प्राक्तनं इतरासां पुंसामिवेति (लिंगों-चिह्नों) में से एक नग्नलिंग को देवे। अर्थात् वस्त्र | योज्यम्। इदमत्र तात्पर्यं-तपस्विनी मृत्युकाले योग्ये स्थाने छुड़ाकर उसको नग्न बना दे।
वस्त्रमात्रमपि त्यजति। अन्या तु यदि योग्यं स्थानं लभते, __ जब वह निचेल हो जाए तो अपने को भक्ति से निर्यापक | यदि च महर्द्धिका सलज्जा मिथ्यात्व प्रचुर ज्ञातिश्च न, कहिए समाधिमरण कराने वाले आचार्य के अधीन करके | तदा पुंवद्वस्त्रमपि मुंचति।नो चेत् प्रालिंगेनैव म्रियते। और उनके वचनों से अपने में महाव्रतों की भावना भावे। यह | अर्थ- आगम में स्त्री के भी उत्सर्ग लिंग बताया है वह उत्कृष्ट श्रावक यदि लज्जा आदि के वश से समाधिमरण के अल्पपरिग्रहवाली श्राविका (क्षुल्लिका) के संन्यासकाल में वक्त वस्त्र त्याग न कर सके तो वह अपने में महाव्रतों का | बताया है। आर्यिकाओं के तो वैसे ही औत्सर्गिक लिंग होता आरोपण नहीं कर सकता है। क्योंकि सग्रंथ को महाव्रतों के | है। क्योंकि उनके साड़ी मात्र में भी ममत्व न होने से उपचार आरोपण करने का अधिकार नहीं है। उसे बिना आरोपित | से उनमें निर्ग्रन्थता का व्यवहार है। जबकि क्षुल्लिका किए ही महाव्रतों की भावना भानी चाहिए।
श्राविकाओं के उस प्रकार से ममत्व का त्याग नहीं होता __ भगवती आराधना की गाथा 80 में नग्नत्व, लौच, पिच्छिका | इसलिए उनमें उपचार से भी निर्ग्रन्थता का व्यवहार नहीं है। धारण, और शरीर संस्कार हीनता ऐसा 4 चिह्न (लिंग) मुनि | अतः उनके आपवादिक लिंग होता है। संन्यासकाल में योग्य के बताए हैं।
स्थान आदि न मिले तो आर्यिकाओं के पूर्वकालीन लिंग ही इस प्रकरण में आशाधर ने श्लोक 38 में ऐसा कहा है | रहता है। तथा क्षुल्लिकाओं के सन्यासकाल में क्षुल्लक पुरुषों
की तरह उत्सर्ग लिंग और अपवाद लिंग दोनों होते हैं। औत्सर्गिकमन्यद्धा लिंगमुक्तं जिनैः स्त्रियाः। तात्पर्य यह है कि-आर्यिका मृत्युकाल में योग्य स्थान के पुंवत्तदिष्यते मृत्युकाले स्वल्पीकृतोपधेः॥38॥ मिलने पर वस्त्र मात्र को भी त्याग देती है और क्षुल्लिका अर्थ- जिनेन्द्रों ने स्त्री के जो औत्सर्गिक और आपवादिक योग्य स्थान मिलने पर यदि महर्द्धिका , सलज्जा और कट्टर खिंग कहा है। उसमें औत्सर्गिक लिंग श्रुतज्ञों ने मृत्युकाल में मिथ्यात्वी जाति की न हो तो वह भी क्षुल्लक पुरुष की तरह पुरुष की तरह एकांतवसतिका आदि सामग्री के होने पर वस्त्र | वस्त्रों को त्याग कर नग्न हो जाती है। और यदि वह सलज्जा मात्र को भी त्याग देने वाली क्षुल्लिका के लिए माना है। आदि हो तो समाधि मरण के समय में अपने पूर्वलिंग को अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार औत्सर्गिक लिंग धारण धारण की हुई ही मरती है। करने वाले पुरुष के मरण समय में औत्सर्गिक लिंग ही कहा क्षुल्लिका वह कहलाती है जो आर्यिका से कुछ अधिक है। और आपवादिक लिंग वाले के लिए ऊपर जैसा कथन वस्त्र रखती है और जितना रखती है उतने में उसके ममत्व किया है वैसा ही स्त्री के लिए भी समझना चाहिए। अर्थात् भाव रहता है। मस्तक के बाल कैंची आदि से उतरवाती है। योग्य स्थान मिलने पर आर्यिका नग्न लिंग धारण करे और उसे क्षुल्लक पुरुष के स्थानापन्न समझनी चाहिए। उसकी क्षुल्लिका भी नग्न लिंग धारण करे। किन्तु क्षुल्लिका यदि | गणना श्राविकाओं में की जाती है। और आर्यिका के अपनी समद्धिशाली घर की हो यानी राजघराने आदि की हो और | साड़ी में ममत्व नहीं होता इसलिए वह सवस्त्रा होकर भी नग्न होने में उसे शर्म आती हो तो वह नग्न न होकर क्षुल्लिका | मुनि के स्थानापन्न समझी जाती है और इसी से शास्त्रों में के वेष में ही रह कर समाधि मरण करे।
उसके उपचार से महाव्रत माना है। ऊपर के श्लोकों में क्षुल्लक पुरुष के लिंग धारण का ____ इन उपर्युक्त उल्लेखों से यही प्रगट होता है कि-उत्कृष्ट कथन किया है और इस श्लोक में स्त्री क्षुल्लिका के लिए | श्रावकों(क्षुल्लकों) के लिए समाधिमरण के अवसर में नग्न कथन किया है। श्लोक में प्रयुक्त 'स्वल्पीकृतोपधेः' वाक्य । हो जाने की शास्त्राज्ञा है। जिससे कि उनमें महाव्रतों की 6 अगस्त 2004 जिन भाषित
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स्थापना करके उन्हें आरोपित महाव्रती बना सकें। इसका | जाता है कि समाधि मरण के समय में जो श्रावक नग्न लिंग अर्थ मुनि दीक्षा नहीं है। क्योंकि ऐसा करना तो आर्यिका व धारण करके आरोपित महाव्रती बनते हैं उनको आशाधरजी क्षुल्लिका श्राविका के लिए भी लिखा है तो क्या नग्न हो ने मुनि नहीं माना है। यहां यह भी ध्यान रखना चाहिए किजाने से इनकी भी मुनि दीक्षा मान ली जावे? और तब क्या | आशाधर ने जो यहां नग्नलिंग धारणकर आरोपित महाव्रती उनके छठा गुणस्थान समझा जावे? नग्न हो जाना मात्र कोई बनने की बात लिखी है। वह भी आपवादिकलिंगी कहिये मुनि दीक्षा नहीं है। मुनि दीक्षा में लौंच कराया जाता है, | क्षुल्लक के लिये लिखी है न कि 7 वीं प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी पिच्छिका पकड़ाई जाती है। पर यहां ऐसा कुछ नहीं लिखा आदि के लिए। पं. मेधावी ने भी स्वरचित धर्मसंग्रह श्रावकाचार है। न यहां उनको मुनि नाम से लिखा है। तब यह कैसे माना | के 9वें अध्याय में उत्कृष्ट श्रावक को अपवादलिंगी कहा है। जावे कि समाधिमरण के वक्त में क्षुल्लक को मुनि दीक्षा देने यथाका विधान है। यदि कहो कि क्षुल्लक के लौंच पिच्छी तो उत्कृष्टः श्रावको यः प्राक्क्षुल्लोऽत्रैव सूचितः। पहिले से ही चली आ रही है जिससे नहीं लिखा है। इसका स चापवादलिंगी च वानप्रस्थोऽपि नामतः ।। 280॥ उत्तर यह है कि भले ही पहिले से चली आवे तब भी मुनि अर्थ - उत्कृष्ट श्रावक जिसे कि पहिले इस ग्रन्थ में दीक्षा के वक्त भी लौंचादि करा कर ही दीक्षा दिए जाने का | क्षुल्लक नाम से सूचित किया है उसी का नाम अपवादलिंगी नियम है। और सभी क्षुल्लक लौंच करें ऐसी भी शास्त्राज्ञा और वानप्रस्थ भी है। नहीं है। इसलिए यह भी नहीं कह सकते कि क्षुल्लक लौंच इस प्रकार पं. आशाधर जी के उक्त विवेचन से यही पहिले से ही चला आ रहा है। यह विचारने के योग्य है कि- | फलितार्थ निकलता है कि- जिस श्रावक को समाधिमरण उक्त श्लोक 44 में क्षुल्लक में महाव्रतों का आरोप करना | के अवसर में नग्नलिंग दिया जाता है वह 11वीं प्रतिमाधारी लिखा है। इस आरोप शब्द पर भी ध्यान देना चाहिए। | उत्कृष्ट श्रावक होता है और वह आरोपित महाव्रती माना रत्नकरंडश्रावकाचार के आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि | जाता है मुनि नहीं। उस समय की नग्नता मुनि अवस्था की निः शेषम्' ॥ 125 ॥ पद्म में भी सभी महाव्रतों का आरोप नहीं है। किंतु सन्यास अवस्था की है। ऐसा समझना चाहिए। करना ही लिखा है। मेधावी के श्रावकाचार में (अधिकार इसलिये आजकल जो 11वीं प्रतिमाधारी ही नहीं सातवीं
प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी तक को भी समाधिमरण के समय में ही लिखा है। सभी ग्रन्थों में एक आरोप के सिवा दूसरा शब्द साक्षात् मुनि बनाकर व उसका नाम ही बदलकर मुनिपने का प्रयोग न करने में भी कोई रहस्य और इससे यही प्रतिभाषितनाम रख दिया जाता है यह सब शास्त्र सम्मत नहीं है। होता है कि -सन्यास काल में नग्न होने का अर्थ मुनि बनने | मनमानी है। मैंने यह लेख मननशील विद्वानों के विचारार्थ का नहीं है। जिस पुरूष की कामेन्द्रिय में चर्मरहितत्व आदि | प्रस्तुत किया है। मेरा लिखना कहां तक सही है इसका दोष होते हैं उसको मुनिदीक्षा देने का आगम में निषेध किया | निर्णय वे करेंगे। निर्णय करते समय यह ख्याल रखेंगे किहै। उस प्रकार के दोषवाले क्षल्लक के ऊपर उदधृत श्लोक | आशाधर ने समाधिमरण के इस प्रकरण में नग्नलिंग की 35 में सन्यास काल में नग्नलिंग दिया गया है। इससे भी | चर्चा की है, न कि मुनि होने की। क्योंकि यहां इसी के साथ यही सिद्ध होता है कि-यहां की इस नग्नता का मुनिदीक्षा से | में आर्यिका व श्राविका के सम्बन्ध में नग्नता का कथन कोई सम्बन्ध नहीं है । चारित्रसार में लिखा है कि गूढ़ ब्रह्मचारी | किया है। इससे यही सिद्ध होता है कि यहां जो वर्णन किया नग्न वेष में रहकर ही विद्याध्ययन करता है। इसलिए सभी | है वह नग्नलिंग का वर्णन किया है मुनि होने का वर्णन नहीं जगह नग्न हो जाने का अर्थ मुनि बनना नहीं है। सागराधर्मामृत | किया है। अत: उसका अभिप्राय मुनिदीक्षा समझना उचित के इसी 8वें अध्याय के अन्त में आराधक के उत्तम, मध्यम, | नहीं है। नग्न हुए बाद भी उसको महाव्रत देने की बात नहीं जघन्य तीन भेद करके उनकी आराधनाओं का फल बताते | लिखी है। ऊपर उद्धृत आशाधर के 44 वें श्लोक पर ध्यान हुए लिखा है कि- "उत्तम आराधक मुनि उसी भव में मोक्ष | दीजिए। उसमें वह निर्यापक के वचनों से अपने में महाव्रतों जाता है। मध्यम आराधक मुनि इन्द्रादि पद को प्राप्त होता है। | का आरोपण करके महाव्रतों की भावना भावे, ऐसा लिखा और वर्तमान काल के मुनि जो कि जघन्य आराधक हैं वे है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि वह नग्न हुए बाद "मैं
आते हैं। इतना कथन किये बाद आगे | महाव्रती हूँ" ऐसी कल्पना कर लेवे। साक्षात् महाव्रती मुनि आशाधर जी लिखते हैं कि यह तो मुनियों की आराधना | अपने को न माने। रत्नकरंडश्रावकाचार के उक्त उद्धरण में अर्थात् समाधिमरण का फल बताया। अब श्रावकों की | आये "आरोपयेत्" की व्याख्या प्रभाचन्द्र ने भी महाव्रतों की आराधना का फल बताते हैं। जो कि श्रमणलिंग धारण कर | स्थापना करना की है। धारण करना अर्थ नहीं किया है। समाधिमरण करते हैं।" इस कथन से बिल्कुल स्पष्ट हो ।
'जैन निबन्ध रत्नावली' से साभार
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श्रमणचर्या का अभिन्न अंग अनियतविहार
डॉ. श्रेयांसकुमार जैन श्रमण का जीवन सर्वश्रेष्ठ है, इसीलिए गृहस्थ व्रतों का | स्थान में रहने की अनुमति नहीं दी गई है। वह तो भारूण्ड पालन करता हुआ प्रतिपल प्रतिक्षण यही चिन्तन करता है पक्षी की तरह अप्रमत्त होकर ग्रामानुग्राम विहार करता है। कि वह दिन कब आयेगा जिस दिन मैं श्रमणधर्म को ग्रहण विहार की दृष्टि से काल दो भागों में विभक्त है एक वर्षावास कर अपने जीवन को सार्थक करूँगा। चिन्तन मनन के और ऋतुबद्ध काल। वर्षाकाल में श्रमण को साढ़े तीन माह फलस्वरूप गहस्थ गहवास का त्याग कर रत्नत्रयधारी निर्ग्रन्थ या चार माह तक एक स्थान पर रूकना चाहिए। हाँकार्तिक वीतरागी गुरु की शरण में पहुँचकर स्वेच्छाचार विरोधिनी कृष्ण अमावस्या को चातुर्मास पूर्ण हो जाए तो कार्तिक जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार करके श्रमण साधु के स्वरूप को | शुक्ला पंचमी तक तो अवश्य ऐसे स्थान पर रूकना चाहिए प्राप्त करता है। जीवन को मंगलमय बनाता है, उसका मूल इसके बाद कार्तिक पूर्णिमा तक भी धर्मप्रभावना या अन्य उद्देश्य विभाव से हटकर सवभाव में रमण करना,प्रदर्शन न अपरिहार्य कार्यवश उसी स्थान पर साधु रूक सकते हैं। कर आत्मदर्शन करना, केवल आत्मविश्वास के पथ पर | दूसरा ऋतु काल है जिसमें स्वाध्याय आदि के निमित्त गुरु आगे बढ़ता रहना होता है।
आज्ञा पूर्वक एक माह रूकने का भी प्रावधान है। कहा भी ___ मूल उद्देश्य को ध्यान में रखकर नव दीक्षित साधु है- वसन्तादि छहों ऋतुओं में से प्रत्येक ऋतु में एक मास अपने गुरु के साथ संघीय परम्पराओं का पालन करते हुए पर्यन्त ही एक स्थान पर साधु रहे। अनगार धर्म 9/68-69 देशदेशान्तर में विहार करता है। आत्मा की साधना में लीन वर्षाकालस्य चतुर्षु मासेषु एकत्रैवावस्थानं श्रमणत्यागः॥ रहते हुए धर्म प्रभावना करता है। दीक्षा लेने के बाद साधु भ. अ. वि. टी. 421॥ अर्थात वर्षाकाल के चार माहों में का विहार निरन्तर होता है। साधु के विहार के प्रसंग में श्रमण का त्याग कर एक ही स्थान पर आवास करना आचार्य वट्टकेर स्वामी लिखते हैं
चाहिए। वर्षा ऋतु में चार माह एक स्थान पर रूकने का गहिदत्थेय विहारो विदिओ-गिहिदत्थ संसिदो चेव।
कारण है, वर्षा ऋतु में चारों और हरियाली होने से मार्गों के एत्तो तदिय विहारो णाणुण्णादो जिणवरेहिं ।। 140॥
अवरूद्ध होने तथा पृथ्विी त्रस-स्थावर जीवों की संख्या बढ़
जाने से अंतिम संयम आदि का पालन कठिन हो जाता है। मूलाचार विहार के गृहीतार्थ विहार और अगृहीतार्थ
अनगारधर्मामृत में वर्षावास के सम्बन्ध में कहा है किविहार ऐसे दो भेद हैं,इनके सिवाय जिनेश्वरों ने विहार की
. आषाढ़ शुक्ला, चतुर्दशी की रात्रि के प्रथम प्रहर में चैत्यभक्ति आज्ञा नहीं दी है।
आदि करके वर्षायोग ग्रहण करना चाहिए तथा कार्तिक जीवादि तत्वों के स्वरूप के ज्ञाता मुनियों का जो
कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि के पिछले प्रहर में चैत्यभक्ति आदि चरित्र का पालन करते हुए देशान्तर में विहार करते हैं,वह
करके वर्षायोग छोड़ना चाहिए। अनगारधर्मामृत 9-68-69 गृहीतार्थविहार है और जीवादि तत्त्वों को न जानकर चरित्र का पालन करते हुए जो मुनियों का विहार है, वह
गामेयरादिवासी जयरे पंचातवासिणों धीरा। अगृहीतार्थसंश्रितविहार है। इन दोनों प्रकार के विहारों के
सवणा फासुविहारी विविक्त एगांतवासी॥ अर्थ को समझकर यह ज्ञात होता है कि साधु को एक स्थान
॥मू. आ.- 4871 पर ही रहने का विधान नहीं है, वह तो एक गाँव से दूसरे
बोधपाहुड़ टीका में इस प्रकार कहा है कि - वसितै गाँव या एक नगर से दूसरे नगर में जाता रहता है, मूलाचार
वा ग्राम नगरादौ वा स्थामव्यं नगरे पंचरात्रे स्थातव्यं ग्रामे में कहा है-गाँव में एक दिन तथा नगर में पांच दिन अधिक
विशेषण न स्थातव्यम 42-107 ॥ अर्थात नगर में पांचरात्रि से अधिक रहकर विहार कर जाता है जैसा कि आचार्य
और गांव में विशेष नही रहना चाहिए। वर्षावास समाप्त सकलकीर्ति ने लिखा है- प्रासुक स्थान में रहने वाले विविक्त
होने पर श्रमण को विहार तो करना ही होता है किन्तु यदि एकान्त स्थान में निवास करने वाले मुनि किसी गाँव में एक
वर्षा का आधिक्य हो नदी नालों के तीव्र प्रवाह के कारण दिन रहते हैं और नगर में पांच दिन रहते हैं। र्यापरीषद के मार्ग दुर्गम हो गये हों, कीचड़ आदि की अधिकता हो या वर्णन प्रसंग में यही बात भट्टकलंकदेव ने कही है। श्वेताम्बर |
बीमारी आदि का भी कारण हो तो साधु वर्षायोग के बाद साहित्य में भी यही बात आयी है। निर्ग्रन्थमुनि को एक | भी नगर ग्राम के जिनमन्दिर में ठहरे रह सकते हैं। 8 अगस्त 2004 जिन भाषित
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आचार्यवर्य सिद्धान्तानुसार संग्रह में वर्षाकाल में मुनि | देशान्तरों में विहार करने वाले साधु को उस क्षेत्र का को सीमित क्षेत्र से बाहर जाने की परिस्थितियों को भी | परिज्ञान होता है जो क्षेत्र कर्दम, अकुंर त्रस जीवों की बहुलता दर्शाते हैं
से रहित हैं। जीव बाधा रहित गमन योग्य क्षेत्र को भी जान द्वादश योजनान्येव वर्षाकाले-भिगच्छति । लेता है। जिस क्षेत्र में आहार पान मिलना सुलभ होता है यदि संघस्य कार्येण तदा शुद्धो न दुष्यति ॥ 10-60॥ | और सल्लेखना आदि के योग्य होता है उसका भी ज्ञान वर्षाकाल में संघ के कार्य के लिए यदि मुनि बारह | होता है। इसलिए अनियतविहार आवश्यक है। इसी सम्बन्ध योजन तक कहीं जायेगा तो उसका प्रायश्चित ही नहीं है | में और भी कहा हैऔर यदि वाद-विवाद से महासंघ के नाश होने का प्रसंग
प्रेक्ष्यन्ते बहदेश संश्रयवशात्संवेगिताद्यांप्तय हो तो वर्षाकाल में भी देशान्तर जाना दोषयुक्त नहीं है। स्तीर्थाधीश्वर केवली द्वयमही निर्वाणभूम्यादयः।
भगवती आराधना में तो अनियतविहार नामक साधु स्थैर्य धैर्यं विरागतादिषु गुणेष्वाचार्यवर्ये, की चर्या का पृथक अधिकार ही है। इसमें अनियतविहार
क्षणाद्विद्या वित्तसमागमाधिगमो नूनार्थ सार्थस्य च॥ द्वारा साधु के दर्शन की शुद्धता, स्थितिकरण, भावना,
अनियतविहार करने में अनेक देशों का आश्रय लेना अतिशयार्थ-कुशलता, क्षेत्रपरिमार्गणा गुणों की उत्पत्ति बतायी पड़ता है जिसमें संवेग वैराग्य आदि अनेक गुणों को धारण
करने वाले अनेक आप्तजनों के पूज्य पुरुषों के दर्शन होते अनेक क्षेत्रों में विहार करने से साधु तीर्थंकरों की | हैं। तीर्थंकरों को जहाँ- जहाँ केवल ज्ञान प्रगट हुआ है जन्म, तप, ज्ञान और समवशरण की भूमियों के दर्शन और | अथवा जहाँ- जहाँ निर्वाण प्राप्त होता है उन समस्त तीर्थक्षेत्रों ध्यान करने से अपने सम्यक्त्व को निर्मल रखता है। जगह- | के दर्शन प्राप्त होते हैं। अनेक उत्तमोत्तम आचार्यों के दर्शन जगह विहार के काल में अन्य वीतरागी साधकों से मिलने | से धीरता वैराग्य आदि उत्तम गुणों से स्थिरता प्राप्त होती है पर संयम की अभिवृद्धि होती है उनके उत्तम चरित्र को | और विद्यारूपी धन की प्राप्ति होने से निश्चित अर्थों के जानकर स्वयं उत्तम चरित्र पालन के प्रति उत्साह बढ़ता है। | समूह का ज्ञान होता है। सदाकाल विहार करते रहने पर धर्म में प्रीति बढ़ती है। पाप
अनियत विहारी साधक की सल्लेखना भी ठीक तरह से भयभीत रहता है। सूत्रार्थ में प्रवीणता आती है। दूसरे के | से होती है क्योंकि वह जगह-जगह विहार करते रहने के संयम को देखने से धर्माराधकों की धर्मराधना को देखने से | कारण उन स्थानों में भी परिचित होता है, जहाँ धार्मिकता स्वयं को धर्म में स्थितिकरण की भावना जगती है। निरन्तर | होती है। एकान्त, शान्त, निराकुलता रह सकती है। नियतवासी विहार करने वाले साधु को चर्या परीषह होती है, कंकर | प्रायः स्थान विषयक अथवा अपने निकटस्थ लोगों के प्रति मिट्टी पैरों में चुभती है। पादत्राण रहित चरणों से मार्ग में | रागभाव रखने लगते हैं अतः दूसरे अपरिचित स्थान और चलने पर जो वेदना उत्पन्न होती है उसे संक्लेश भाव रहित | मनुष्यों के बीच पहुँचकर साधक भली प्रकार से संल्लेखना सहन करने पर चर्यापरीषह सहन होती है जिससे संयम में | ग्रहण कर आत्मकल्याण कर सकता है कहा भी हैवृद्धि होती है। क्षुधा, तृषा, शीत उष्ण परीषह सहन की सद्रूपं बहुसूरी भक्तिकयुतं क्षमादि दोषोज्झितं, शक्ति बढ़ती है। अनेक क्षेत्रों में विहार करने वाले साधु को
क्षेत्रपात्रमीक्ष्यते तनुपरित्यागस्य निःसंगता।। अतिशय रूप अर्थ में प्रवीणता भी आ जाती है। जैसा कि
सर्वस्मिन्नपि चेतनेतर बहिः संगे स्वशिष्यादिके, कहा गया है
गर्वस्वयापचयः परीषहजयः सल्लेखना चोत्तमा॥ णाणादेसे कुसलो णाणादेसेगदाण सत्थाएं।
मुनिराज को सल्लेखना धारण करने के लिए ऐसे क्षेत्र अभिलाव अत्थकुसलो होदि य देसप्पवेसेण॥
देखने चाहिए, जहाँ पर राजा उत्तम धार्मिक हो, जहाँ के ॥भग. आ. 153॥
लोग सब आचार्यादिकों की बहुत भक्ति करने वाले हों। नवीन-नवीन स्थानों पर विहार करने से अनेक देशों | जहाँ पर निर्धन और दरिद्र प्रजा न हो। इसी प्रकार पात्र ऐसे के रीति-रिवाज का ज्ञान होता है लोगों के चरित्र पालन की | देखने चाहिए जिनके शरीर त्याग करने में भी निर्मोहपना हो योग्यता-अयोग्यता की जानकारी होती है। अनेक मंदिरों | तथा अपने शिष्यादिकों में भी अभिमान न हो और जो आदि स्थानों पर विराजमान शास्त्रों में प्रवीणता होती है। परिषहों को अच्छी तरह जीतने वाले हों ऐसा क्षेत्र और अर्थ बोध होता है। अनेक आचार्यों के दर्शन लाभ से अतिशय | पात्रों को अच्छी तरह देखकर सल्लेखना धारण करनी चाहिए। रूप से अर्थ में कुशलता भी होती है।
उक्त व्यवस्था अनियतविहारी साधु की ही बन सकती
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है, जो एक स्थान पर रहते हैं, उनकी सल्लेखना समाधि भी | लिखते हैं 'शय्या और आसन की शुद्धि में तत्पर साधु को आगमोक्त रीति से संभव है? अतः वर्तमान में मुनि/आर्यिका/ स्त्री, क्षुद्र, चोर, महापापी, जुआरी, शराबी और पक्षियों को त्यागी/व्रती सभी को विचार करना चाहिए कि जीवन भर पकड़ने वाले पापी जनों के स्थान में वास नहीं करना की सार्थकता निहित स्वार्थ के कारण खो न जाये। चाहिए तथा श्रृंगार विकार, आभूषण, उज्जवल वेश, वेश्या
मूलाचार प्रदीप में कहा है- प्रासुक स्थान में रहने | की क्रीड़ा से अभिप्राय (सुन्दर) गीत, नृत्य, वादित्र आदि वाले और विविक्त एकान्त स्थान में निवास करने वाले मुनि से व्याप्त शाला आदि में निवास का त्याग करना चाहिए। किसी गाँव में एक दिन रहते हैं और नगर में पाँच दिन रहते शयनासन शुद्धि वाले हैं संयतों को तो अकृत्रिम (प्राकृतिक) हैं। सर्वथा एकान्त स्थान को ढूँढने वाले और शुक्लध्यान में पर्वत की गुफा वृक्ष' से नहीं बनाए गये हों और जिनके अपना मन लगाने वाले मुनिराज इस लोक में गंध-गज बनने बनाने में अपनी ओर से किसी तरह का आरम्भ नहीं (मदोन्मत्त) हाथी के समान ध्यान के आनन्द का महासुख हुआ है ऐसे स्वभाविक रीति से (अकृत्रिम) बने हुए पर्वत प्राप्त करते हैं। (31-32)
की गुफाएं या वृक्षों के कोटर आदि तथा बनवाये हुए सूने आचार्य शिवार्य वसतिका आदि में ममत्व के अभाव मकान वसतिका आदि अथवा जिनमें रहना छोड़ दिया गया को भी अनियतविहार मानते हैं
है अथवा छुड़ा दिया गया है ऐसे मोचितावास स्थानों में वसधीसु य उवधीसुय गामे णयरे गणे य सण्णिजणे। | रहना चाहिए। सव्वत्थ अपडिबद्धो समासदो अणियदविहारो॥ वर्तमान में वसतिकओं के निर्माण की होड़ लगी हुई
भग. आ. 153॥ | है, चाहे वह किसी भी नाम से निर्मित करायी जाय। हाँ वसतिका में, उपकरण में, ग्राम में. नगर में, संघ में
गृहस्थ का आवास आठ दस कमरों का हो सकता है। श्रावकों में ममता के बन्धन को न प्राप्त होने वाला किन्तु मुनि की वसतिकाएँ बहुमजली इमारतों से युक्त विशाल अनियतविहार करने वाला साध है। अर्थात जो ऐसा नहीं
परिसर में नाना विभागों से अलंकृत होने से ही गौरव है। मानता कि वह वसतिका मेरी है, मैं इसका स्वामी हूँ सभी | तभी तो मुनि या आर्यिका पचास लाख या करोड़ों की परद्रव्यों, परक्षेत्रों, परकालों से बंधा हूँ वह अनियमितविहार | परियोजना में जुटे हुए हैं। ऐसा करने में ही तो पूर्वाचार्यों करने वाला है।
के कथन का उल्लंघन कर अपना श्रेष्ठत्व स्थापित करने की उक्त सभी लाभ अनियतविहार करने वाले को ही प्राप्त सफलता है, क्योंकि पूर्वाचार्यों ने तो गिरि कंदरा या वन में हो सकते हैं, जो एक स्थान पर रहकर धर्म का पालन करना निवास करने को कहा है- शून्यघर पर्वतगुफा, वृक्षमूल, चाहें, वह संभव नहीं है।
अकृत्रिमघर, श्मशानभूमि, भयानक वन, उद्यानघर, नदी साधु को निरन्तर विहारी होने के कारण श्रेष्ठ कहा है | का किनारा आदि उपयुक्त वसतिकाएं हैं। बोधपाहुड़ में भी कवि ऋषभदास ने कहा है
कहा है इनके अतिरिक्त अनुदिष्ट देव मन्दिर, धर्मशालाएं, स्त्री का मायके रहना, पुरूष का ससुराल में रहना और | शिक्षाघर आदि भी उपयुक्त वसितकाएं हैं। साधुओं का एक स्थान पर तीनों ही अनिष्टकारी है।
जिनेन्द्रमन्दिरे सारे स्थितिं कुर्वन्ति येऽङ्गिनः। हिन्दी के किसी कवि ने कहा है
तेभ्यः संवर्द्धते धर्मो धर्मात्संपत् परानृणाम्॥ बहता पानी निर्मला, बन्धा सो गन्दा होय।
श्रेष्ठ जिनमन्दिर में जो मुनिराज आदि ठहरते हैं, उनसे साधु तो रमता भला दाग न लागे कोय॥ | धर्म बढ़ता है और धर्म से मनुष्यों को श्रेष्ठ सम्पत्ति की प्राप्ति
साधुव्रती श्रेष्ठ कहा गया है जो एक स्थान छोड़कर | होती है और भी कहा गया हैदूसरे स्थानों को जाता है। साधु के निवास के विषय में मुनिः कश्चित् स्थानं रचयति यतो जैनभवने, शास्त्रों में विशद विवेचन किया गया है। वे मुनिराज पहाड़ों विधत्ते व्याख्यानं यदवगमतो धर्मनिरताः। पर ही पर्यंकासन, अर्धपर्यंकासन व उत्कृष्ट वीरासन धारण भवन्तो भव्यौघा भवजलधिमुत्तीर्यसखिनरकर व हाथी की सूंड के समान आसन लगाकर अथवा ततस्तत्कारी किं जनयति जनो यन्न सुकृतम्।। मगर के मुख का सा आसन लगाकर अथवा एक करवट से
यतश्च जिनमन्दिर में कोई मनिराज आकर ठहरते हैं. लेटकर अथवा कठिन आसनों को धारण पूर्ण रात्रि बिता तथा व्याख्यान करते हैं, जिनके ज्ञान ने भव्य जीवों के देते हैं।
समूह धर्म में लीन होते हुए संसार समुद्र को पारकर सुखी भट्टाकलंकदेव साधु के योग्य निवास के सम्बन्ध में | होते हैं। अतः जिनमन्दिर के निर्माण कराने वाला पुरूष 10 अगस्त 2004 जिन भाषित -
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ऐसा कौन पुण्य है, जिसे न करवाता हो।
| त्यागी/व्रती का पूर्ण बढ़-चढ़ कर सहयोग करते हैं। यह ___ साधु के योग्य निवास के सम्बन्ध में आचार्य अकलंक | सहयोग नहीं है अपितु श्रमण संस्कृति को दोषपूर्ण बनाने यह लिखते हैं - संयतेन शयनासन शुद्धिपरे ण। | के कारण आप्त योग ही है, क्योंकि यह व्यवस्था साधुओं स्त्रीक्षुद्रचौरपानाक्षशौण्ड शाकुनिकादिपापजनवासावाः | को भी प्रलोभन में फंसा देती है और याचना भी करनी श्रृंगार विकार भूषणोज्जवल वेषवेश्याक्रीड़ाभिरामगीत | पड़ती है। नृत्य वादित्ता कु लशालादयश्च परि ह त व्या।। साधु सोचने को तैयार नहीं कि याचनाशील होने पर मैं अकृत्रिमगिरिगुहातरूकोटरारयः कृत्रिमाश्च शून्यागारादयो | मोक्षमार्ग से च्युत हो जाऊंगा। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने मुक्तमोचितावासा अनात्मोद्देशनिर्वतिता निराम्भा सेव्या। | याचना करने वाले को मोक्षमार्ग से पृथक माना है। तत्त्वार्थवार्तिक -9/5 पृ. 552
जे पंच चेल सत्ता गथग्गाहीय जायणासीला। शय्या और आसन की शद्धि में तत्पर साधु को स्त्री, | अधा कम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि॥79 मो. पाहुड़ क्षुद्र, चोर, मद्यपायी, जुआरी, शराबी और पक्षियों को पकड़ने | जो पांच प्रकार के वस्त्रों में आसक्त हैं, परिग्रह को वाले आदि पापी जनों के स्थान में वास नहीं करना चाहिए | ग्रहण करने वाले हैं, याचना करते हैं तथा अध:कर्म निंद्यकर्म तथा श्रृंगार, आभूषण, उज्जवल वेष, वेश की क्रीड़ा से | में रत हैं, वे मुनि मोक्षमार्ग से पतित हैं। परिग्रही साधक अभिराम (सुन्दर) गीत, नृत्य, वादित्र आदि से व्याप्त शाला | विशुद्धी को भी प्राप्त नहीं होता है, जैसा कि कहा हैआदि में रहने का त्याग करना चाहिए। शासनासन शुद्धि वैषम्ययत्ययं दिव्यं स्वीयमनिद्यं यद् द्रव्यम्॥ वाले संयतों को तो अकृत्रिम (प्राकृतिक) पर्वत की गुफा,
निश्चयनयस्य विषयगृहीव परिगृही नाव्यम्॥ वृक्ष के कोटर आदि तथा कृत्रिम शून्यागार छोड़े हुए घर
___यह परिग्रहवान् मुनि भी निश्चयनय के विषयभूत आदि ऐसे स्थानों पर रहना चाहिए, जो उनके उद्देश्य से । अनिन्दनीय दिव्य और अविनाशी स्वकीय द्रव्य को गृहस्थ नहीं बनाए गये हों और जिनमें उनके लिए कोई आरम्भ न के समान प्राप्त नहीं होता अर्थात् जिस प्रकार परिग्रही गृहस्थ किया गया हो।
शुद्ध आत्मा को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार परिग्रही साधु ___ मुनियों का निवास तीन प्रकार का होता है। स्थान- भी नहीं प्राप्त होता है। अतः विशुद्धि को बढ़ाने के लिए खड़े होना, आसन-बैठना और शयन-सोना।
साधुओं का एक स्थान विशेष पर जीवन भर या लम्बी ___ जैनाचार्य मठ, आश्रम आदि में स्थायी निवास करने | अवधि रुकने का मोह नहीं होना चाहिए जिससे उनका की मुनि/आर्यिका को अनुमति प्रदान नहीं करते हैं। न जाने अनियमित विहार चलता रहेगा और वे आगम की मर्यादा वर्तमान में यह प्रवृत्ति क्यों बढ़ रही है कि साध/साध्वी/ की सुरक्षा करते हुए मोक्षमार्ग की महती प्रभावना कर त्यागी व्रती अपनी देख-रेख में कोई न कोई आश्रम/मठ/ |
सकेंगे। संस्थान/संस्था का निर्माण कराकर उसी को अपना निवास
सन्दर्भ
1. मूलाचार प्रदीप 31 बना रहे हैं। आस्था से जकड़ी समाज साधु/साध्वी/त्यागी/
2. तत्त्वार्थवार्तिक भा. पृ. 595 व्रती के कहने पर शक्ति के अनसार अर्थ सहयोग करती है
3. बृहत्कल्पभाष्य 1-36 और उनकी बलवती इच्छाओं को पूर्ण करना अपना कर्तव्य 4. दंसणसोधी ठिदिकरणभावणा अदिसयत्तकुसलत्तं । समझती है। यदि कोई प्रबुद्ध समाज के मध्य कहता है कि
खेतपरिमग्गणावि य अणियदवा से गुणा होंति ॥ भग. आराधना गा. 147
5. वही पृष्ठ 148, 149, 150 अपरिग्रही साधक को परिग्रही बनाकर धर्म की हानि क्यों
6. संविग्गदरे पासिय पियधम्मदरे अवज्जभीरुदरे। की जा रही है। साधुओं को एक स्थान पर नहीं रहना | संयमवि पियथिरधम्मो साधू विहरतओ होदि॥ भग. आराधना गा. 151 चाहिए गृहस्थों के साथ रहने पर परीषह भी आ जाते हैं | 7. वही गा. 152
8. सुत्तत्थथिरीकरणं अदिसयिदत्थाण होदि उवलद्धि। जिससे साधक की साधना में दोष लगने की सम्भावना
आयरियदंसणेण दु तह्मा सेवेज्ज आयरियं । भग. आराधना गा. 155 रहती है। इसका उत्तर समाज के पास होता है कि ये मुनि
9. संजदजणस्स य जहिं फासुविहारो य सुलभवुत्ती य। : आर्यिका अपने साथ तो नहीं ले जाएंगे। रहेगी तो अपने तं खेत्तं विरहन्तो णाहिदि सल्लेहणाजोगं ।। भग. आराधना गा. 157 पास अपने लोगों के ही कार्य आएगी। इनके निमित्त से |
10. मूलाचार समाचार अधिकार।
11. मूलाचार प्रदीप 31 बाहर का रुपया हमारे गृह स्थान या तीर्थ स्थान पर लग रहा
12. तत्त्वार्थवार्तिक भाग-2 पृष्ठ 595 है। इसी लोभ, कषायवश स्थानीय समाज साधु/साध्वी/
(आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी कृत हिन्दी टीका)
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यह आश्चर्य की बात कि जिन महान् आचार्य कुन्दकुन्द ने जिनशासन को विकृति से बचाने के लिए श्रमणधर्म और श्रावकधर्म के जिनोक्त स्वरूप को प्रकाशित करनेवाली अमर साहित्यरचना की और आगमोक्त श्रमणधर्म का अक्षरश: पालन करनेवाली श्रमणपरम्परा का पुनरुत्थान किया, जिसके फलस्वरूप उनका नाम भगवान् महावीर और गौतम गणधर के बाद मंगलरूप में स्मरणीय बन गया, उनके नाम का उल्लेख बारहवीं शताब्दी ई. के पूर्व तक किसी भी दिगम्बराचार्य ने अपने ग्रन्थ में नहीं किया। आठवीं शती ई. के वीरसेन स्वामी ने धवला - जयधवला में तत्त्वार्थसूत्र के कर्त्ता गृध्रपिच्छाचार्य, तिलोयपण्णत्तीकार आचार्य यतिवृषभ, समन्तभद्र, पूज्यपाद स्वामी आदि के नाम का उल्लेख तो किया है, किन्तु कुन्दकुन्द के नाम का निर्देश कहीं नहीं किया, जब कि उनके द्वारा रचित समयसारादि ग्रन्थों को आगमप्रमाण के रूप में स्वीकार करते हुए उनसे अनेक गाथाएँ धवलादि में उद्धृत कर अपने कथन की पुष्टि की है। उनके शिष्य आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में समन्तभद्र, सिद्धसेन, पूज्यपाद देवनन्दी, जटासिंहनन्दी, भट्ट अकलंक, वीरसेन स्वामी आदि का स्तवन किया है, किन्तु उनकी जिह्वा पर कुन्दकुन्द का नाम नहीं आया। पुन्नाटसंघी जिनसेन ने भी हरिवंशपुराण में उपर्युक्त आचार्यों की स्तुति की है, किन्तु इनकी लेखनी से भी कुन्दकुन्द का नाम नहीं
उतरा ।
प्राचीन जैन ग्रन्थकारों द्वारा कुन्दकुन्द के नाम - अनुल्लेख का कारण
इसका कारण क्या है? यह विचारणीय है । श्वेताम्बर विद्वान् प्रो. ढाकी ने एक अनोखी कल्पना की है। वे लिखते हैं कि दसवीं शताब्दी ई. ( आचार्य अमृतचन्द्र के समय) के पूर्व तक न तो किसी दिगम्बर आचार्य ने अपने ग्रन्थ में कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख किया है, न ही उनके ग्रन्थों पर टीका लिखी गई। इससे सिद्ध होता है कि वे आचार्य अमृतचन्द्र के सौ-दो सौ वर्ष पूर्व ही हुए थे (The Date of Kundakundacharya, Aspects of Jainology, Vol. III, P. 187-189)
स्व. पं. सुखलाल जी संघवी (श्वेताम्बर विद्वान् ) और स्व. पं. नाथूराम जी प्रेमी के बीच इस विषय में पत्रव्यवहार हुआ था। संघवी जी के पत्र के उत्तर में प्रेमी जी ने लिखा था ‘“ श्रुतावतार, आदिपुराण, हरिवंशपुराण, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति
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प्रो. रतनचन्द्र जैन | आदि प्राचीन ग्रन्थों में जो आचार्य-परम्परा दी हुई है, उसमें उमास्वाति का बिलकुल उल्लेख नहीं है।....... आदिपुराण, हरिवंशपुराण आदि के कर्त्ताओं ने कुन्दकुन्द का भी उल्लेख नहीं किया है, यह विचारणीय बात है। मेरी समझ में कुन्दकुन्द एक खास आम्नाय या सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे। उन्होंने जैनधर्म को वेदान्त के साँचे में ढाला था। जान पड़ता है कि जिनसेन आदि के समय तक उनका मत सर्वमान्य नहीं हुआ, इसीलिए उनके प्रति उन्हें कोई आदरभाव नहीं था।" (पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोधसंस्थान वाराणसी द्वारा प्रकाशित 'तत्त्वार्थसूत्र' की प्रस्तावना, पृ. 73-74)।
इस पर आपत्ति करते हुए प्रो. ढाकी प्रश्न करते हैं कि यदि कुन्दकुन्द की नई विचारधारा से अन्य आचार्य सहमत नहीं थे, तो उन्होंने उसका प्रतिवाद क्यों नहीं किया और असहमत होते हुए भी उनके ग्रन्थों का अनुसरण क्यों किया जाता रहा?
प्रो. ढाकी का यह प्रश्न उचित है। मैं भी प्रेमी जी से सहमत नहीं हूँ। कुन्दकुन्द के 'वोच्छामि समयपाहुडमिडमो सुयकेवलीभणियं' ये वचन प्रमाण हैं कि उन्होंने किसी नये आम्नाय या सम्प्रदाय का प्रवर्तन नहीं किया था अर्थात् जैन धर्म को वेदान्त के साँचे में नहीं ढाला था, बल्कि श्रुतकेवली भद्रबाहु ने जैसा उपदेश दिया था, वैसा ही उन्होंने अपने प्राभृतग्रन्थों में प्ररूपित किया है तथा कोई भी दिगम्बराचार्य उनके द्वारा प्ररूपित वस्तुतत्त्व से असहमत नहीं था, अपितु सभी आचार्य उनके वचनों को प्रमाणस्वरूप मानते थे । इसीलिए भगवती आराधना, मूलाचार, तिलोयपण्णत्ती, सर्वार्थसिद्धि, भगवती आराधना की विजयोदया टीका, धवला - जयधवला आदि में कुन्दकुन्द की अनेक गाथाएँ ज्यों की त्यों आत्मसात् की गयी हैं, अथवा प्रमाणस्वरूप उद्धृत की गयी हैं । तत्त्वार्थसूत्र की रचना तो प्रमुखतः कुन्दकुन्द के ही ग्रन्थों पर आधारित है ।
वीरसेन स्वामी ने धवला टीका में न केवल कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का नामोल्लेख किया है, अपितु उनके वचन प्रमाणरूप में उद्धृत किये हैं । और इस प्रकार उन्होंने 'वक्तृप्रामाण्याद् वचन प्रामाण्यम्' इस स्वमान्य न्याय के अनुसार कुन्दकुन्द को प्रामाणिक वक्ता स्वीकार किया है। फिर भी उन्होंने उनके नाम की चर्चा नहीं की। इसका एक
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ही कारण प्रतीत होता है। वह कारण है समयसारादि ग्रन्थों | यहाँ 'एस' (एषः अहम् यह मैं) सर्वनाम 'प्रवचनसार' में उनके कर्ता कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख न होना | ग्रन्थ के कर्ता के लिए प्रयुक्त हुआ है। टीकाकार अमृतचन्द्र (बारसाणुवेक्खा में प्रक्षिप्त है) और मुनिसंघों में भी यह | सूरि को इसकी व्याख्या ग्रन्थकार कुन्दकुन्द के नाम का प्रसिद्ध न हो पाना या इस प्रसिद्धि का लुप्त हो जाना कि उक्त | निर्देश करके करनी चाहिए थी, जैसे "यह मैं कुन्दकुन्द ग्रन्थों के कर्ता कुन्दकुन्द हैं। जैसे 'तत्त्वार्थसूत्र' में उसके उन ...... वर्धमान स्वामी को प्रणाम करता हूँ.......।" कर्ता गृध्रपिच्छ के नाम का उल्लेख न होने से और यह किन्तु उन्होंने "एष स्वसंवेदनप्रत्यक्षो दर्शनज्ञानसामान्यात्माहं प्रसिद्ध न होने से कि उसके कर्ता गृध्रपिच्छ हैं, टीकाकार .... श्री वर्धमानदेवं प्रणमामि" (यह मैं स्वसंवेदन प्रत्यक्ष पूज्यपाद स्वामी (5वीं शती ई.) और भट्ट अकलंक देव दर्शनज्ञानस्वरूप आत्मा .....श्री वर्धमान स्वामी को प्रणाम (7 वीं शती ई.) भी उनसे अपरिचित रहे आये, जिसके करता हूँ), इन शब्दों में की है। अर्थात् उन्होंने कुन्दकुन्द के फलस्वरूप वे अपनी टीकाओं में तत्त्वार्थसूत्रकार के रूप में नाम का उल्लेख नहीं किया। इसका कारण न तो यह हो उनका नाम निर्दिष्ट करने में असमर्थ रहे, वैसे ही समयसारादि सकता है कि कुन्दकुन्द से उन्हें कोई द्वेष था और न यह कि ग्रन्थों में कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख न होने से तथा यह | टीकाकार द्वारा ग्रन्थकर्ता के नाम का उल्लेख करने की प्रसिद्ध न होने से कि उन ग्रन्थों के रचयिता कुन्दकुन्द हैं, परम्परा नहीं थी। अन्यथानुपपत्ति से केवल यही कारण दसवीं शताब्दी ई. के टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र भी इस प्रकट होता है कि टीकाकार अमृतचन्द्र सूरि इस तथ्य से तथ्य से अनभिज्ञ रहे कि समयसारादि महान ग्रन्थों के अनभिज्ञ थे कि 'प्रवचनसार' के कर्ता वही कुन्दकुन्द हैं, रचयिता कुन्दकुन्द हैं जिनसे कुन्दकुन्दान्वय नाम का विशाल | जिनके नाम से प्रसिद्ध कुन्दकुन्दान्वय प्रचलित हुआ है। अन्वय प्रसूत हुआ।
___आचार्य जयसेन ने 'एस' सर्वनाम शिवकुमार नामक जिस प्रकार बहुत समय बाद आठवीं शती ई. में धवला | राजा के लिए प्रयुक्त माना है, जो संगत नहीं है, क्योंकि टीका के कर्ता वीरसेन स्वामी ने किसी प्राचीन लिखित ग्रन्थ की आद्य गाथाएँ मंगलाचरणरूप हैं और उनका प्रयोग स्रोत से यह ज्ञात होने पर कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता आचार्य | ग्रन्थकार ही करता है। स्वयं जयसेन ने प्रवचनसार के गृध्रपिच्छ हैं, धवला-टीका में इसका उल्लेख किया है, | द्वितीय अधिकार की अन्तिम गाथा की तात्पर्यवृत्ति में लिखा उसी प्रकार बारहवीं शती ई. में किसी प्राचीन ग्रन्थादि से | है कि आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार के कर्ता हैं और यह जानकारी प्राप्त होने पर कि समयसारादि ग्रन्थों के निर्माता | शिवकुमार महाराज श्रोता। उन्होंने समयसार तथा पंचास्तिकाय वही महान् कुन्दकुन्द हैं, जिनके नाम से कुन्दकुन्दान्वय | की तात्पर्यवृत्ति के आरंभ में भी यह उल्लेख कर दिया है प्रवाहित हुआ है, आचार्य जयसेन ने अपनी टीकाओं में उन | कि इन ग्रन्थों की रचना आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा हुई है। ग्रन्थों के निर्माता के रूप में आचार्य कुन्दकुन्द के नाम की किन्तु अमृतचन्द्र सूरि ने तीनों ग्रन्थों की टीका में कहीं भी चर्चा की है। आठवीं शती ई. से पहले के सभी ग्रन्थकार | कुन्दकुन्ददेव द्वारा उनके रचे जाने का उल्लेख नहीं किया। और टीकाकार इस तथ्य से अनभिज्ञ थे कि 'तत्त्वार्थसूत्र' | इससे स्पष्ट है कि आचार्य अमृतचन्द्र को यह ज्ञात नहीं था के कर्ता आचार्य गृध्रपिच्छ हैं और बारहवीं शताब्दी ई. के | कि समयसारादि ग्रन्थों के रचयिता आचार्य कुन्दकुन्द हैं पूर्ववर्ती समस्त ग्रन्थकर्ताओं और टीकाकारों को यह ज्ञान | और इससे यह भी स्पष्ट होता है कि उनके समय में मुनिनहीं था कि समयसारादि ग्रन्थ आचार्य कुन्दकुन्द की लेखनी | संघों में भी उक्त प्रकार की प्रसिद्धि नहीं थी। से प्रसूत हुए हैं। इसका प्रमाण 'प्रवचनसार' की निम्नलिखित आचार्य अमृतचन्द्र के समकालीन 'दर्शनसार' के कर्ता गाथा की अमृतचन्द्रकृत टीका में मिलता है--
देवसेन ने केवल इतना लिखा है कि "विदेहक्षेत्र के वर्तमान एस सुरासुर मणुसिंदवंदिदं धोदघाइकम्ममलं।।
तीर्थंकर सीमन्धर स्वामी के समवसरण में जाकर श्री पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं॥1/1॥
पद्मनन्दीनाथ (कुन्दकुन्दस्वामी) ने जो दिव्य ज्ञान प्राप्त किया
था, उसके द्वारा यदि वे बोध न देते, तो मुनिजन सच्चे मार्ग अर्थ : यह मैं उन धर्मतीर्थ के कर्ता श्री वर्धमान
को कैसे जानते?" (गाथा 43)। लगभग इसी समय (10 स्वामी को प्रमाण करता हूँ, जो सुरेन्द्रों, असुरेन्द्रों ओर नरेन्द्रों
वीं शती ई.) के आचार्य इन्द्रनन्दी ने 'श्रुतावतार' में कहा है के द्वारा वन्दित हैं तथा जिन्होंने घातिकर्मों के मल को धो
कि कुण्डकुन्दपुर के पद्मनन्दी ने षट्खण्डागम के आदि के डाला है।
तीन खण्डों पर 'परिकर्म' नामक ग्रन्थ की रचना की।
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किन्तु इन दोनों आचार्यों ने कुन्दकुन्द के द्वारा समयसारादि | शताब्दी ई. के सौ दो सौ वर्ष पूर्व ही हुए थे। कुन्दकुन्द के ग्रन्थ रचे जाने की बात नहीं कही। सर्वप्रथम ईसा की | ग्रन्थों पर पहली टीका भले ही दसवीं शती ई. में लिखी गई बारहवीं सदी में आचार्य जयसेन ने कुन्दकुन्द को उक्त | हो, पर उनके ग्रन्थों की गाथाएँ ईसा की पहली, दूसरी, ग्रन्थों का रचयिता बतलाया है और उनके कुछ समय बाद | पाँचवीं, छठी, सातवी, आठवीं शताब्दियों के भगवती 12 वीं शती ई. में ही हुए माइल्ल धवल ने लिखा है कि आराधना, मलाचार, तिलोयपण्णत्ती. सर्वार्थसिद्धि. मैंने कुन्दकुन्दाचार्य रचित शास्त्रों से सारभूत अर्थ ग्रहणकर | परमात्मप्रकाश, विजयोदया टीका. धवला-जयधवला आदि द्रव्यस्वभाव -प्रकाशक-नयचक्र की रचना की है। उन्होंने | ग्रन्थों में आत्मसात् की गयी हैं अथवा प्रमाण रूप में उद्धृत पंचास्तिकाय आदि ग्रन्थों को आगम कहकर, उनसे अनेक |
| की गई हैं। यह इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है कि कन्दकन्द उद्धरण भी दिये हैं। इससे ज्ञात होता है कि आचार्य जयसेन | ईसापूर्वोत्तर (ईसापूर्व और ईसोत्तर) प्रथम शताब्दी में हुए को कुन्दकुन्द के समयसारादि ग्रन्थों के रचयिता होने की थे। जानकारी किसी प्राचीन लिखित स्रोत से प्राप्त हुई थी। इस | । जहाँ तक टीका न लिखे जाने का प्रश्न है, उसका तरह यह बात समझ में आ जाती है कि ईसा की बारहवीं | कारण यह प्रतीत होता है कि कुन्दकुन्द के कुछ ही समय शतब्दी से पहले के ग्रन्थकारों ने कुन्दकुन्द के नाम का | बाद जैन सिद्धांत को संक्षेप एवं सरल भाषा में प्रस्तुत उल्लेख क्यों नहीं किया। इसका एकमात्र कारण उनका इस | करनेवाला तत्त्वार्थसत्र जैसा महत्त्वपर्ण ग्रन्थ सामने आ गया। बात से अनभिज्ञ होना था कि समयसारादि ग्रन्थों के कर्ता वह इतना लोकप्रिय हआ कि उसने आचार्यों को उसी पर वही कन्दकन्द हैं, जिनके नाम से कुन्दकुन्दान्वय प्रसूत | टीकाएँ लिखने लिए प्रेरित किया। इसीलिए हम देखते हैं हुआ है।
कि पूज्यपाद स्वामी के पहले से ही उस पर टीकाएँ लिखी अत: दसवीं शती ई. के पूर्व तक कुन्दकुन्द के ग्रन्थों | जाने लगी और यह क्रम श्रुतसागर सूरि तक अनवरत चलता पर टीका न लिखा जाना तथा बारहवीं शती ई. के पूर्व तक | रहा। फलस्वरूप 10वीं शती ई. के पूर्व तक कुन्दकुन्द के ग्रन्थकारों द्वारा कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख न किया | अध्यात्मप्रधान ग्रन्थों पर टीका का अवसर नहीं आ पाया। जाना इस बात का प्रमाण नहीं है कि कुन्दकुन्द दसवीं |
ए/2 मानसरोवर, शाहपुरा, भोपाल
बालवार्ता वह देना सीख रही है
डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन एक सज्जन परदेश में एक घर के सामने पहुँचे।। अपने ठिकाने पर वापिस आ गये। उन्हें जोर की भूख लगी थी। उन्होंने उस घर की गहिणी | तीसरे दिन उन सज्जन ने पुनः उसी गृहिणी के घर से निवेदन किया कि 'मुझे भूख लगी है, कुछ भिक्षा | की ओर रुख किया तो उनके साथी से रहा नहीं गया। दीजिए।' उनका यह कथन सुनकर गृहिणी गालियाँ देती | वह बोला, "गुरुदेव! उस गृहिणी ने दो बार आपका हुई किबाड़ बन्द कर घर के अन्दर चली गयी। अपमान किया, फिर भी आप उससे ही भिक्षा की आशा वह सज्जन भी वापिस आ गये, मानो साधुता की |
| रखते हैं?" कसौटी पर स्वयं को कसकर आ रहे हों। उनके साथ साथी के प्रश्न सुनकर वे सज्जन बोले, "भाई, उनका एक साथी और था, जो विस्मय और ग्लानि से | सहनशीलता ही सज्जनता है। तुमने देखा कि पहले दिन यह दृश्य देख अवाक् था।
भोजन माँगने पर उसने गालियाँ दीं, दूसरे दिन भोजन दूसरे दिन वे सज्जन पुनः उस गृहिणी के घर के | माँगने पर राख दी। मेरा विश्वास है कि आज तीसरे दिन सामने पहुँचे और पुनः याचना की। आज वे अपने साथ / वह भोजन भी देगी। वास्तव में वह देना (दान देना ) पात्र भी लाये थे, अतः भोजन की इच्छा के साथ पात्र | सीख रही है। इसलिए मैं शान्तचित्त एवं आशान्वित हूँ।" आगे कर दिया।
वास्तविकता भी यही है जिनके संस्कार दानशीलता गृहिणी ने कुटिल मुस्कान के साथ कहा, "ठहरो, मैं | के नहीं हैं, वे दें भी कैसे? दान के संस्कार सिखाना भी अभी देती हूँ," और अन्दर से राख लाकर पात्र में डाल आवश्यक है। दी तथा बड़बड़ाते हुए अन्दर चली गयी। खैर, वे सज्जन
एल-65,न्यू इन्दिरानगर, बुरहानपुर, म.प्र. 14 अगस्त 2004 जिन भाषित -
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परिग्रह से निवृत्ति का साधन - उत्तम त्याग धर्म
जैन धर्म में उत्तम त्याग का महत्वपूर्ण स्थान है । आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो यह कहा जा सकता है। कि त्याग के बिना कोई भी प्राणी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता । दिगम्बर जैन धर्म में दिगम्बर साधुओं का नग्न विचरण यह सन्देश जन-जन को देता है कि मोक्ष प्राप्ति के लिए सांसारिक प्रलोभनों का तो त्याग करना ही पड़ता है अन्तरंग में क्रोध मान, माया, लोभ तथा राग-द्वेष का त्याग अति आवश्यक है । उत्तम त्याग धर्म हमें इसी बात की प्रेरणा देता है।
जैन आचार्यों ने एक वाक्य में ही त्याग को समझा दिया है कि अप्राप्त भोगों की इच्छा न करना और प्राप्त सुखों से विमुख हो जाना त्याग है। प्रवचन- सार में आचार्य जिनसेन कहते हैं- 'निजशुद्धात्म परिग्रहं कृत्वा बाह्याभ्यन्तर परिग्रहः निवृत्ति त्याग: ।' अर्थात निज शुद्धात्म के परिग्रह पूर्वक बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से निवृत्ति त्याग है । वारस अणुवेक्खा में कहा गया है
णिव्वे गतियं भावइ मोहं चइऊण सव्व दव्वेसु । जो तस्स हवेच्चागो इदि भविदं जिणवरिं देहि ॥ जो जीव सम्पूर्ण परद्रव्यों से मोह छोड़कर संसार, शरीर और भोगों से उदासीन परिणाम रखता है उसके त्याग धर्म होता है। राजवार्तिक में लिखा है पर की प्रीति के लिए अपनी वस्तु को देना त्याग है। 'संयतस्य योग्यं ज्ञानादि दानं त्यागः' अर्थात संयत को संयम की रक्षा एवं वृद्धि में साधक, योग्य उपकरणों को देना त्याग है। त्याग आत्मा का स्वभाव होने से इसे धर्म कहा गया है
जैन धर्म में दो तरह की स्थिति देखी जाती है जिसके अपने-अपने नियम तथा कायदे हैं। इस आधार पर धर्म दो तरह का हो जाता है। 1- मुनिधर्म और श्रावक धर्म । धर्म का उद्देश्य एक ही है- वह है मोक्षप्राप्ति । दशलक्षण धर्म मुनि और श्रावक दोनों के लिए हैं। मुनिगण अन्तरंग और बाह्य परिग्रह से रहित हों इसीलिए त्याग आवश्यक है। बाह्य परिग्रह तो मुनिगण मुनिदीक्षा के साथ ही छोड़ देते हैं परन्तु राग-द्वेष बना रहता है या बना रह सकता है इसलिए मुनिगण पर्यूषण पर्व में उत्तम त्याग धर्म के दिन विशेष रूप से रागद्वेष के त्याग हेतु पुनः संकल्पित होने की भावना भाते हैं इसलिए रागद्वेष से स्वयं को छुड़ाने तथा वस्तुओं के प्रति राग के अभाव को त्याग कहा गया । यह रागद्वेष
डॉ नरेन्द्र जैन भारती
अनादिकाल से आत्मा के साथ लगा हुआ है, तथा जीव को कषाय सहित करता है उत्तम त्याग धर्म हमें कषाय, रागद्वेष से हटाकर आत्महित में लगाता है।
श्रावक या गृहस्थ तो परिग्रही होता है अतः उसे बाह्य परिग्रह का भी त्याग करना है जिसे वह श्रावक धर्म में वर्णित योग्य पात्र में दानादि देकर परिग्रह का त्याग करता है इसीलिए दान भी त्याग है परन्तु इसमें भी ममत्वभाव का त्याग तथा निरभिमानता होनी चाहिए दान में भी ममत्व भाव, रागभाव हटाया जाता है। दान की सार्थकता तभी होती है जब 'अनुग्रहार्थ स्वस्याति सर्गो दानम्' की भावना करते हुए उस दान के प्रति हमारे मन में किसी प्रकार का मोह या सम्मान तथा प्रतिष्ठा का लोभ न हो । पूज्यपाद स्वामी ने कहा है- परोपकारः सम्यग्ज्ञानादिवृद्धि स्वोपकारः पुण्य संचय: जिन्हें दान दिया जाता है उनके सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानादि की वृद्धि होती है, यही अपना उपकार है और दान देने से जो पुण्य का संचय होता है वह अपना उपकार है। मुनि और श्रावकों को दृष्टिगत रखते हुए पं. द्यानतराय जी ने पूजन में कहा है
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'उत्तम त्याग कह्यौ जग सारा औषधि शास्त्र, अभय, आहारा ।
निचै राग-द्वेष निरवारे ज्ञाता दोनों दान सम्हारै ॥ ' संसार में औषधि, शास्त्र, अभय और आहार दान को श्रेष्ठ कहा गया है और निश्चय से राग-द्वेष को छोड़ने को त्याग कहा गया है। जो ज्ञानी होते हैं वे यथाशक्ति दोनों प्रकारों को सम्भालते हैं।
औषधि दान - ज्ञान, ध्यान और तपस्या रत साधुओं को पीड़ा होने तथा किसी जीव मात्र को रोग से दुःखी देखकर उसकी पीड़ा को दूर करने के लिए औषधि आदि देना औषधि दान है।
शास्त्र दान - ज्ञानवृद्धि के लिए ऐसे ग्रन्थों को देना, जिससे आत्मा का कल्याण हो सके, जिनवाणी का प्रचार हो, शास्त्र दान कहलाता है।
अभय दान - छह काय के जीवों की रक्षा करना उन्हें भयमुक्त करना तथा अपने प्राणों का घात करने वाले जीव को भी क्षमा कर देना अभय दान है।
आहार दान - मुनियों को नवधाभक्ति पूर्वक आहार देना तथा संसारी जीवों की भूख शान्त करने के लिए भोजन
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देना, आहार दान कहलाता है।
इन चारों दानों के प्रभाव से मनुष्य या तो मोक्ष प्राप्त करता है, यदि यह संभव न हो पाता तो देवगति में चला जाता है तथा उत्तम भोगभूमि में भी जन्म ले सकता है। अतः श्रावक को दान अवश्य करना चाहिए। कविवर द्यानतराय जी कहते हैं
दान चार प्रकार, चार संघ को दीजिए । धन बिजुरी उनहार नरभव लाहो लीजिए। चतुर्विध संघ को चार प्रकार का दान देकर नरभव का लाभ लेना चाहिए। धन बिजली के समान पलायन करने वाला है जिसका मन धन में लगा रहता है वे नरतन की संभाल नहीं कर पाते और जिनका तन त्याग में नहीं लगता वे वैभव को प्राप्त नहीं कर पाते अतः तन, मन और धन का सदुपयोग कर आत्महित करना चाहिए। स्वामी समन्तभद्र ने दान की महत्ता बताते हुए कहा है
क्षितिगतमिव वट बीजं, पात्रगतं दानमल्पमपि काले । फलतिच्छाया विभवं बहुफलमिष्टं शरीर भृ-ताम् ॥ अर्थात योग्य समय में सुयोग्य पात्र के लिए दिया हुआ थोड़ा सा दान भी उत्तम भूमि में पड़े हुए बीज के सदृश प्राणियों के लिए माहात्म्य और वैभव से युक्त बहुत से इच्छित फल को प्राप्त करता है। रमणसार में कहा गया है। कि - सप्तांग राज्य, नवनिधि का भंडार, छह अंगों से युक्त सेना, चौदह रत्न, छियानवे हजार स्त्रियों का वैभव प्राप्त
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होना सुपात्र दान का फल है। अतः सत्पात्र में दान करना चाहिए। कंबीर ने कहा है
पानी बाढ़े नाव में घर में बाढ़े दाम ।
दोनों हाथ उलीचिये यही सयानो काम ॥ यदि व्यक्ति दान नहीं करता तो उसका धन नष्ट हो जाता है । नीतिकार कहते हैं
दानंभोगोनाशस्तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुक्ते तस्य तृतीया गतिर्भविति ॥ अर्थात दान, उपभोग और नाश, धन की ये तीन अवस्थाएं होती हैं, जो न दान देता है न उपभोग करता है उसके धन की तीसरी (नाश) अवस्था होती है। धन खर्च कहाँ करना चाहिए, इस सम्बन्ध में कहा गया है
जिनबिम्ब जिनागारं जिनयात्रा प्रतिष्ठितम् ।
दानं पूजा च सिद्धान्त लेखनं क्षेत्र सप्तकम् ॥ अर्थात जिनबिम्ब स्थापन 2- जिनालय निर्माण 3तीर्थक्षेत्रों की यात्रा 4- पंचकल्याणक प्रतिष्ठा 5- पात्र को चार प्रकार का दान 6- जिनपूजा 7- सिद्धान्त लेखन ।
अतः प्रत्येक व्यक्ति का यह पुनीत कर्त्तव्य है कि हमें त्याग धर्म को अंगीकार कर मन, वचन, काय की शुद्धता पूर्व शास्त्रोक्त विधि से सत्पात्र में दान देकर अपनी चंचला लक्ष्मी का उपयोग कर पुण्यार्जन करना चाहिए और रागद्वेष को समाप्त कर सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए सार्थक प्रयास करना चाहिए । ए-27, न्यू नर्मदा विहार, सनावद
श्री प्रकाश गुप्त विधि सलाहकार
क्या अंडों के विक्रय में कोई प्रतिबंध किसी नगरपालिका | याचिका प्रस्तुत हुई जो अस्वीकृत हो गई। इसके उपरांत उच्चतम क्षेत्र में लगाया जा सकता है। यह विचित्र सा प्रश्न उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील में यह कहा गया कि इस प्रकार के न्यायालय के समक्ष एक अपील में उठ खड़ा हुआ। ओम प्रकाश पूर्ण प्रतिबंध व्यापारियों के व्यापारिक अधिकारों पर कुठाराघात प्रति उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय | हैं | उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में उत्तर प्रदेश नगरपालिका। द्वारा एक रिट याचिका निरस्त किये जाने के निर्णय के विरूद्ध अधिनियम के प्रावधानों को विचार में लिया और यह पाया कि यह अपील उच्चतम न्यायालय में प्रस्तुत की गई। ऋषिकेश क्षेत्र नगर पालिका को इस प्रकार के अधिकार प्राप्त हैं। जो अधिसूचना में बहुत से मंदिर हैं। इस संदर्भ में कुछ नागरिक संस्थाओं और जारी की गई है वह पूर्णतया नियमानुसार है। व्यापार का अधिकार । संगठनों की ओर से नगरपालिका के समक्ष यह प्रतिवेदन प्रस्तुत नागरिकों को है, लेकिन उस पर उचित प्रतिबंध लगाया जाना किया गया कि नगर के सार्वजनिक स्थानों पर अंडों के विक्रय गलत नहीं है। हरिद्वार, ऋषिकेश, तीर्थ स्थल हैं। वहां पर पर प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए। सार्वजनिक रूप से मांसाहारी खाद्य पदार्थों के विक्रय पर प्रतिबंध लगाया जाना अनुचित नहीं है। इन तीर्थ स्थलों में बहुत बड़ी संख्या में तीर्थ यात्री आते हैं। उनकी भावनाओं को ध्यान में रखकर नगरपालिका ने प्रतिबंध लगाया है। नगरपालिका क्षेत्र के बाहर अंडे या अन्य मांसाहारी पदार्थों के विक्रय पर कोई रोक नहीं है इस कारण व्यापार को ऐसी कोई हानि नहीं होनी है ! यह
अधिसूचना के द्वारा कहा गया है कि सार्वजनिक स्थानों पर और सार्वजनिक दृष्टि में नजर आने वाले स्थान पर कोई भी गोश्त या मछली का विक्रय नहीं किया जायेगा। सड़कों, होटलों, ढाबों, जलपान गृहों, धर्मशालाओं की दुकानों पर भी यह रोक लगाई गई थी। संशोधन प्रतिबंध लागू कर दिया गया। उच्च न्यायालय के समक्ष इस प्रतिबंध को निरस्त किये जाने हेतु रिट | प्रतिबंध उचित प्रतिबंध की सीमा में आते हैं।
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तीर्थों में मांसाहार पर पाबंदी उचित
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भगवान की जन्मभूमि में अंतर क्यों ?
कैलाश मड़बैया हिन्दी साहित्य सम्मेलन के हाल में सम्पन्न अधिवेशन | आश्चर्य तो यह हुआ कि वहाँ दर्शन कर रहे एक श्रावक में बहुचर्चित पौराणिक अयोध्या जाने का अवसर मिला। यह | ने हमें बताया कि मुगल सल्तनत के समय यहाँ भी एक सच है कि अयोध्या पूरी तरह राममय है, न तो वहाँ किसी | मस्जिद बना दी गई थी परन्तु तब उनके वजीर को यह सपना तरह का विवाद है, न ही विवाद की गुंजाइश । हाँ सरकार ने | आया कि वहाँ जमीन में आज भी आदिनाथ स्वामी की जन्म अपना अस्तित्त्व प्रदर्शित करने के लिए अवश्य इतने धन का | स्थली पर दीपक जल रहा है, श्रीफल एवं कलश विद्यमान है अपव्यय किया है कि इन पैसों से राम जन्म भूमि पर विशाल | अतः वहां इबादत नहीं हो सकती। परन्तु सुल्तान नहीं माना गरिमामय मंदिर तो बन ही सकता था, मुस्लिमों के लिए | कि जमीन के अन्दर इतने वर्षों तक जलता दीपक रह ही नहीं आलीशान मस्जिद भी।
सकता। परन्तु कुछ समय बाद फिर वजीर को सपना आया परन्तु अयोध्या के लोगों से संवाद स्थापित करने और कि मस्जिद हटाओ वरना अनर्थ हो सकता है। वजीर फिर नगर भ्रमण कर ऐसा प्रतीत हुआ कि सचमुच राजनीतिज्ञ सुल्तान के सामने रोया कि खुदाई करा ली जावे तो असलियत बड़ी चीज होते हैं, इतने कि राई को पर्वत बना दें। अब सामने आ जायेगी। सुल्तान ने कहा कि यदि जलता दीपक मुस्लिम चाहें भी कि वे मस्जिद की बात छोड़कर मंदिर नहीं मिला तो तुम्हें जमीन में उसी जगह गाड़ दिया जायेगा। बनाने में सहयोग करें तो कदाचित् राजनीतिज्ञ ऐसा नहीं होने | वजीर ने सोचा अनर्थ तो कैसे भी होना है अतएव सुल्तान की देंगे और परिस्थितियाँ इतनी जबरदस्त निर्मित हो चकी हैं कि वहाँ मस्जिद बन भी जाये तो मुसलमान शांति से इबादत नहीं | बचेंगे ही भगवान के भी दर्शन हो जायेंगे। अंततः काफी कर सकेंगे। मेरे एक मध्यप्रदेशीय युवा साहित्यकार ने प्रश्न | जद्दोजहद के बाद खुदाई की गई। और यह क्या .... सचमुच किया कि भाई साहब राम को संगीनों में क्यों रखा गया है? | जमीन के अन्दर जलता हुआ दीपक, कलश और श्रीफल यहाँ तो विरोध है ही नहीं, मंदिर ही क्यों नहीं बना लेते? मैंने | मूर्ति के सामने विद्यमान मिला। परिणामत: न केवल वजीर कहा-मंदिर बन जायेगा तो वोट क्या तुम दिलवा दोगे? | को बख्शा गया वरन् यह वरदान भी दिया गया कि मुल्लाओं राजनीतिज्ञों को मंदिर थोड़े ही बनवाना है, मुद्दा बनाये रखना | में विवाद न फैले अत: एक रात में जैन धर्मावलंबी जितना है। सोने की मुर्गी का कोई भी समझदार एक दिन ही पेट नहीं निर्माण कर सकें आदिनाथ जन्मस्थली पर कर लें। तब यह फाड़ता है, अवसर-अवसर पर सोने के अण्डे लिए जाते हैं। | ऋषभदेव टोंक का तत्काल निर्माण हो सका। परिक्रमा की
सुना तो था कि घूरे के दिन भी फिरते हैं। कभी जहाँ | गली इसी कारण सबेरे--सबेरे तक बहुत संकीर्ण बन सकी सागर था वहाँ आज शानदार शहर और जहाँ शानदार बस्तियां | थी। थीं वहाँ आज समुद्र हैं। परन्तु इतिहास और पुराण पढने वाले उपर्युक्त घटना की सत्यता शंकास्पद हो सकती है,परन्तु यह देखकर आश्चर्यचकित होते होंगे कि अयोध्या जैसा वेद-पुराण, आगम, ग्रन्थ यदि सही हैं तो यह निर्विवाद है कि प्राचीनतम और गौरवशाली नगर आज प्रगति के गर्त में सचमुच भगवान आदिनाथ अर्थात् ऋषभनाथ की यही स्थली वह ध्वस्त हो चुका है। ऐसा नहीं कि अल्पसंख्यक मुस्लिमों की पावन, पुण्य, प्राचीन और प्रणम्य भूमि है जहाँ से विश्व में जैन ही परेशानियाँ बढ़ी हैं और बढ़ी हैं तो शायद बाबर के विवाद धर्म का अभ्युदय हुआ। उन्हीं ऋषभनाथ के पुत्र भरत के नाम के बढ़ने से, परन्तु परेशानियाँ तो उनकी भी कम नहीं है जिन | पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा - पर कोई विवाद नहीं है। पौराणिक इतिहास साक्षी है कि नाभेः पुत्रश्च ऋषभः वृषभाद् भरतोऽभवत्। अयोध्या, वेदों में वर्णित आदिनाथ (केशी), प्रथम जैनतीर्थंकर तस्या नाम्ना वर्ष भारतं चेति कीर्त्यते॥7॥ ऋषभनाथ की जन्म स्थली है। सरयू किनारे आज के "स्वर्ग | -स्कंध पुराण, माहेश्वरखण्ड, कौमारखण्ड, (अध्याय 37) द्वार" मोहल्ले में पुराने थाने के निकट अयोध्या में आदिनाथ इतिहासकार वासुदेवसरण अग्रवाल ने भी उपर्युक्त तथ्य जन्म स्थली टोंक के दर्शन मात्र से यह प्रतीत होता है कि | की पुष्टि कर कहा है कि आदिनाथ के ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम आस-पास तो खण्डहर, वीरानगी और सरयू का पावन तट | पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा है। डॉ. सर्वपल्ली आदि पवित्र चिन्ह भगवान ऋषभदेव की जन्म भूमि की पुष्टि | राधाकृष्णन ने "इण्डियन फ्लास्फी" पुस्तक के पृष्ठ 387 पर करने के लिए पर्याप्त हैं।
कहा है कि ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी तक लोग तीर्थंकर ऋषभदेव
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की पूजा किया करते थे। बौद्ध ग्रन्थ "आर्य मंजुश्री मूल्य | समाज में यह चेतना कैसे लायी जाय यह विचारणीय प्रश्न काव्य" में कहा गया है कि अयोध्या में जन्मे इन्हीं ऋषभदेव | है। उल्लेखनीय है कि केवल आदिनाथ ही नहीं यहाँ द्वितीय ने हिमालय में तप द्वारा सिद्धि प्राप्त की थी। और वे जैन धर्म | तीर्थंकर अजितनाथ की जन्मभूमि की तो और दुर्गति हो रही के आद्यदेव थे।
है। बक्सरिया टोला-तुलसी नगर में उस पावन स्थल तक अयोध्या के इस गौरवमयी स्थल पर आज विश्व वन्द्य पहुंचने के लिए आप को अपावन विष्टा के ढेर से गुजरना आदिनाथ स्वामी का महान स्मारक मंदिर स्वरूप में होना | होता है। उस टोंक की कोई सुरक्षा भी नहीं है। हमें रास्ता चाहिए था, किन्तु विडंबना यह है कि उस प्राचीनतम स्थल | बताने वाले बालक ने बताया कि यहाँ के बड़े मंदिर की जैन जाने का रास्ता तक इतना कण्टकाकीर्ण और पहुंचविहीन है | कमेटी के अंतर्गत इन जन्मभूमियों की टोंकें आती हैं, परन्तु कि स्थानीय लोग भी उसे विस्मृत करते जा रहे हैं। आस- | कमेटी में बाहर के ही संभ्रांत सदस्य हैं, इसीलिए बैठक पास के जैन मंदिर के एक पुजारी तक ने मुझे बताया कि कभी-कभार ही होती है और इस ओर तो किसी का ध्यान ही जन्म भूमि तो मोहल्ला रामकोट में है। मैंने कहा कि भगवान नहीं है। हाँ नवनिर्मित बड़े जैन मंदिर में अवश्य जैन समाज राम से भी प्राचीन भगवान आदिनाथ स्वामी की जन्म भूमि | के लोग अपने-अपने नाम पटल लगवाकर नित्य नये निर्माण पहुँचना है। तब उसने कहा कार यहीं रोक दीजिए और मेरे | करा रहे हैं वहां के पुजारी/व्यवस्थापक ने हमें जैन तीर्थंकरों साथ पैदल एक-दो किलोमीटर चलिए, तब उस टोंक पर | के जन्म भूमि संबंधी कोई और साहित्य भी उपलब्ध कराने पहुँच पायेंगे। कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि किसी भारी बरसात | से इंकार कर दिया। कहा कि यहाँ जो फ्री में पत्रिकाएं आ में आदिनाथ जन्मस्थली टोंक को भी सरय का जलप्लावन | जाती हैं वही कुछ प्रचार सामग्री है। हम कछ भी साहित्य भविष्य में ले डूबे। कारण साफ है जब तक इस देश में किसी | खरीदने की स्थिति में नहीं हैं। जन्मभूमियों वाला एक छोटा स्थान पर विवाद नहीं होता, तब तक लोग उस ओर ध्यान ही पीला "हैंड पेपर" जरूर उसने दिया जिसमें टोंकों के नाम नहीं करते जैसे महापुरूषों के मरने के बाद ही उनकी पूजा मोहल्लेवार छपे थे। अयोध्या में अन्य जन्मस्थलियां निम्न का प्रावधान हमारे यहाँ है।
प्रकार हैंभारतीय समाज और विशेष तौर से सम्पन्न जैन समाज, तीर्थंकर सुमतिनाथ की जन्म भूमि कटरा स्थित प्राचीन जो नित नये ऊँचे मंदिर बना रहा है, जमीन से निकली | मंदिर, राजघाट स्थित तीर्थंकर अनंत नाथ की टोंक और चौथे आदिनाथ की प्रतिमाओं पर छोटे-छोटे कस्बों में गगनचुम्बी | तीर्थकर अभिनन्दन स्वामी की जन्मस्थलीय अशर्फी भवन मंदिर निर्मित कर रहा है, वह समर्थ जैन समाज प्रभु आदिनाथ | सुसहटी में वंदनीय है। और यह एक भी जन्मभूमि उल्लेखनीय की जन्मस्थली पर भव्य "आदिनाथ जन्मभूमि" का निर्माण | रूप से निर्मित नहीं है बस टोंकें भर हैं। एक तीर्थंकर धर्मनाथ कर इस ऐतिहासिक विरासत को स्मरणीय रूप से वन्दनीय की जन्म स्थली फैजाबाद-लखनऊ मार्ग पर भी वंदनीय है। नहीं बना सकता। जहाँ बाद में जन्मे राम के लिए पूरे भारत | | उपर्युक्त 5 तीर्थंकरों की जन्मभूमि ऐतिहासिक अयोध्या में आग लगी हो, सरकारें बन-मिट रही हो वहीं राम के | कम से कम जैन समाज के लिए तो शिखर जी और गिरनार हजारों वर्ष पूर्व जन्मे महान श्रमण संस्कृति के प्रवर्तक भगवान जी से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। पर गिरनार पर तो पण्डों/महंतों ऋषभदेव की जन्मभूमि की चर्चा तक नहीं। कोई एक ईंट ने अनधिकृत कब्जा कर उसे दर्शनविहीन कर दिया है। शिखर लगाने वाला नहीं। यह न केवल लज्जा-जनक है वरन् दुखद जी श्वेताबरो और दिगंबरों का अखाड़ा बना हुआ है और भी। यह केवल वेदों-उपनिषदों में वर्णित आराध्य आदिनाथ वीरान होती जा रही 5 तीर्थंकरों की पावन अयोध्या की सुध भर का प्रश्न नहीं है वरन् भारत को "भारतवर्ष" नामकरण लेने वाला कोई नहीं है। यहीं निकट लखनऊ में बैठकर जैन देने वाले भरत चक्रवर्ती के जनक आदिनाथ और भारत को समाज के कतिपय महारथी देश के अन्य तीर्थों के सरंक्षण वाणी (शब्द एवं अंक) देने वाली पुत्री के पिता महानतम की बात ऊँचे स्वर में करते हैं, अनेक पत्र छाप रहे हैं, श्रीमंतों तपस्वी आदिनाथ की जन्म भूमि के गौरव संरक्षण का प्रश्न के मिलों में कमेटियां संचालित हो रही हैं, लाखों करोड़ों के
वारे-न्यारे हो रहे हैं पर तीर्थंकरों की जन्मभूमियाँ उपेक्षित हो अयोध्या में भाग लेने वाले विराट कवि सम्मेलन की | | रही हैं। दीपक तले आज भी अंधेरा है। आखिर हमारी इस अध्यक्षता करते हुए जब मैंने अपने उद्बोधन में यह बात | अकृतज्ञता के लिये उत्तरदायी कौन होगा? और भावी पीढ़ी कही तो वहाँ सैकड़ों की संख्या में उपस्थित हिन्दू समाज ने | को हम कैसे बतायेंगे कि हमारे आराध्यों की जन्मभूमि अयोध्या तालियों की गड़गड़ाहट से इसका सम्मान किया। परन्तु जैन | कैसी है?
___75, चित्रगुप्त नगर,
कोटरा, भोपाल-462003 18 अगस्त 2004 जिन भाषित -
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आदर्श जीवन शैली ही धर्म है
प्रो. वी. के. जैन किसी भी देश, समाज और व्यक्ति का विकास तभी | योजना 'जियो और जीने दो' का सर्वत्र अभाव सा परिलक्षित संभव है जब वह अपने धर्म का पालन करे। वस्तु के | हो रहा है। स्वभाव को धर्म कहा जाता है और धारण किया जाता है।
वास्तव में धर्म कोई संगठन. समाज, पंथ या इसलिए धर्म के स्वरुप को प्रतिपादित करते हुए कहा जाता | सम्प्रदाय नहीं है। धर्म जीवन जीने की आदर्श शैली है। है कि धारयतीति धर्मः अर्थात जिसे धारण किया जाये वह | सुख से रहने की, शांति और परमानंद प्राप्त करने की कला धर्म है। धर्म न तो ओढ़ने की चीज है न ही बिछाने की। | है। विश्व में सभी धर्म दुष्कर्मों से बचाने और सत्कर्मों में धर्म प्रदर्शन अथवा दिखावे की वस्तु नहीं है। धर्म कोई प्रवृत्त होकर जीवन सँवारने का उपदेश देते हैं। स्वयं की वस्त्र नहीं है कि जिसे पहन लिया वह धार्मिक हो गया। उन्नति के साथ-साथ सबकी उन्नति हमारा ध्येय बन जाना धर्म कोई भाषण भी नहीं है जिसने सुन लिया वह धार्मिक | चाहिए। तभी धर्म जीवन में उतर सकेगा तथा हम सही बन गया। कोई भी बाह्य आडम्बर धर्म को उजागर नहीं | धार्मिक बनकर अच्छे इंसान बनने की ओर अग्रसर हो कर सकता । स्वामी सम्पूर्णानन्द सरस्वती कहते थे कि सूर्य सकेंगे। उदय हुआ है यह बात बतानी नहीं पड़ती। प्रकाश और धर्मच्युत हो जाने पर मनुष्य और समाज के विनाश गर्मी स्वयं इस बात का परिचय देते हैं कि सूर्योदय हो गया | को कोई टाल नहीं सकता। इस शाश्वत सत्य को समझ है। इसी प्रकार धर्मधारण करने वाला धर्मात्मा किसी परिचय | लेने पर धर्म का पालन करना आसान हो जाता है। का मोहताज नहीं होता। उसका परिचय यह कहकर नहीं दिया जाता कि वह नित्यप्रति अभिषेक करता है, पूजा
प्रोफेसर- वाणिज्य विभाग,
शा. स्नाकोत्तर महाविद्यालय, मन्दसौर (म.प्र.) अर्चना करता है, स्वाध्याय करता है, लम्बी-लम्बी जाप देता है, प्रतिक्रमण करता है और व्रतोपवास करता है। कोई
ग्रन्थ परिचय व्यक्ति धर्मात्मा है या नहीं इसका पता इस बात से लगता है
ग्रन्थ का नाम - मानव धर्म कि उसके चारों और रहने वालों पर उसके व्यवहार से कोई
लेखक
- बा.ब.पं. श्री भूरामल शास्त्री
- बा.ब.प. सुखदायक प्रभाव पड़ता है या नहीं। अपनी चारों ओर की
(आ.ज्ञानसागर जी) अवस्थाओं में धर्मात्मा रूपी सूर्य की धूप का गुनगुनाने संस्करण - प्रथम (मार्च 2004) वाला अहसास है।
प्रतियां
- 2200 (पृष्ठ 224) हमारे दैनन्दिनी जीवन में ढेर सारे तनाव हैं, जिनसे
लागत मूल्य - 50/- रूपये
विक्रय मूल्य - 25/- रूपये हमारा जीवन कष्टकर हो रहा है। बहुत सारे बोझ हैं सिर पर
डाक खर्च - 7/- रूपये जिन्हें हम चाहे- अनचाहे ढोने के लिए अभिशप्त हैं। फिर
सम्पादन - डॉ. शीतलचन्द जैन, धर्म को भी हम बोझ के समान ढोयें तो ऐसे धर्म से क्या
पं. रतनलाल बैनाड़ा, ब्र. भरत जैन। लाभ? धर्म तो वह है जिसकी सुरभि-जीवनमें प्यार, करूणा,
मानव धर्म आचार्य समंतभद्र स्वामी द्वारा रचित स्नेह, वात्सल्य, सदभाव, श्रद्धा और सहयोग का संचार
रत्नकरण्ड श्रावकाचार पर आधारित है। जिसमें बा.ब्र. पं.
भूरामल शास्त्री ने (हिन्दी गद्य) में मानव जीवन और करती है और जिसमें उक्त भावों के पुष्प प्रस्फुटित हो जायें,
आचार की व्याख्या सटीक वाक्यों में छोटे-छोटे उदाहरणों वही सच्चा धर्मात्मा है।
एवं प्रेरक सूक्तियों के माध्यम से की है। भावार्थ मूलश्लोक वर्तमान में धर्म के नाम पर मानव छोटे- छोटे के नीचे आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा रचित टुकड़ों में बंट गया है। धर्म की गलत धारणा, त्रुटिपूर्ण ज्ञानोदयछंद का पद्यानुवाद पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य
कत अन्वयार्थ जोड़ा गया है। सम्पर्क सूत्र व्याख्या और गलत व्यवस्था ने समाज में कड़वाहट, अशांति,
ब्र.भरत जैन तनाव, निराशा, हताशा,असहयोग, द्वेष और घृणा फैलायी
आचार्य ज्ञानसागर ग्रन्थमाला, है। भाईचारा, सहयोग, प्रेम एवं सहअस्तित्व धर्म की परिभाषा
श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान से लगभग बहिष्कृत हो गये हैं। तीर्थंकरों की कालजयी
वीरोदय नगर, सांगानेर, जयपुर (राज.) फोन नं. 0141-2730552, 3418497
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वासना से वात्सल्य की ओर
सुशीला पाटनी बात उत्तम ब्रह्मचर्य की है। विश्व के समस्त धर्मों में | पड़ते हैं, वैसे ही कामनाओं के पीछे दौड़ता हुआ मनुष्य ब्रह्मचर्य को एक पावन और पवित्र धर्म माना गया है। यह अपना जीवन बर्बाद कर लेता है, पर पाता कुछ नहीं, पा ही समस्त साधनाओं का मूल आधार है। ब्रह्मचर्य को अपनाए नहीं सकता। क्योंकि हम पूजा में पढ़ते हैं। बिना आत्मा की उपलब्धि असम्भव है। ब्रह्म का अर्थ है- ____ काम-भोग से आखिर कौन सा सुख मिलता है? हड्डियों आत्मा। आत्मा की उपलब्धि के लिए किया जाने वाला | के दो ढांचे के पारस्परिक संघर्ष से क्या मिलने वाला है? आचरण ब्रह्मचर्य है। आत्मोपलब्धि ही परम ब्रह्म की कुत्ता हड्डी चबाता है और उसे ऐसा लगता है, मानो उससे उपलब्धि है। जो व्यक्ति आत्मा के जितना निकट है वह रस आ रहा है। सूखी हड्डी में भला कोई रस है? हड्डी उतना ही बड़ा ब्रह्मचारी है तथा जो आत्मा से जितना दूर है चबाते-चबाते उसके मसूड़े छिल जाते हैं, उसके मुख से वह उतना ही बड़ा भ्रमचारी है। हमें ब्रह्मचारी और भ्रमचारी रक्त निकलता है और उसे लगता है यह रस हड्डी का है। में अन्तर करने के लिए चलना है। ब्रह्मचारी का अर्थ है काम भोग का सुख ऐसा ही है। जैसे कोई व्यक्ति खाज ब्रह्म (ब्रह्ममय आचरण करने वाला) में जीने वाला और खुजलाता है, उस समय उसे थोड़ी देर के लिए आराम भ्रमचारी का अर्थ है भ्रम में जीने वाला। भ्रम के टूटे बिना मिलता है, पर खाज खुजलाने के पश्चात उसे समझ में ब्रह्म को पाना असम्भव है और ब्रह्मा को पाने के लिए आता है कि खाज कितनी पीड़ादायक है। वस्तुतः ये भोग, उसका ज्ञान होना आवश्यक है। आत्मा की दूरी और नैकट्य भोगते समय मधुर लगते हैं पर परिपाक काल में बहुत से ही ब्रह्म और अब्रह्मचर्य का परिचय मिलता है। पीडादायी होते हैं । वासना उस किंपाक विषफल के समान
काम और भोग ही हमें हमारी आत्मा से बाहर लाते हैं। है जो खाने में मधुर, देखने में सुन्दर और सूंघने में सुरभित कामनाओं से ग्रसित व्यक्ति का चित्त सारी दुनियाँ में दौड़ता | होता है, किन्तु जिसका परिणाम है-मृत्यु। रहता है। काम और भोग ही हमें भटकाने वाले तत्व हैं। काम--भोग से एक क्षण का सुख, बहुत काल का दु:ख, जिसके अंदर जितनी अधिक कामनाएँ हैं वह आत्मा से सीमित सुख और असीमित दु:ख मिलता है। ये संसार से अधिक दूर है, तथा जो कामनाओं से जितना अधिक मुक्त | मुक्ति के विपक्ष भूत हैं और सारे अनर्थों की मूल हैं। है वह आत्मा के उतना ही अधिक नज़दीक है। कामनाएँ | यदि तुम्हें भोग ही करना है तो अपनी चेतना का भोग हमें बहिर्मुखी बनाती हैं और कामना मुक्ति अन्तर्मुखता का | करो। चेतना का भोग ही वास्तविक ब्रह्मचर्य है। आत्मा में आधार है। उसके लिए काम-भोग की आकांक्षाओं से ऊपर | डूबना ही यथार्थ ब्रह्मचर्य है। उठना अनिवार्य है।
___ आत्मानुराग ही वास्तविक प्रेम है। आचार्यश्री ने मूकमाटी ___ जन्म-जन्मांतरों से मनुष्य काम का दास बना हुआ है। में लिखा है :अपनी वासनाओं की पूर्ति के लिए उसने क्या नहीं किया,
प्रीत मैं उसे मानता हूँ पर मिला क्या? सिवाय प्यास, अतृप्ति और पीड़ा के? आज
जो अंगातीत होता है तक का हमारा यही अनुभव है कि काम भोग की
गीत मैं उसे मानता हूँ आकांक्षाओं-वासनाओं से अभी तक मनुष्य को कुछ भी
जो संगातीत होता है नहीं मिला। भला कोई रेत से तेल निकालना चाहे तो उसे | देहानुराग और आत्मानुराग में बहुत अन्तर है। इन दोनों क्या प्राप्त होगा? किन्तु उसके बाद भी हमारी प्रवृत्ति नहीं | में उतना ही अन्तर है जितना कि वासना और वात्सल्य में। बदलती। मनुष्य बार-बार उनकी ओर आकर्षित होता है और पुन: अतृप्ति और प्यास में फंसकर रह जाता है। जैसे
आर. के. हाऊस, मृगमरीचिका में मृग को दौड़-दौड़ कर अपने प्राण गँवाने ।
मदनगंज-किशनगढ़
कृत, व्रत, नियम का पालन करने वाले विवेकीजन स्वकर्त्तव्य से कदापि स्खलित नहीं होते। ।
मानव धर्म
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यदि आप शाकाहारी हैं तो अवश्य ध्यान रखें
पदम रांटा 1.चांदी का वर्क : मिठाई, पान, सुपारी तथा देव | उसकी पलकों को टांक दिया जाता है और उनकी आखों में प्रतिमा की सजावट में उपयोग न करें। चांदी के कण को | शेम्पू डालकर प्रयोग किया जाता है। खरगोश अंधे होकर बैल की आंत के चमड़े की परतों के बीच रखकर पीट- | मर जाते हैं। पीटकर बनाया जाता है।
___ 12.सेन्ट : सेन्ट उत्पादन के लिए हजारों बिजु (बिल्ली ____ 2.पान मसाला-गुटका : मादकता उत्पन्न करने के | जैसा जानवर) मार डाले जाते है। बिजु को बैतों से सूंता लिए छिपकली की पूंछ डाली जाती है। पाउच, गुटका, । जाता है तथा चाकू से गोदा जाता है। पानमसाला, तम्बाकू के इस्तेमाल की लत पड़ जाने से मुंह 13.ऑक्सीटोसिन इन्जेक्शन : शीघ्र दूध निकालने एवं फेफड़ों में कैन्सर हो सकता है।
के लिए प्रयुक्त आक्सीटोसिन इन्जेक्शन पशुओं को लगातार ____3.रेडिमेड आटा : कुछ मशहूर ब्राण्ड के रेडिमेड | प्राप्त दूध स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, घातक है। इससे आटे में मछलियों का चूर्ण या मतस्य चूर्ण (हड्डियों का | गाय भैंस को प्रसव जैसी पीड़ा होती है तथा कई बार दूध पाउडर) मिलाया जाता है।
में खून भी उतर आता है। 4.साबूदाना : टोफियोका नामक कंद को उबालकर | 14.इन्सुलिन : मधुमेह रोगियों को दिया जाने वाला उसके घोल को महीनों तक सड़ाया जाता है। असंख्य | इन्सुलिन गाय, बछड़ा, बैल, भेड़ और सुअर के पेन्क्रियाज जीव, कीटाणु बिलबिलाते हुए मर जाते हैं। इस सड़े हुए | में से प्राप्त किया जाता है। इस कारण बहुत से पशुओं को घोल से ही साबूदाना का उत्पादन किया जाता है। मौत के घाट उतारा जाता है।
5.बोन चायना क्रोकरी: चीनी के बर्तन आदि बनाने | 15.सिन्थेटिक दूध : यूरिया रिफाइन्ड तेल, डिटर्जेन्ट, में हड्डी के चूरे का प्रयोग होता है।
शक्कर, नमक, सतरीठा, अरारोट पाउडर, बबूल का गोंद 6.आईस्क्रीम : कम्पनी वाली मंहगी आइस्क्रीम में | मिलाया जाता है। सिंथेटिक दूध स्वास्थ्य के लिए हानिकारक लगभग 6 प्रतिशत चर्बी लिसलिसे स्वाद के लिए मिलाई | है। जाती है।
____ 16.चीज पनीर : इसे बनाने के लिए रेनेज का इस्तेमाल _____7. सिन्थेटिक कत्थे : अरारोट, लालरंग, मुलतानी | होता है। दो सप्ताह से कम आयु वाले बछड़ों के पेट से मिटटी, जूते की पॉलिश एवं पशुओं के शुष्क खून का | रेनेज निकाला जाता है। जिससे हजारों बछड़ों को जिन्दा प्रयोग किया जाता है।
मार दिया जाता है। 8.कोशा की साड़ी का कुर्ता : रेशम के हजारों | 17.मुलायम चमड़ा : इससे मंहगे जूते, चप्पल, पर्स, कीड़ों को उबालकर रेशमी कपड़ा बनता है। 100 ग्राम | बेल्ट, मिनी बेग, हेण्डबेग इत्यादि वस्तुएं बनाई जाती हैं। रेशम का वस्त्र तैयार करने में लगभग 15,000 कीड़े को | इसे प्राप्त करने के लिए जिन्दा पशुओं पर गरम उबलते मारना पड़ता है।
पानी की तेज धार डालते हैं। 9.चॉकलेट, केक इत्यादि : कुछ चॉकलेट और | 18.नहाने का साबुन : दैनिक उपयोग के कई ब्राण्ड टॉफियों में गौ मांस मिलाया जाता है। अनेक ब्रान्ड के ब्रेड, | के नहाने के साबुन में चर्बी मिलाई जाती है। केक, बिस्कुट, केण्डी, पीपरमेन्ट, चॉकलेट बनाने में अण्डा 19.टूथ पावडर : कई टूथ पाउडर में हड्डी व अन्य और जिलेटिन का प्रयोग किया जाता है।
अशुद्ध पदार्थ मिलाये जाते हैं। 10.जुएं मारने वाले तरल पदार्थ के उपयोग से मस्तिष्क | ___20.टूथ पेस्ट : कई टूथपेस्टों में चर्बी मिलाई जाती हैं केन्सर होता है।
प्रत्येक टूथपेस्ट में सर्गिटोल, सोडियम लारिल सल्फेट, 11.शैम्पू : कुछ किस्म के शैम्पुओं में अण्डे मिलाये क्लोराइड मिला रहता है। सर्बिटोल से बच्चों को दस्त लग जाते है। शैम्पू इस्तेमाल से आखों को कोई नुकसान न | सकते हैं। क्लोराइड सरासर घातक विष है। पहुंचे इसलिए परिक्षण किया जाता है । खरगोश को बांधकर | 21.जिलेटिन : केप्सूल जिलेटिन नामक पदार्थ से
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बनती है। जिलेटिन हड्डियों, खुरों, पशुओं के उत्तकों को उबालकर प्राप्त होता है। इसे पशुओं आदि की झिल्लियों आदि से भी प्राप्त किया जाता है।
22.शहद : इसे प्राप्त करने के लिए हजारों मधुमक्खियों को निचोड़ दिया जाता है। मधु में मिलाकर देशी दवा लेने का विकल्प चासनी उपलब्ध है।
23. हाथी दांत : हाथीदांत से कीमती आभूषण एवं खिलौनों के लिए जहर देकर हाथियों को मार दिया जाता
।
24. ब्रश : कई किस्म के रंगाई के ब्रश, शेविंग ब्रश, हेयर ब्रश, कलाकारी ब्रश बनाने के लिए सुअर की भौहें, पलकें और शरीर के बालों को नोंच लिया जाता है।
25. कस्तूरी : इत्र, फुलेल आदि सुगंधित पदार्थ बनाने के लिए कस्तूरी प्राप्त करने के लिए कस्तूरी मृग मार दिये जाते हैं।
26. फर की टोपी या वेशभूषा : कराकुल शिशु की खाल टोपियां या अन्य वेशभूषा बनाने के लिए काम आती है । कराकुल भेड़ को बेंतों से सूता जाता है ताकि उसे गर्भपात हो जाये और कसाइयों को वक्त से पहले कराकुल भ्रूण मिल जाये। इसकी खाल बहुत मंहगे दामों में बेची जाती है।
27. लिपिस्टिक: मधुमक्खियों को छत्तों से भगा दिया जाता है और हजारों की संख्या में उन्हें मार दिया जाता है। इनके छत्तों से मोम प्राप्त होता है। जिसे लिपिस्टिक के उत्पादन में उपयोग लिया जाता है। लिपिस्टिक में चमक लाने के लिए सुअर की चर्बी मिलाई जाती है।
28. नेल पॉलिश : इसमें जानवरों का खून मिलाया जाता है।
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29. भालू के 2 से 4 दिन के शिशु को मारकर उसकी खाल की टोपियां बनाई जाती हैं। असंख्य खरगोशों को मारकर फर के थैले बनाये जाते हैं।
30. गर्भ निरोधक गोलियां खाने से, भ्रूण हत्या करने से केन्सर हो सकता है।
घी के बाजार में कृत्रिम घी उत्पादन की बहुलता
सिंथेटिक दूध और पनीर के बाद अब सिंथेटिक घी बाजार में मिल रहा है। 80 प्रतिशत बाजार में सिंथेटिक घी ने कब्जा कर रखा है।
इसमें जानवरों की चर्बी, रिफाईंड तेल आदि का मिश्रण, शुद्ध घी की सुबास के लिए जर्मन से आयात कृत्रिम ऐसेन्स डाला जाता है। घी में कुछ प्रतिशत रसायन कीटनाशक का समावेश है, ये सब स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाते हैं।
31. सरकार द्वारा आजकल शाकाहारी वस्तुओं पर हरा निशान व मांसाहारी वस्तुओं पर भूरा निशान लगाया जाता है। अतः प्रयोग करने के पूर्व अवश्य जांच लें।
32. ठण्डा मतलब जानलेवा : बोतल बन्द पानी में कीटनाशकों की मौजूदगी के बाद अब यह खुलासा हुआ है कि गर्मी से राहत दिलाने वाले सभी शीतल पेय बंद बोतलें जानलेवा है- कई बोतलों में तो अन्तर्राष्ट्रीय मानकों की तुलना में कीटनाशकों की मात्रा 70 गुना तक अधिक पाई गई है। जैसे - मिरिन्डा लेमन में 70 गुना, कोकाकोला में 75 गुना, फैन्टा में 43 गुना, पेप्सी में 37 गुना, सेवन अप में 33 गुना, लिम्का में 30 गुना, बटर पेप्सी में 25 गुना, थम्सअप में 22 गुना, डाइट पेप्सी में 14 गुना, स्पाइट में 11 गुना अधिक कीटनाशक पाये गये। सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह कि कोकाकोला व पेप्सी में सिर्फ भारत में बेची जाने वाली कोल्ड ड्रिंक्स में ही ये कीटनाशक पाये गये जबकि अमेरिका में उपलब्ध पेय पदार्थों में कीटनाशक की मात्रा एकदम शून्य थी। अतः अब हमें विदेशी कम्पनियों द्वारा निर्मित पेय पदार्थों का पूर्णतः बहिष्कार करना चाहिए और स्वनिर्मित दही, लस्सी, छाछ, जूस आदि का प्रयोग करना चाहिए ।
रांटा का परांठा
बस स्टैण्ड, केकड़ी (राज.)
श्रीमती प्रतिभा देशभाने
उस्मानाबाद
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प्राकृतिक चिकित्सा
पवन पानी पृथ्वी, प्रकाश और आकाश पंच तत्व के खेल से, बना जगत का पाश । प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार हमारा शरीर वायु, जल, तेल या अग्नि, पृथ्वी और आकाश रूप पंच तत्व से निर्मित है तथा वे ही नैसर्गिक उपचारों के साधन हैं जिनमें वायुचिकित्सा, जल- चिकित्सा, मिट्टी- चिकित्सा, सूर्यकिरण चिकित्सा तथा आकाश तत्व के प्रयोग शामिल होते हैं।
वायु है वरदान
आइए जानते हैं वायु के बारे में जल को जीवन माना गया है, परन्तु वायु को प्राण कहा गया है। एक मिनट भी यदि हमें वायु न मिले तो हम घबरा उठते हैं, ज्यादा देर तक न मिले तो हमारा प्राणान्त तक हो सकता है। यह प्राणी मात्र का अत्यन्त आवश्यक भोज्य तत्व है। हम लोग दुनिया के सबसे धनवान तथा भाग्यशाली जीव हैं क्योंकि हमारे चारों तरफ से उत्तम शुद्ध वायु हमें आवृत्त किए हुए है। प्रतिदिन हम जितना भोजन करते हैं और जल पीते हैं, उससे सात गुना वायु भक्षण करते हैं । एक आदमी एक मिनिट में 16 से 18 बार तक श्वास लेता है। आक्सीजन से प्रकाश और ताप दोनों प्राप्त होते हैं। स्वास्थ्य प्राप्ति एवं रोग निवारण की दृष्टि से वायु स्नान एक बेजोड़ नैसर्गिक माध्यम है।
वायु स्नान जिस प्रकार घर को स्वच्छ रखने के लिए घर की खिड़कियाँ और झरोखे खोलकर अंदर जाती हवा का प्रवेश आवश्यक है, उसी प्रकार इस शरीर रूपी घर में त्वचा छिद्र (रोमकूप) रुपी झरोखे से होकर ताजी वायु का प्रवेश नित्य होते रहना परमावश्यक है। कपड़ों से सदैव शरीर को लपेटे रहने से त्वचा पीली पड़ जाती है और रोमकूप अकर्मण्य होकर शिथिल पड़ जाते हैं, और बहुत से तो एकदम बंद ही हो जाते हैं। फलस्वरूप कब्जियत, हृदयरोग तथा डायबिटिज आदि भयानक रोग सामने आते हैं। वायुस्नान से हम समस्त संसार के आनंद को मानो पी जाते हैं।
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हमारे जैन साधु सारे जीवन भर इसी आनंद का रसपान करते हैं। वायुस्नान शरीर की स्वास्थ्य रक्षक एवं रोग प्रतिरोधक जीवनी शक्ति को बलशाली बनाता है। शरीर का कठोरीकरण करके हर वातावरण के अनुकूल ढाल देता है। प्रकृति हर प्राणी को निर्वस्त्र पैदा करती है और सभी निर्वस्त्र ही यहाँ से विदा हो जाते हैं। लेकिन मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जिसे जन्म लेते ही कपड़ों से ढक दिया जाता है ढ़कने का अर्थ है, प्रकृति की गोद से अलग करना। जितना हम बच्चों के शरीर
डा. वन्दना जैन
को वस्त्रों से लादते हैं उतनी ही उनकी रोग प्रतिरोधक जीवनीशक्ति कमजोर होती जाती है। हर बच्चा हमेशा रुग्ण रहने लगता है। संश्लेषित कपड़े से ही ढ़कना है तो उन्हें सूती तथा पतले सछिद्र कपड़े से ढ़कें ताकि त्वचा से हवा का सम्पर्क बना रहे ।
बच्चे कपड़े को कभी पसन्द नहीं करते हैं वे बार-बार उसे फेंक देते हैं, वे प्रकृति के ज्यादा समीप हैं। ठण्ड के दिनों में भी आप उन्हें ढ़कने तथा ओढ़ने का प्रयास करते हैं। लेकिन वे बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। आप इस नैसर्गिक प्रवृत्ति एवं उनके शरीर की माँग को नहीं समझ पाने के कारण प्रेमवश बच्चों के साथ ज्यादती कर बैठते हैं ।
दक्षिणी कंबोडिया के सने फानास नामक एक किशोर ने अभी तक कपड़े ही नहीं पहने हैं, उसके पिता ने उसे कई बार बुरी तरह पीटा फिर भी उसने कपड़े नहीं पहने। कपड़े से जो अंग ज्यादा देर तक ढ़का रहता है, वह अंग उतना ही नाजुक हो जाता है, गुप्तांग बराबर ढ़के रहने के कारण ही सबसे नाजुक अंग है। सिर, हाथ व चेहरा कम ढ़का रहता है इसलिए ये अंग प्रत्येक वातावरण का सहजता से मुकाबला कर लेते हैं। हम जितना ठंड से भयभीत रहते हैं भय के कारण ही ठंड की ज्यादा अनुभूति होती है। ठंड के दिनों में भी कुछ मिनिट निर्वस्त्र रहने का अभ्यास डालें। महात्मा गांधी जी तथा जर्मनी के प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक 'एडोल्फ जुस्ट' इसका अभ्यास किया करते थे ।
चारों तरफ से हवा हमें घेरे हुए है, हवा का बाहरी तथा आंतरिक प्रयोग दोनों ही शरीर के अंदर रक्त को हीमोग्लोबिन द्वारा सोख लिया जाता है। ऑक्सी हीमोग्लोबीन के रूप में हवा रक्त प्रवाह के साथ समस्त अंगों को नवजीवन, नई ऊर्जा प्रदान करती है। शहरी तथा औद्योगिक क्षेत्र की हवा प्रदूषित होती है। उसमें Co, Co2, So2, NH3 सायनाइड आदि अनेक विषैली गैसें होती हैं, जो श्वांस के सहारे जाकर हृदय फेफड़े, गुर्दे, यकृत, रक्त, अस्थि मज्जा को प्रदूषित कर क्षतिग्रस्त करती हैं। भोपाल का गैस काण्ड इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। जिसमें हजारों लोग वे मौत मारे गए।
हवा, मौसम तथा पर्यावरण के अनुसार निरंतर बदलती रहती है, प्रत्येक मौसम में शीतल वायुमण्डल में घूमने से रक्त का संचार तीव्र होकर रक्त ऑक्सीकरण या शुद्धिकरण क्रिया बढ़ जाती है। गर्म वायुमण्डल में हवा की कमी के कारण
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शरीर की गर्मी निकलनी मुश्किल हो जाती है, लेकिन हवा | वातावरण शुद्ध होता है वायुमण्डल की घुलनशील विषाक्त तेज होने से गर्मी खूब निकलती है प्रातःकालीन ठण्ड या | | गैसें जल से घुल जाती हैं यदि ऐसा संभव न हो तो जंगल, गर्मी के मौसम में 15 से 45 मिनिट तक ठण्डा वायुस्नान | मैदान तथा घर की छत सुविधानुसार काम ताजगी एवं स्वास्थ्य प्रदान करता है। डॉ. नागेन्द्र कुमार जी | नीरज इस्पाती ठंड में भी इसका प्रयोग करते रहते हैं। 6. खुले में वायुस्नान का प्रयोग 5 मिनिट से धीरे-धीरे
डॉ. नीरज जी 1996 में बस्सी, जयपुर के प्राकृतिक | बढ़ाते हुए एक-दो माह पश्चात 30-45 मिनिट करें। प्रथम चिकित्सालय के प्रभारी थे उस समय हम 12 बहिनें उनसे | दिन ही अधिक समय वायुस्नान लेने से उपद्रव हो सकते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा का व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त कर रहे थे। हठधर्मिता न करें। जनवरी का समय था ठंड बहुत तेज पड़ रही थी इसलिए हम | 7. वायुस्नान लेते समय वायु का तापमान , शारीरिक लोगों के कमरे पर आए और बोले आप लोग इस कमरे को | स्थिति, वायु की गति वायु की आद्रता आदि विभिन्न कब्र की तरह क्यों पैक किए हुए हो। अपने जीवन में स्वच्छ | परिस्थितियों का ध्यान रखें। हठधर्मिता न करें। जब तक हवा तथा सद्विचारों का प्रवेशद्वार कभी बंद नहीं करना | वायुस्नान प्रीतिकर लगे तब तक करें। कंपकंपी न आने पावे। चाहिए। खिड़कियाँ हमेशा खोलकर सोएं तथा सिर को ढककर | कंपकंपी की स्थिति में शरीर को गर्म करने के लिए व्यायाम, तो कभी भी नहीं सोना चाहिए। इस तरह उस दिन उन्होंने आसान, हाथों या सूखे तौलिये से सूखा घर्षण करें। तेजी से जीवन का एक महत्वपूर्ण सूत्र हमें दे दिया था। टहलें या दौड़े। गर्म कपड़ों से शरीर को ढंकें।
वायुस्नान की विधियाँ- वायुस्नान का सर्वोत्तम समय 8. अभ्यंतर वायुस्नान की दृष्टि से प्रत्येक मौसम में खिड़की सूर्योदय के दो घण्टे पूर्व तथा एक घण्टे बाद का है, जिसे | | रोशनदान खोलकर अथवा बाहर खुले विस्तृत आकाश के ऋषियों ने ब्रह्ममुहूर्त कहा है। ब्रह्ममुहूर्त में उठने तथा वायुस्नान | नीचे सोना सर्वोत्तम है सिर्फ ठंड के दिनों में करने का स्वास्थ्य तथा ध्यान की दृष्टि से अपना महत्व है। कमरे में सोएं। इस समय मन, चित्त, वातावरण सभी कुछ शांत एवं प्रदूषण | 9. हम सब सिर्फ फेफड़ों द्वारा ही श्वास नहीं लेते हैं। रहित होता है ब्रह्मबेला में ब्रह्मांड किरणें भी प्रभावित करती | बल्कि शरीर का प्रत्येक रोमकूप भी श्वांस लेता है। प्रयोग हैं। ब्रह्म अर्थात स्वास्थ्य इसलिए यह ध्यानियों तथा द्वारा देखा गया है कि शरीर के रोमकूपों को मोम द्वारा बंद स्वास्थ्यार्थियों की बेला है। इस महाबेला में प्रायः लोग बेहोश कर देने पर प्राणी की मृत्यु हो जाती है। इसलिए शरीर पर होकर निंद्रा, आलस्य तथा प्रमाद में पड़े रहते हैं। जिन्हें कपड़े भी सूती तथा सछिद्र हों। पाकिस्तान के एक हृदय रोग स्वास्थ्य तथा धर्म की आकांक्षा है, वे इस समय उठकर | विशेषज्ञ ने खोज की है कि टैरेलिन तथा अन्य संलेषित तन्तु वायुस्नान लें।
से बने कपड़े पहनने से हृदय रोग, उच्चरक्तचाप, त्वचा रोग ___ 1. वायुस्नान का अभ्यास गर्मी के प्रात:कालीन | तथा अन्य घातक रोग होते हैं। स्वास्थ्यदायी मौसम से प्रारम्भ करें फिर जाड़े के दिनों में | 10. वायुस्नान के साथ सूर्यस्नान भी लिया जा सकता है। जारी रखते हुए निरंतर करें।
प्रात:कालीन सूर्य की किरणों में अल्ट्रावायलेट किरणें होती 2. वृद्ध तथा अशक्त स्वास्थ्य साधक पहले अपने कपड़ों हैं। जो त्वचा के सम्पर्क में विटामिन डी, कैल्शियम तथा को कम करें सछिद्र पतले सूती कपड़े पहनें, जिससे त्वचा फास्फोरस अवशोषित होकर शरीर के लिए उपयोगी बनते का स्पर्श हवा से हो सके।
हैं। धूपस्नान तथा वायुस्नान दोनों मिलकर चपापचय (विष ___3. ठंड के दिनों में शरीर जैसे-जैसे बर्दाश्त करने में निष्कासन, स्वस्थ कोषिकाओं का सृजन, आहार का सक्षम हो जाए अपने कमरे में 5-10 मिनिट निर्वस्त्र होकर सात्मीकरण आदि) क्रिया को उत्तेजित तथा उन्नत करते हैं। टहलें खिड़कियाँ, रोशनदान सभी खुले रखें।
धूपस्नान व वायुस्नान के समय यदि रोयेंदार सूखे तौलिए या 4. कमरे में 30 मिनिट यह प्रयोग निर्विघ्न सफल हो जाए | हथेलियों व अंगुलियों से घर्षण 30-40 मिनिट किया जाए तो फिर कमरे के बाहर छत मैदान या खुली जगह 5 से 15 | तो स्वास्थ्य के लिए सोने में सोहागा बाली कहावत चरितार्थ मिनिट तक निर्वस्त्र रहने की आदत डालें।
होती है। धूपस्नान के समय इन क्रियाओं से शरीर की स्नायुशक्ति 5. जब खुली जगह आधे घंटे तक निर्वस्त्र रहने की | का संचार व्यवस्थित होता है। सभी प्रकार के रोगियों के आदत हो जाए, फिर इसी प्रयोग को झील, नदी, तालाब या | लिए ये क्रियाएं पुनर्जीवन एवं स्वास्थ्यदायक हैं। समुद्र के किनारें करें। सर्वोत्तम जगह पानी का किनारा ही है क्योंकि वहाँ ऑक्सीजन अधिक होने से वायुमण्डल तथा ।
कार्ड पैलेस, वर्णी कालोनी, सागर (म.प्र.) 24 अगस्त 2004 जिन भाषित
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जिज्ञासा- समाधान
पं. रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता- श्री सुमेरचन्द भगत, आगरा
अधिक जानकारी के लिए सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ 40 देखने जिज्ञासा- क्या सूक्ष्मनिगोदिया जीवों का भी अकालमरण | का कष्ट करें। होता है? यदि होता है तो क्यों?
प्रश्नकर्ता- पं. देवेन्द्र शास्त्री, जबलपुर। समाधान- तत्त्वार्थसूत्र अध्याय -2,सूत्र-53 में इसप्रकार जिज्ञासा- क्या औपशमिक आदि पांच भाव जीव के लिखा है- 'औपपादिक-चरमोत्तम देहा संख्येय- | अलावा अन्य द्रव्यों में भी पाये जाते हैं? वर्षायुषोऽनपवायुषः' ॥ 53 ॥ अर्थ- उपपाद जन्म है । समाधान- इस संबंध में श्री धवला पुस्तक-5 के निम्न वाले और असंख्यात वर्ष की आयु वाले अर्थात भोगभूमिया | प्रसंग ध्यान देने योग्य हैं- 'केण भावो। कम्माणमुदएण जीव अनपवर्त्य आयु वाले होते हैं। अनपवर्त्य आयु का खयणखओवसमेणकम्माणमुवसमेण सभावदो वा। तत्थ तात्पर्य है कि उपघात के निमित्त विष, शस्त्रादि बाह्य निमित्तों | जीवदव्वस्स भावा उत्तपंचकारणहितो होति। पोग्गलदव्वभावा के मिलने पर जो आयु नहीं घटती है वह अनपवर्त्य आयु पुण कम्मोदएण विस्सासादो वा उप्पजंति। सेसाणं चदुण्हं कहलाती है। अर्थात तीनों प्रकार के जीवों का अकालमरण दव्वाणं भावा सहावदो उप्पजंति। (धवला . 5 पू. 181) नहीं होता है। इस सत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में इस प्रकार
प्रश्न- भाव किससे होता है, अर्थात भाव का साधन कहा है। 'न ह येषामौपपादिकादीनां बाह यनिमित्त
क्या है। वशादायुरपवर्त्यते इत्ययं नियमः। इतेरेषामनियमः'। अर्थ
उत्तर- भाव, कर्म के,उदय से, क्षय से, क्षयोपशम से, इन औपपादिक आदि जीवों की आयु बाहय निमित्त से नहीं
कर्मों के उपशम से अथवा स्वभाव से होता है। उनमें से जीव घटती यह नियम है, तथा इनसे अतिरिक्त शेष जीवों का ऐसा
द्रव्य के भाव उक्त पांचों ही कारणों से होते हैं किन्तु पुदगल कोई नियम नहीं है।
द्रव्य के भाव, कर्मों के उदय से अथवा स्वभाव से उत्पन्न उपरोक्त सूत्र की टीका से यह स्पष्ट ध्वनित होता है होते हैं। शेष चार द्रव्यों के भाव स्वभाव से ही उत्पन्न होते कि सूक्ष्म निगोदिया जीवों का भी अकालमरण संभव है। पं. रतनचन्द मुख्तार व्यक्तित्व एवं कृतित्व ग्रंथ में पृष्ठ 558 पर
2.जीवेसु पंचभावाणमुवलंभा । ण च सेसदव्वेसु पंचभावा मुख्तार साहब ने लिखा है कि 'भय तथा संक्लेश आदि के
अत्थि,पोग्गलदव्वेसु ओदइयपारिणामियाणं दोण्हं चेव कारण सूक्ष्म जीवों का भी अकालमरण संभव है।'
भावणमुवलंभा, धम्माधम्मकालागासदव्वेसु एक्कस्स प्रश्नकर्ता- सौ. ज्योति लुहाड़े, कोपरगाँव
पारिणामियभावस्सेवुवलंभा (धवला पु. 5, पृ. 186) 2.जिज्ञासा- हर गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त है तो ___अर्थ- जीवों में पांचों भाव पाये जाते हैं, किन्तु शेष चतुर्थ गुणस्थानवर्ती क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव, जो देवों में 33 व्यों में तो पाँच भाव नहीं है क्योंकि पाल सागर आयु भोगता है, उसके साथ कैसे घटेगा?
औदयिक और पारिणामिक इन दोनों ही भावों की उपलब्धि समाधान- आपने किस ग्रंथ में इसप्रकार पढ़ा है कि होती है, और धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और हर गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त है? यह ठीक नहीं है, सच | काल द्रव्यों में केवल एक पारिणामिक भाव ही पाया जाता तो यह है कि पहले, चौथे, पांचवें तथा तेरहवें गुणस्थान को छोड़कर शेष गुणस्थानों का उत्कृष्ट एवं जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि पुद्गल में भाव कर्म के है। इन चार गुणस्थानों का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है पर | उदय से जो फलदान शक्ति आ जाती है वह उसका औदयिक उत्कृष्ट से निम्न प्रकार है
भाव है तथा पाँचों अजीव द्रव्यों में जो अस्तित्व, वस्तुत्व 1.प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान- अभव्य अथवा अभव्य | आदि गण पाये जाते हैं वे पारिणामिक भाव हैं। सम भव्य दूरानुदूरभव्य की अपेक्षा अनन्तानन्त काल है।
पारिणामिक भाव के संबंध में सर्वार्थसिद्धि पैरा 269 में 2.चतुर्थ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान- अन्तर्मुहूर्त कम | तत्वार्थ सूत्र अध्याय-2 के 8वें सूत्र की टीका में इस प्रकार एक करोड़ पूर्व 33 सागर।
कहा है- "शंका-अस्तित्व, नित्यत्व और प्रदेशत्व आदि भी 3.पंचम देशविरत गुणस्थान- कुछ कम एक करोड़पूर्व। भाव हैं उनका इस सूत्र में ग्रहण करना चाहिए?
4.तेरहवां सयोगके वली गुणस्थान- आठ वर्ष समाधान- अलग से उनके ग्रहण करने का कोई काम अन्तर्मुहुर्तकम एक करोड़पूर्व।
नहीं, क्योंकि उनका ग्रहण किया ही है। शंका-कैसे? समाधान
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क्योंकि सूत्र में आए हुए च शब्द से उनका समुच्चय हो जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि तत्त्वार्थसूत्र अध्याय -2, सूत्र 7 'जीवभव्याभव्यत्वानि च' इसमें जो च शब्द दिया है उससे अस्तित्व, वस्तुत्व आदि पारिणामिक भाव हैं, उनको ग्रहण कर लेना चाहिए। इन अस्तित्व आदि गुणों के पारिणामिक भाव होते हुए भी सूत्र में गिनती में न लेने का कारण यह है कि यह जीव में पाये जाने वाले असाधारण भाव नहीं हैं। बल्कि साधारण भाव हैं, क्योंकि अजीव में भी पाये जाते हैं। निष्कर्ष यह है कि जीव में पांचों भाव, पुद्गल में औदयिक व पारणामिक ये दो भाव तथा धर्म, अधर्म, आकाश, काल में केवल पारिणामिक भाव पाया जाता है।
जिज्ञासा- जब बारहवें स्वर्ग से ऊपर के देव नीचे नहीं जाते, तो सीता के जीव ने नरक में जाकर लक्ष्मण आदि को उपदेश कैसे दिया ?
समाधान- यह सत्य है कि 12वें स्वर्ग से ऊपर के देव मध्य लोक तक तो आते हैं, पर अधोलोक में नहीं जाते। तत्वार्थसूत्र अध्याय - 1, सूत्र - 8 की टीका में पैरा-85 के तत्वार्थ- वृत्ति विशेषताओं में आचार्य प्रभाचन्द लिखते हैं कि "शंका - विहार की अपेक्षा 8 राजू स्पर्श क्यों नहीं कहा?
समाधान - ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए क्योंकि शुल्क लेश्या वाले देवों का अधोलोक में विहार नहीं होता ।
आगम में दो प्रकार से कथन पाया जाता है 1. साधारण 2. विशेष से । अतः इस कथन को हमें इस प्रकार ग्रहण करना चाहिए कि साधारणतया 12वें स्वर्ग से ऊपर के देवों का अधोलोक गमन नहीं पाया जाता परन्तु विशेष रूप से क्वचित् कदाचित् पाया भी जाता है। जैसे सर्वार्थसिद्धि में चतुर्थ गुणस्थान से ऊपर सप्तम गुणस्थान तक केवल तीन शुभ लेश्या ही कही गई हैं। परन्तु तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9, सूत्र 47 की टीका करते हुए पुनः वकुश और प्रतिसेवना कुशील भावलिंगी साधुओं के छहों लेश्या कही गई हैं। इस विषय को भी हमें साधारण तथा विशेष कथन मानकर स्वीकार करना चाहिए।
प्रश्नकर्ता श्री कामताप्रसाद, मुजफ्फरनगर । जिज्ञासा - राजा श्रेणिक की मृत्यु को अकाल मरण माना जाए या नहीं?
जैसा कि श्री धवला पुस्तक 10, पृष्ठ 237 पर कहा है"परभवि आउए बद्धे पच्छा भुंजमाणाउअस्स कदलीघादो णत्थि जहासरूवेण चैव वेदेदित्ति "
अर्थ - परभव संबंधी आयु के बंधने के पश्चात भुज्यमान आयु का कदलीघात नहीं होता, किन्तु वह जितनी थी उतनी
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प्रश्नकर्ता - ब्र. रविन्द्र भैय्याजी ।
जिज्ञासा क्या विदेह क्षेत्र के जिनालयों में क्षेत्रपाल आदि की मूर्तियां होती हैं ?
समाधान- श्री सिद्धान्तसार दीपक अधिकार - 8, श्लोक नं. 147-151 में इस प्रकार कहा गया है - "विदेहक्षेत्रस्थ देशों के सर्व नगरों एवं ग्रामों आदि में मणिमय और स्वर्णमय जिन चैत्यालयों की पंक्तियां हैं। वे जिनमन्दिर उन्नत और प्रकाशमान तोरणों से युक्त रत्नमय सहस्त्रों जिन बिम्बों से भरे हुए और रत्नमय उपकरणों से परिपूर्ण हैं, वहां कहीं भी कुदेवालय नहीं हैं। (147-148) वहां पर मुनष्यों और देवगणों से पूजित और वन्दित तथा प्रकाशमान दीप्ति से युक्त जिनेन्द्र भगवान की दिव्यमूर्तियाँ ही प्रचुर मात्रा में हैं, नीच देवों की मूर्तियां नहीं हैं। (149) वहां उत्पन्न होने वाले
समाधान- राजा श्रेणिक ने मरण से पूर्व नरकायु का बंध कर लिया था । आगम के अनुसार परभव संबंधी आयु का बंध कर लेने वाले जीवों का अकालमरण नहीं होता है। प्रवीण समस्त अभ्युदय सुख एवं अन्य समस्त सर्व अर्थ की
सिद्धि के लिये नाना प्रकार की पूजनविधि से जिनेन्द्र भगवान को ही पूजते हैं (150) विवाह एवं जन्म आदि कार्यों में तथा अन्य मंगल कार्यों में एक परमेष्ठी अर्थात अर्हन्त, सिद्ध आदि का ही पूजन होता है, क्षेत्रपाल आदि का नहीं। (151)
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का ही वेदन करता है ।
अतः राजा श्रेणिक का अकालमण नहीं हुआ ।
जिज्ञासा सभी मुक्त जीवों की गति मोड़े रहित सीधी होती है फिर क्या समुद्र एवं पर्वतों के ऊपर सिद्धालय में स्थान खाली होगा?
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समाधान आगम में संहरण सिद्धों का वर्णन पाया जाता है। (सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ 374) जिन मुनिराजों को पूर्व बैर वश देव, ध्यान करते हुए आकाश में ले जाते हैं और ऊपर से किसी भी पर्वत या समुद्र के ऊपर छोड़ देते हैं और वे मुनिराज पहाड़ या समुद्र की ओर आते-आते बीच में ही अथवा वहां गिरकर मोक्ष प्राप्त करते हैं वे संहरण सिद्ध कहलाते हैं। ऐसे संहरण सिद्ध सभी समुद्र, पर्वत आदि से होते हैं और उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के सब समयों में होते हैं। (राजवार्तिक अध्याय - 10, सूत्र - 9 टीका ) अत : 45 लाख योजन व्यास वाले समस्त मनुष्य लोक के ऊपर सिद्धालय में एक भी प्रदेश ऐसा नहीं है जहाँ सिद्ध भगवान विराजमान न
। यहाँ यह भी जानना चाहिए कि तिलोयपण्णत्ति अधिकार9, गाथा - 15 के अनुसार अर्थ मनुष्य लोक प्रमाण स्थित तनु वात वलय के उपरिम भाग में सब सिद्धों के सिर सदृश होते हैं । अधस्तन भाग में कोई विसदृश होते हैं । अर्थातकेवल ज्ञान प्राप्ति से पूर्व उन मुनिराज का शरीर किसी भी आसन में क्यों न हो, सिद्ध अवस्था में तो सभी मुक्त आत्माओं के सिर तनु वातवलय के अंतिम भाग को समान रूप से स्पर्श करते हुए होते हैं ।
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मध्यप्रदेश अल्पसंख्यक आयोग
ई-ब्लाक, पुराना सचिवालय, भोपाल
अरुण जैन सदस्य
म.प्र.रा.अ.आ./2004/977 दिनांक 29-04-04
प्रति,
माननीय श्री नरेन्द्र मोदी जी मुख्यमंत्री गुजरात राज्य गांधी नगर, अहमदाबाद
विषय : मध्यप्रदेश राज्य अल्पसंख्यक आयोग द्वारा गुजरात के जूनागढ़ पर विराजमान 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ
भगवान की निर्वाण भूमि गिरनार जी की पाँचवी एवं चौथी टोक के मूलस्वरूप को परिवर्तित करने की कुचेष्टा एवं अवैध निर्माण को तत्काल हटाने हेतु ।
देश में गुजरात राज्य के जूनागढ़ की पर्वत श्रृंखला पर विराजमान तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ का निर्वाण स्थल "गिरनार" दिगम्बर जैन समुदाय का एक परम पावन पवित्र धार्मिक स्थल है। पूरी पर्वत माला की विभिन्न टोंकों (शिखरों) का अपना-अपना महत्व है, जो उनकी धार्मिक भावनाओं एवं श्रद्धा का द्योतक है। जैन समुदाय इस पवित्र स्थल में विगत सहस्त्राब्दियों से अपने आराध्य 22वें तीर्थकर भगवान नेमिनाथ का पूजन अर्चन, पूजा पाठ एवं धार्मिक अनुष्ठान इत्यादि सम्पन्न करते आ रहे हैं, इतिहास के पन्ने इस बात की पुष्टि करते हैं।
स्वतंत्र भारत में कभी भी किसी ने किसी अन्य धर्म के प्रति या उनके पवित्र धार्मिक स्थलों के साथ छेड़खानी या दुर्भावना नहीं रखी है। सारा विश्व जानता है कि हमारा देश पूर्ण रूपेण एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है
और हमारे इस गौरव को बनाए रखने की सम्पूर्ण जिम्मेदारी देश के प्रत्येक नागरिक की तथा शासन प्रशासन की है, इस पवित्र स्थल में सेवा-अर्चना आदि दैनिक धार्मिक कार्यों का प्रबंध जैनसमुदाय के धर्मावलम्बी बंधु ही करते आ रहे हैं। यहाँ लाखों धर्मावलम्बी पात्र सेवा एवं दर्शनार्थ देश-विदेश के कोने-कोने से प्रतिवर्ष आते रहते हैं।
कुछ समय पूर्व से अवांछित तत्वों ने इस क्षेत्र की शांति भंग कर रखी है। वे इस जैन तीर्थ को अपने लिए सर्वदा सुरक्षित क्षेत्र मानकर तरह-तरह की भ्रांतियां फैलाकर, जन समुदाय को भ्रमित कर जैन धर्मावलम्बियों की इस प्राचीन धरोहर के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। यहाँ तक वे भगवान की जयकार भी नहीं लगाने देते, जिससे दुर्भावना पनप रही है और धर्मावलम्बी लोग एक दूसरे धर्म के प्रति दुर्व्यवहार पाल रहे हैं, शांति व्यवस्था भंग हो गई है, और चारों ओर भय का वातवरण निर्मित हो गया है। यही नहीं उनके हौसलों ने इस क्षेत्र को दत्तात्रेय टोंक की नवीन संज्ञा देकर उसे इस नाम से प्रचलित कर रहे हैं, जो सर्वथा मिथ्या है, गलत है उक्त कथित पर्वत माला प्राचीन काल से ही जैन समुदाय का उपासना स्थल रहा है वर्तमान में है और भविष्य में भी रहेगा। इस प्राचीन सम्पदा और पुरातत्व की अपनी अहमियत है पावन एवं वन्दनीय है। शासन पर इन्हें सुरक्षित रखने का दायित्व है। इन स्थलों का संरक्षण करना पुरातत्व विभाग की पूर्ण जिम्मेदारी है। दुर्भावनापूर्वक वैदिक धर्मावलम्बियों द्वारा वेद विहित पद्धति से पूजा पाठ करना एवं जैन समुदाय के तीर्थ यात्रियों से अभद्रता एवं दुर्व्यवहार किया जाता है, इसके पीछे निश्चय ही अन्य समाज के उन कद्दावर व्यक्तियों का हाथ है जो इस प्रकार के तत्वों को सरंक्षण देकर राज्य के राजनैतिक क्षेत्र में अपनी विशेष पहचान बनाए रखना चाहते हैं।
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वैदिक रीति से पूजा पाठ आदि कराने का ठेका तथाकथित कुछ पंडों के हाथों में है, ठीक वैसे ही जैसे प्रयाग या काशी तीर्थ यात्रा हेतु आए यात्रियों को उनके दलाल अपने साथ में ले जाकर यात्रा कराते हैं असामाजिक तत्वों ने इस तीर्थ क्षेत्र में अतिक्रमण कर आवास इत्यादि भी निर्मित कर लिए हैं जो पूर्णत: अवैध निर्माण है। शासन का ध्यान विगत कई वर्षों से जैन समुदाय द्वारा इस ओर लगातार आकर्षित भी किया गया है, किन्तु आज तक उचित कार्यवाही उपेक्षित है, गौरतलब है कि गुजरात राज्य का यह क्षेत्र शासन के पुरातत्व विभाग के अधीन है तथा इसके संरक्षण का पूर्ण दायित्व पुरातत्व विभाग का भी है।
पर्वत माला पर जैन धर्मावलम्बी यात्रियों को अपने धार्मिक स्थल पर धार्मिक क्रियाओं अनष्ठान इत्यादि करने के लिए अवरोध उत्पन्न करना एक सामान्य बात हो गई है वे उनकी पूजा अर्चना में भी वि करते हैं साथ ही भगवान की जय-जयकार भी नहीं करने देते जो सर्वथा निंदनीय है, खेदजनक है।
पूरे देश में सर्वविदित है कि गिरनार सिद्ध क्षेत्र जैन समुदाय के 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ भगवान की निर्वाण भमि है और ये धर्मावलम्बी अपने आराध्य इष्ट की पजा अर्चना एवं रखरखाव अपने धार्मिक एवं सामाजिक रीति रिवाजों के अनुसार अनादि काल से करते आ रहे हैं, ठीक उसी प्रकार जैसा की देश के अपने अन्य तीर्थक्षेत्रों का जैन समुदाय करता आ रहा है।
लगभग आठ दशक पूर्व पाँचवीं टोंक का जीर्णोद्धार इस क्षेत्र के संभ्रान्त निवासी "बंडी कारखाना वालों" दिगम्बर जैन धर्मावलम्बी परिवार द्वारा कराया गया था। दुर्भाग्यवश करीब 20-22 वर्ष पूर्व यहीं टोंक (छतरी) बिजली गिर जाने के कारण पुनः छतिग्रस्त हुई। संयोग की बात है कि पुनः वही धर्मावलम्बी परिवार इसका जीर्णोद्धार करवा कर पुण्य लाभ लेना चाह रहा है। जैन धर्मायतन में छतरी बनाने बनवाने की अपनी एक रीति है जो पवित्र भावना एवं श्रद्धा का प्रतीक है। जिसे पूर्ण धार्मिक अनुष्ठानों द्वारा सम्पन्न किया जाता है, जिनमें धर्मानुसार वर्जित निर्माण वस्तुओं का उपयोग भी नहीं किया जाता। इस धार्मिक भावना को ध्यान में रख वहाँ की प्रतिनिधि संस्था ने स्थानीय प्रशासन से इसके जीर्णोद्धार (पुनःनिर्माण) रखरखाव किए जाने हेतु उन्हें आज्ञा दी जाए इस हेतु निवेदन किया है किन्तु आज तक यह आज्ञा जैन समाज को नहीं मिली। वहीं इन अवांछित अन्य लोगों ने कुछ माह पूर्व इसके चारों ओर अवैध निर्माण कार्य चालू कर दिया जिसकी सूचना भी स्थानीय प्रशासन को समाज द्वारा दी गई बाद में न्यायालय द्वारा उस पर रोक लगाने थाने में (एफआईआर) हेतु पुरातत्व विभाग से निवेदन भी किया किन्तु जैन तीर्थ प्रतिनिधि संस्था की इस पहल पर कोई भी कार्यवाही आज तक नहीं की गई, जो देश के मूलभूत संवैधानिक अधिकारों की खुली अवहेलना का प्रतीक है। इस तरह के गैर कानूनी कार्यों को शासन द्वारा अनदेखा करना, सार्वजनिक हित में अशांति फैलाने और अवांछित तत्वों को प्रोत्साहन देने में भागीदार बनने के समान है। जिसकी निंदनीय भर्त्सना की जानी चाहिए एवं जिम्मेदार अधिकारियों पर इस गैर जिम्मेदाराना बर्ताव की न्यायोचित प्रतिक्रिया भी होनी चाहिए। ___ यदि 350 वर्ष का राम मंदिर या 800 वर्ष पूर्व ध्वस्त सोमनाथ मंदिर का पुनः निर्माण एक समुदाय की धार्मिक आस्था का प्रमाण है तो जैन समुदाय की आस्था और धार्मिक भावना भी तो उसी समान सम्मान की अधिकारी है। मंदिर स्थल आखिर मंदिर स्थल ही रहेगा। धर्मस्थलों को सुरक्षित रखने जिससे उस समुदाय के धर्मावलम्बियों की धार्मिक भावनाओं को ठेस न पहुँचे इसका संवैधानिक दायित्व भारतीय संविधान में शासन
का है। ___स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जिन्होंने देश के स्वतंत्रता समर में बलिदान दिए है, उन सभी को यथोचित सम्मान
और समान संवैधानिक अधिकार प्राप्त हो, इस सामाजिक सार्वजनिक मूलभूत आवश्यकता को ध्यान में रख भारतीय संविधान के कर्णधारों ने देश के अल्पसंख्यक समुदायों के संवैधानिक अधिकारों को सुरक्षित रखने के प्रावधान एवं उनके संरक्षण को प्राथमिकता के अनुक्रम में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 30 में समाहित कर उन समुदायों को एक संवैधानिक कवच बिना कोई भेद भाव के रखा है, उन्हें अपनी भाषा संस्कृति की रक्षा सुरक्षा का भी पूर्ण अधिकार है।
भारतीय संविधान के उपासना स्थल विशेष उपबंध अधिनियम 1991 को अधिनियम संस्था पर 18-09
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1991 (42 ऑफ 18-09- 1991) के तहत् किसी भी उपासना स्थल के धार्मिक स्वरूप को बनाए रखने से स्पष्ट निर्देश है। उपरोक्त इस अधिनियम का सीधा उल्लंघन है तथा अधिनियम की धारा 6 (3) के अधीन एक दंडनीय अपराध है। ____ हमारे संविधान में हमारी पुरातन धरोहर को भी सुरक्षित रखने का ताकि उसके स्वरूप को कोई हानि न हो इसका भी पूरा ध्यान रखा है। संविधान में पुरातत्व स्थलों के रखरखाव इत्यादि हेतु भी सन 1958 में एक अधिनियम बनाया है, जिसकी धारा (19) एवं धारा (20)के तहत किसी भी व्यक्ति, समुदाय को देश के पुरातन महत्व के स्थानों पर किसी भी तरह का बदलाव- खनन इत्यादि करना न केवल वर्जित है अपितु दंडनीय अपराध भी है।
वर्तमान परिस्थितियाँ इस बात का प्रमाण है कि स्थानीय- शासन गिरनार पर्वत स्थित जैन धर्मावलम्बियों के इस पुरातन धर्मस्थल पर इन संवैधानिक नियमों अधिनियमों की पात्रता की अवहेलना कर रही है। श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ संरक्षिणी महासभा के संलग्न छाया प्रतियों से यह बात स्पष्ट है कि प्रशासन वास्तविकता से अनभिज्ञ बन रहा है, जो विश्वसनीय प्रतीत नहीं होती। ___ क्या राष्ट्र की अखंडता एकता और धर्मनिरपेक्षता की बलि पर हम तब चेतेंगे जब बाबरी मस्जिद या गोधरा जैसी निंदनीय घटनाएं हो जाएगी, परिस्थितियाँ विस्फोटक हो, उससे पहले जनहित में, राष्ट्रहित में, शासन को यथोचित कदम उठाने होंगें तथा पूर्ण निष्कर्ष निकलने तक स्थितियाँ यथावत रखनी होगी। ___ जैन धर्म में अनादिकाल से अकाट्य प्रमाणिक प्रमाण जो इसके अति प्राचीन होने की पुष्टी करते है। ऐसे में 22वें तीर्थकर नेमिनाथ भगवान की निर्वाण भूमि जूनागढ़ गिरनार पर्वत स्थित पाँचवी टोंक एवं चौथी टोंक के मूलभूत स्वरूप के परिवर्तन की अनाधिकृत चेष्टा, क्या अल्पसंख्यक जैन समुदाय के साथ अनुचित असंवैधानिक प्रतीत नहीं होती? ____ अहिंसा परमो:धर्म के अनुयायी शांति प्रिय जैन समुदाय को देश में गौरव और प्रतिष्ठा के साथ तथा अपने धार्मिक अस्तित्व एवं धर्मस्थलों को सम्मानपूर्वक एवं श्रद्धापूर्वक बनाए रखने का अधिकार प्राप्त है। गिरनार पर्वत पर होने वाले इस निंदनीय कार्य को एवं इसके मूलभूत स्वरूप को बदलने की कुचेष्टा पर अविलम्ब नियंत्रण एवं रोक लगा उसे यथावत स्थिति में रखे रहने का तत्वरित आदेश दिया जाए एवं जो छतरी गिर गई है उसे जैन धर्मावलम्बी प्रतिनिधि संस्था द्वारा धार्मिक रीति रिवाज से उसके जीर्णोद्वार के आदेश भी दिए जाए ताकि पुरातन महत्व की धरोहर सुरक्षित बनी रहे। उक्त कार्यवाही से भारतीय गणतंत्र की संवैधानिकता पर उठ रहे अविश्वास को विराम मिलेगा। जो राष्ट्र हित एवं देश की अखंडता के लिए सर्वोपरि है।
आयोग की अनुशंसा मध्यप्रदेश राज्य अल्पसंख्यक आयोग जैन समुदाय की धार्मिक भावनाओं एवं आस्थाओं को दृष्टिगत रखते हुए गुजरात राज्य में जूनागढ़ पर्वत माला पर स्थित गिरनार पर्वत पर विराजमान जैन समुदाय के 22 वें तीर्थकर नेमिनाथ भगवान की पांचवी एवं चौथी टोंक के मूलभूत स्वरूप के परिर्वतन करने की कुचेष्टा एवं अनाधिकृत निर्माण कार्यों को तत्काल हटाने की अनुशंसा करता है, तथा समयबद्ध निश्चित सीमा में उसका जीर्णोद्धार,
मरम्मत आदि कराकर जैन समुदाय की प्रतिनिधि संस्था को उनकी प्राचीन धरोहर सुरक्षित करने हेतु यथोचित निर्णय दिए जाने की अनुशंसा करता है, ताकि धर्मावलम्बी बंधुओं की देखरेख में समुदाय अपने धार्मिक अनुष्ठान पूजा अर्चना कर, इस उपासना स्थल के मूलस्वरुप को नष्ट होने से बचा सके।
आपका
153 (अरुण जैन)
सदस्य म.प्र. अल्पसंख्यक आयोग 800, गोल बाजार, जबलपुर - 482002
संलग्न:
यथोपरि पत्र की छायाप्रतियाँ।
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समाचार
राष्ट्रीय जैन प्रतिभा सम्मान समारोह छतरपर। विख्यात जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी के परम शिष्य मनि श्री क्षमासागर जी की प्रेरणा से शरू हआ राष्ट्रीय जैन प्रतिभा सम्मान समारोह इस वर्ष म. प्र. के अशोकनगर (गुना) में 23 व 24 अक्टूबर 04 को आयोजित होगा। पूज्य मुनि श्री क्षमासागर जी एवं मुनि श्री भव्य सागर जी के सान्निध्य तथा मैत्री समूह के तत्त्वावधान में आयोजित सम्भवतः देश के इस सबसे बड़े प्रतिभा सम्मान समारोह में शामिल होने हेतु पात्र प्रतिभाओं से एक सितम्बर 04 तक निर्धारित फार्म पर प्रविष्ठियां आमंत्रित की गई हैं।
मैत्री समूह के श्री देवराज जैन एवं डॉ. सुमतिप्रकाश जैन के अनुसार इस वर्ष भी कक्षा 10 वीं में 85 प्रतिशत एवं 12 वीं में 75 प्रतिशत और उससे ज्यादा अंक पाने वाले एवं खेलों में राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करने वाले छात्र-छात्राएं अपनी प्रविष्टियां निर्धारित आवेदन फार्म में भरकर एक सितम्बर 04 तक भेज दें। आवेदनपत्र श्री पी. एल. बैनाड़ा, 1/ 205, प्रोफेसर्स कालोनी, हरीपर्वत, आगरा के पते पर भेजे जा सकते हैं। इस संबंध में विस्तृत जानकारी एवं आवेदन फार्म श्री देवराज जैन, छतरपुर के फोन नं. 241741 , डॉ. सुमतिप्रकाश जैन, महाराजा कालेज, छतरपुर, फोन नं. 241386 अथवा श्री पी. एल. बैनाड़ा आगरा के फोन नं. 9837025087 से प्राप्त किए जा सकते हैं। उल्लेखनीय है कि वैज्ञानिक प्रबंधकीय कौशल के लिए विख्यात इस प्रतिभा सम्मान समारोह का शुभारंभ वर्ष 2001 में शिवपुरी (म.प्र.) में हुआ था। वर्ष 2002 में यह आयोजन जयपुर एवं वर्ष 2003 में रामगंज मण्डी (कोटा) में ऐतिहासिक सफलता के साथ सम्पन्न हुआ था। इन तीनों समारोहों में छतरपुर जिले की अनेक प्रतिभाएं सम्मानित हो चुकी हैं।
उल्लेखनीय है कि इस भव्य समारोह में छतरपुर से श्री प्रदीप जैन, इजि. सुनील जैन व राजेश वडकुल मैत्री समूह से अपनी सक्रिय भूमिका निभाते आ रहे हैं।
प्रेषक - डॉ. सुमतिप्रकाश जैन, बेनीगंज, छतरपुर (म.प्र.)
संस्थान-समाचार
किया गया। इसमें सुबह सामूहिक पूजन प्रात: 8.00 से आपको सूचित करते हुए बड़ा हर्ष हो रहा है कि सांगानेर | 10.30 दोपहर 2.30 से 5.00 एवं सायं 7.30 से 10.00 की पावन-पुनीत धरा पर परम पूज्य आ. विद्यासागर जी | बजे तक समयसार, तत्त्वार्थसूत्र, छहढाला, बालबोधादि महाराज के मंगल आशीर्वाद एवं मनिपंगव 108 श्री |
की कक्षाएं चलती थी। स्वयं बैनाडा जी ने समयसार का सधासागर जी महाराज की पावन प्रेरणा से 1996 में संस्थापित अध्यापन कार्य कराया जिसमें बड़ी संख्या में स्वाध्यायश्री दिग. जैन श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर के सत्र 2003-- | प्रेमियों ने भाग लिया। संध्याकालीन सत्र में सांगानेर से 2004 में विविध कक्षाओं की परीक्षा में सम्मिलित सभी पधारे विद्वानों के प्रवचनों से साधर्मियों को मार्गदर्शन मिला। 130 छात्रों ने उत्तमश्रेणी से परीक्षा-परिणाम शत-प्रतिशत तदनन्तर बैनाड़ा जी द्वारा किया गया सामायिक-पाठ का रहा है। क्रमश: कनिष्ठोपाध्याय (11)में अंकित जैन सवाई अर्थ एवं जिज्ञासा-समाधान समूचे शिविर का आकर्षण माधोपुर, वरिष्ठोपाध्याय (12) में, सुनील अग्रवाल | तथा ज्ञानवर्धक रहा। सम्पूर्ण शिविर में लगभग 500 टोडारायसिंह, शास्त्री प्रथम वर्ष (बीए) में आशीष जैन | शिविरार्थियों ने भाग लिया। शिविर के उत्साह का पता इसी पथरिया, शास्त्री-द्वितीय वर्ष में सोनल जैन दिगौडा, शास्त्री से लगता है कि नितिन दादा आदि समाज के प्रतिष्ठित अंतिम वर्ष में पलक गोयल कटनी एवं आचार्य प्रथम -वर्ष | व्यक्तियों ने अगले तीन वर्षों तक शिविर लगाने का अनुरोध (एमए) में मनोज जैन भगवां ने प्रथम स्थान प्राप्त किया।। बैनाड़ा जी से किया।
ग्रीष्मकालीन अवकाश में संस्थान के छात्रों द्वारा विविध 17 मई से 27 मई 2004 तक बारामती (महा.) शिविर स्थानों पर शिविर आयोजित कर धर्म-प्रभावना की गई। भी बैनाड़ा जी के तत्त्वावधान में सम्पन्न हुआ। यहां पर इनमें पं. श्री रतनलालजी बैनाडा (अधिष्ठाता-श्रमण-संस्कृति प्रातः 7.00 से 8.00 तक एक विशेष कक्षा लगाई गई संस्थान सांगानेर) के तत्वाधान में महाराष्ट्र के विविध- | जिसमें वे सभी साधर्मी-भाई आते थे जो किसी कार्यवश स्थानों पर धर्म-सरिता प्रवाहित की गई। इसके अन्तर्गत 02 | पूरा दिन व्यस्त रहते थे। इसमें श्री पी. सी. पहाडिया जी ने मई से 16 मई 2004 तक कोपरगांव में शिविर आयोजित | बड़ी सरल रीति से उनका जैन धर्म का प्राथमिक ज्ञान
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कराया। यहां पर भी समयसारादि की कक्षाएं पूर्ववत लगी। परीक्षा में सम्मिलित हुए। इस शिविर में 14 स्थानीय विद्वानों शिविर में सभी का बहुत उत्साह था। लगभग 350 ने एवं 12 संस्थान-सांगानेर के विद्वान छात्रों ने अध्यापन शिविरार्थियों ने इस शिविर में भाग लिया।
कार्य कराया। 28 मई से 05 जून 2004 तक करमाला (सोलापुर- ग्रीष्मावकाश में लगाए गए शिविरों के माध्यम से जो महा.) में श्री पी. सी. पहाडिया जी के तत्त्वावधान में धर्म-सरिता प्रवाहित हुई, उसका प्रभाव यह हुआ कि इस शिविर आयोजित किया गया जिसमें 125 शिविरार्थियों ने | वर्ष सत्र 2004-05 में छात्रावास में 41 नूतन छात्रों का भाग लिया। प्रथम बार नगर में आयोजित शिविर में लोगों प्रवेश हुआ।18 जुलाई 2004 को संस्थान द्वारा नवागत छात्र ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। यहां पर तत्त्वार्थसूत्र, छहढ़ाला, प्रवेश समारोह का आयोजन किया गया। इसमें मुख्य अतिथि बालबोध, भक्तामरस्रोतादि कक्षाएँ लगाई गईं।
पद राजस्थान सरकार के शिक्षामंत्री श्री घनश्यामदास जी ___ तदनन्तर बैनाड़ा जी के ही सान्निध्य में गुना (म.प्र.) में | तिवाड़ी , अध्यक्ष पद संस्थान के अध्यक्ष श्री गणेश जी एक विशाल शिविर 07 जून से 17 जून 2004 तक आयोजित राणा, विशिष्ट अतिथि पद श्री मोहनदास अग्रवाल ने सुशोभीत किया गया। जिसमें तत्त्वार्थसूत्र, छहढ़ाला, द्रव्यसंग्रह, | किया। इसके अलावा संस्थान के सभी पदाधिकारीगण एवं रत्नकरण्डकश्रावकाचार, बालबोध, सामायिक पाठ एवं | गणमान्य जन भी पधारे। इस अवसर पर छात्रों द्वारा सांस्कृतिक जिज्ञासा-समाधान इत्यादि कक्षाएं लगाई गई। शिविर के कार्यक्रम पेश किए गए। नूतन छात्रों ने अपने अनुभव को प्रति लोगों का उत्साह दर्शनीय था। बालबोध की विविध भी सनाया। संस्थान के उपाधिष्ठाता भी राजमल बेगस्या जी कक्षाओं में लगभग 500 बच्चों ने भाग लिया। कुल शिविरार्थी | ने नवागत सभी छात्रों के लिए श्रमण संस्कृति रक्षार्थ प्रतिज्ञा संख्या भी 110 थी। गुना जैन समाज के अध्यक्ष पवन | भी दिलवाई। अन्त में मुख्य अतिथि महोदय ने अपने कुमार जैन साहब ने स्वयं तत्त्वार्थसूत्र की कक्षा में भाग | उद्बोधन में कहा कि श्रमण-संस्कृति एवं वैदिक संस्कृति लिया और अपने वक्तव्य में अंतिम दिन कहा कि इतना | विश्व की दो प्राचीन संस्कृति हैं, अनादिनिधन हैं। हमारा अच्छा शिविर गुना नगर में पहले कभी नहीं लगा। इस | देश जो जगदगुरु के नाम से विश्वविख्यात है इसमें यदि शिविर में मुनि श्री 108 प्रशान्तसागर जी एवं मुनि श्री 108 | कुछ है तो मुनि, साधु, संतों का समागम है। ऐसी अजस्र निर्वेगसागर जी का भी मंगलसान्निध्य प्राप्त हुआ। प्रवाहमान संस्कृति एवं संस्कृत के रक्षार्थ जो यह संस्थान
24 मई से 01 जून 2004 तक अमजेर (राज.) के | खोला गया है । यह जैनियों के लिए ही नहीं, राजस्थान विभिन्न सात आंचलों में भी पं. श्री वीरेन्द्र शास्त्री हीरापुर | और भारत-वर्ष के लिए भी गौरव की बात है। मैंने अपने के संयोजन में संस्थान द्वारा शिविर लगाया गया जिसमें | जीवनकाल में इतना सुन्दर संस्थान अन्यत्र नहीं देखा। लगभग 1000 शिविरार्थियों ने भाग लिया। यह शिविर | समारोह का सफल संचालन श्री राकेश जी (संस्कृत महिला-परिषद अजमेर ने आयोजित किया। जिसमें सभी व्याख्याता) ने किया। ने बड़ी तन्मयता से भाग लिया।
संस्थान के छात्र धर्म प्रचारक के अलावा सामाजिक __05 जून से 15 जून 2004 तक बुन्देलखण्ड की पावन | कार्य भी करते हैं। इसके अन्तर्गत 21 जुलाई 2004 को धरा पर 27 स्थानों पर उपा. ज्ञानसागर जी की पावन प्रेरणा | 'विद्याविनोद काला मेमोरियल ट्रस्ट' के लिए संस्थान सांगानेर से आयोजित श्रुतसंवर्द्धन ज्ञान संस्कार प्रशिक्षिण शिविरों में | के 11 छात्र एवं अध्यापकों ने उनकी पुण्यतिथि पर श्री संस्थान के 20 विद्वान छात्रों ने विविध स्थानों पर धर्म प्रचार | महावीर कैंसर अस्पताल जयपुर में रक्तदान देकर अभयदान किया। जिसमें लगभग 11,000 शिविरार्थियों ने भाग लिया। का सराहनीय कार्य किया।
पं. मनोज शास्त्री ____ 19 मई से 28 मई 2004 तक जयपुर के 23 प्रांचलों में
मुनिश्री समता सागर जी महाराज द्वारा शिविर आयोजित किए गए। जिसके मुख्य संयोजन श्री
"प्रवचनमाला" रतनलाल नृपत्या जी ने किया। शिविर के मुख्य समन्वयक श्री डा. सनतकुमार जी , सहयोगी समन्वयक ब्र. भरत जी
परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के परम एवं श्रीमती कोकिला सेठी तथा संयोजक श्री सुरेन्द्र पाटनी | आशीर्वाद से इस वर्ष हमारे सिवनी शहर में पूज्य श्री एवं श्री संतोष गोदिका जी थे। इस शिविर में 1537 |
समतासागर जी महाराज एवं ऐलक श्री निश्चयसागर जी शिविरार्थियों ने भाग लिया, जिनमें से 1231 शिविरार्थी
का चातुर्मास स्थापना दि. 04-07-2004 को हो चुकी है। चातुर्मास स्थापना का कार्यक्रम श्री सुमत जैन, भोपाल के
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कर कमलों से सम्पन्न हुआ। चातुर्मास के प्रथम चरण में | प्रवचन-सुधा आदि कृतियों का विमोचन किया गया। यहाँ मुनि श्री समतासागर जी महाराज प्रतिदिन सुबह 8.30 से | उल्लेखनीय है कि मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज का 9.30 तक जागरण प्रवचन माला के माध्यम से 15 दिन | पावन वर्षायोग इस वर्ष विद्यापुरम् रतनबाग, पारले पाईन्ट, तक विभिन्न विषयों पर विस्तार से प्रवचन दे रहे हैं। । सूरत-395007, गुजरात में हो रहा है। प.पू. मुनि श्री सुधासागर जी का पावन वर्षायोग
डा. सुरेन्द्र जैन भारती
साहित्याचार्य (डॉ.) पन्नालाल जैन परमपूज्य दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर जी
संस्थान का शुभारंभ महाराज के योग्यतम सुशिष्य, ज्ञानगंगा के भागीरथ प्राचीन धरोहरों के प्रबल संरक्षक एवं प्रकाशक, पुरातत्त्वविद्,
परम पूज्य आचार्य प्रवर 108 श्री विद्यासागर जी महाराज वास्तुमर्मज्ञ, आध्यात्मिक सन्त पूज्य मुनिपुंगव 108 श्री
का आशीर्वाद प्राप्त कर संस्थान के संस्थापक श्री ब्र. प्रदीप
जैन शास्त्री 'पीयूष' के सानिध्य में संस्कारधानी जबलपुर सुधासागर जी महाराज, पूज्य क्षुल्लक 105 श्री गंभीरसागर
में दिनांक 20 जुलाई 2004 को संजीवनी नगर में जी महाराज, पूज्य क्षुल्लक 105 श्री धैर्यसागर जी महाराज
साहित्याचार्य (डॉ.) पं. पन्नालाल जैन संस्थान का शुभारंभ एवं ब्र. संजय भैया का मंगलमय पावन वर्षायोग विद्यापुरम
किया गया। इस संस्थान में त्यागीव्रती एवं बह्मचारी भाइयों (रतनबाग), श्री 1008 चन्द्रप्रभ दिगम्बर जैन मन्दिर जी के
व समाज के छात्रों को अध्ययन व आवास की सुविधा पास, पारले पोईन्ट, सूरत- 395007 (गुजरात) में सम्पन्न
उपलब्ध कराने की समुचित व्यवस्था की गई है। हो रहा है। सम्पर्क सूत्र-ओमप्रकाश जैन 2226098
राकेश जैन, जबलपुर कमलेश बी. गांधी 9824511816
बच्चों को संस्कारित नहीं किया तो मंदिरों के प.पू. मुनि श्री प्रमाणसागर जी का पावन वर्षायोग
ताले खोलने वाले नहीं मिलेंगे विन्ध्य क्षेत्र की नगरी सतना में पूज्य मुनि श्री प्रमाणसागर
उक्त मार्मिक उद्गार सुप्रसिद्ध प्रतिष्ठाचार्य पं. गुलाबचंद जी महाराज एवं बालब्रह्मचारी श्री अशोक भैया का पावन
'पुष्प' ने अपने अध्यक्षीय भाषण में व्यक्त किए। 'पुष्प' वर्षायोग श्री दयानन्द सरस्वती भवन, अहिंसा चौक सतना,
जी ज्ञानसागर गुरूकुल (बरनावा) के तृतीय स्थापना दिवस (फोन : 507135) में सम्पन्न हो रहा है।
पर आयोजित समारोह में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि श्री अ.भा. दि.जैन विद्वत्परिषद् के तत्त्वावधान में | 'आज गजरथ की नहीं ज्ञानरथ की आवश्यकता है। समारोह 12वीं राष्ट्रीय विद्वत्संगोष्ठी का आयोजन
के प्रारंभ में डॉ. कपूरचंद जैन (खतौली) ने गुरूकुल की
गतिविधियां बताते हुए कहा यह हर्ष का विषय है कि दो सूरत (गुजरात) में परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर
वर्ष की अल्प अवधि में ब्र. अतुल जी ने गुरूकुल का भवन जी महाराज के सुयोग्य शिष्य मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी
तैयार कर लिया आज यहां लगभग 30 विद्यार्थी अध्ययनरत महाराज, क्षुल्लक श्री गम्भीरसागर जी महाराज एवं क्षुल्लक श्री धर्मसागर जी महाराज के पावन सानिध्य एवं श्री अखिल
हैं जिनकी भोजन आदि की व्यवस्था पूर्णतः निशुल्क है। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद के तत्त्वाधान में दि.
डॉ. जयकुमार जैन (मुजफ्फरनगर) ने गुरूकुल के उद्देश्यों
पर प्रकाश डाला। डॉ. ज्योति जैन (खतौली) ने बच्चों को 23 से 25 अक्टूबर 2004 तक त्रिदिवसीय श्रावकाचार
संस्कारित करने की आवश्यकता पर बल दिया। समारोह संग्रह-अनुशीलन राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया
का सफल संचालन ब्र. जय निशांत जी ने किया। है। इस विद्वतसंगोष्ठी के संयोजक डा. शेखरचन्द जैन अहमदाबाद एवं डा. अशोक कुमार जैन लाडनूं तथा त्रि-दिवसीय पाठशाला संगोष्ठी व्यवस्थापक श्री शैलेष कापड़िया सूरत होंगे।
परमपूज्य आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के विद्वत्परिषद् के मन्त्री डा. सुरेन्द्रकुमार जैन के अनुसार | शिष्य मुनि श्री 108 निर्णयसागर जी, मुनि श्री 108 इस संगोष्ठी में देश के ख्याति प्राप्त 55 विद्वानों को आमन्त्रित
अजितसागर जी, ऐलक श्री 105 निर्भयसागर जी महाराज किया गया है। इस अवसर पर श्री अखिल भारतवर्षीय
का सानंद चातुर्मास चल रहा है। मुनिसंघ की प्रेरणा और दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् का वार्षिक अधिवेशन भी संभावित
आशीर्वाद से जैसीनगर (सागर) में प्रथम त्रि-दिवसीय है। संगोष्ठी में मुनिसंघ एवं विद्वानों की उपस्थिति में अध्यात्म | पाठशाला शिक्षक प्रशिक्षण एवं संगोष्ठी आयोजित करने का अमृत कलश, संत गणेश वर्णी चित्रकथा विद्वद-विमर्श,
सकल जैन समाज का भाव हुआ है। जैसीनगर, सागर
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मुनि श्री शान्तिसागर विनयांजलि अष्टक
मुनि श्री आर्जवसागर जी वर्तमान में श्रमण मार्ग के, श्रेष्ठ सु-धारक आप रहे। चौथे युग की चर्या के भी, ज्ञाता उत्तम आप रहे। घोर तपों बहु उपवासों से, कर्मबंध को शिथिल किया। शान्तिश्री के पद कमलों में, मम मन ने यह नमन किया।
जिनके पावन दर्शन पाने, श्रावक दौड़े आते थे। अमृतमय गुरु सदुपदेश से, शान्ति सुधा को पाते थे। त्याग, दया व क्षमाशीलता, गुण जीवन में लाते थे। शान्तिश्री की गौरवता को, सब मिल करके गाते थे।
शूरवीर बन इस भारत की, तीर्थ वंदना जिनने की। सत्य अहिंसा जैन धर्म की, श्रेष्ठ पताका फहरा दी। श्रमण जनों के दर्शन का ये, स्वज यहाँ साकार हुआ। शान्तिश्री का जीवनदर्शन,जन जन का हित दर्श हुआ।
ज्ञानी ध्यानी महाव्रती वे, स्वानुभवी व समधनी थे। पूजा ख्याति प्रलोभनों से, बहुत दूर वे यतिवर थे॥ अहंकार का नाम नहीं था, ओंकार से पूरित थे।
शान्तिश्री जी इस धरती पर, धर्ममार्ग की मूरत थे। सरल वृत्ति का शान्त सरोवर, जिनमें है लहराता था। स्याद्वाद के तट में बँधना, इस जग को सिखलाता था। सभी मतों से बने एकता, धर्मसूत्र हैं बतलाये। जीव मात्र पर करुणा के थे, सबक आपने सिखलाये॥
मिथ्यारूपी अंधकार को, आगम पथ दे दूर किया। सम्यग्दर्शन की किरणों से, मुक्तिमार्ग प्रशस्त किया। वीर जवानों की सेना के, आप रहे आदर्श यति।
महामनीषी महा सु-योगी, बड़े आपकी शुभ कीर्ति ॥ भगवन देश व कुलभूषण के, परम भक्त हैं आप रहे। समाधि लेकर उनके पद में, मरणविजेता आप रहे। संत शिरोमणि महातपोधन, शान्तिसागराचार्य श्री॥ हम सब वंदन करते पद में, हमें मिले वह मुक्तिश्री॥
शान्ति वीर अरु शिवसागर थे, ज्ञान, विद्या के आधार। जिनके कदमों पर चल करके, बना आर्जव' मैं अनगार॥ यही भावना गुरुचरणों में, वन्दन करके शत बार। बने चेतना निर्मल मेरी, पाऊँ मुक्ति समता धार॥
'धर्मभावना' से साभार
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________________ रजि नं.UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003-05 सतना म.प्र. में 'जैन युवा सम्मेलन' संतशिरोमणि परमपूज्य आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के परमप्रभावक शिष्य, तरुणाई के प्रखर वक्ता मुनिश्री 108 प्रमाणसागर जी महाराज के सान्निध्य में जैन युवा सम्मेलन रविवार, 12 सितम्बर 2004 को आयोजित करने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ है, जिसका उद्देश्य समाज की युवाशक्ति को संगठित कर उन्हें दिशा बोध कराना है। इसी तारतम्य में समाज के विभिन्न क्षेत्रों में विशेष योगदान देने वाले पाँच युवाओं को जैन युवा रत्न एवार्ड से सम्मानित किया जायेगा। अत: समाज के सभी नवयुवकों से अनुरोध है कि आप अपनी संस्था के सभी पदाधिकारी एवं सदस्यों की इष्ट मंडली सहित पधारकर युवाशक्ति को जाग्रत करने एवं सामाजिक एकता को बनाये रखने के लिये अधिक से अधिक संख्या में उपस्थित होकर हमें कृतार्थ करें। संयोजक : दीपक जैन मो.9425173802 जैन क्लब भवन, चौक बाजार, सतना 485001 (म.प्र.) फोन : 07672-507135 जैन संस्कृति में आस्था का दुर्लभ उदाहरण आज जब सम्पूर्ण भारत में पश्चिमी सभ्यता सिर पर चढ़ कर बोल रही है, बालकों के जन्मदिनोत्सवों पर केक काटने और 'हेप्पी बर्थ डे टू यू' का विदेशी मन्त्रोच्चार करने का रिवाज आम हो गया है, तब चि. सिद्धार्थ जैन के पाँचवें जन्मदिनोत्सव (8अगस्त 2004) का दृश्य देखकर हृदय को बड़ी शीतलता मिली। शीतलता का कारण था जन्मदिनोत्सव अनुष्ठान में भारतीय एवं जैन संस्कृति के दर्शन होना।। चि. सिद्धार्थ के पिता श्री शरद जैन एवं माता श्रीमती संगीता जैन (स्व. श्री नन्नूमल जी एवं श्रीमती रुक्मिणी देवी के नाती) भोपाल के एक प्रतिष्ठित, सुसंस्कृत श्रेष्ठिकुल के उत्तराधिकारी हैं। कुण्डलपुर के बड़े बाबा और परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के अनन्य भक्त हैं। उनमें भारतीयता एवं जैनत्व के संस्कार कूट-कूट कर भरे हुए हैं। उन्होंने अपने सुपुत्र के जन्मदिवसोत्सव में केक कटवाने की बजाय उसके द्वारा बड़े बाबा एवं आचार्यश्री के चित्रों के समक्ष पाँच दीप प्रज्ज्वलित कराए तथा पुष्पांजलि अर्पित कराते हुए पंचाग नमस्कार करवाया। इसके पश्चात् उन्होंने श्री दिगम्बर जैन अतिशयक्षेत्र कुण्डलपुर एवं भारतवर्षीय दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी मुम्बई को, जिसके वे स्वयं राष्ट्रीय मंत्री है, ग्यारहग्यारह हजार रुपए दान किए। "जिनभाषित' के लिए भी पाँच सौ रुपयों का दान घोषित किया। बालकों के जन्मदिनोत्सव मनाने की यह भारतीय एवं जैन पद्धति समाज के लिए अनुकरणीय है। इसका उदाहरण प्रस्तुत कर समाज को इसकी प्रेरणा देने के लिए हम श्री शरद जी एवं श्रीमती संगीता जी का अभिनन्दन एवं साधुवाद करते हैं / सम्पादक स्वामित्व एवं प्रकाशक, मुद्रक :रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित।