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________________ से ही पद्मने प्रार्थना की- हमें सात दिन के लिए राज्य देकर अपने अन्तःपुर में रहने लगे। बलि ने आतापान गिरि पर कायोत्सर्ग से स्थित मुनियों को बाड़ से घेरकर मण्डप बनाकर यज्ञ करना आरम्भ किया । छोड़े हुए सकोरे तथा बकरे आदि जीवों के कलेवर और धुएँ से मुनियों को मारने के लिए उपद्रव किया। मुनि आभ्यन्तर और बाह्य संन्यास पूर्वक स्थित हो गए (अर्थात् जब तक उपसर्ग दूर नहीं होगा तब तक अन्नजल का त्याग एवं मन में कषायों को शान्त रखते हुए ध्यान करने लगे)। अनन्तर मिथिला नगरी में आधी रात्रि के समय बाहर निकलते हुए श्रुतसागरचन्द्र आचार्य ने श्रवण नक्षत्र को काँपता हुआ देखकर अवधिज्ञान से जानकर कहा- 'महामुनियों के ऊपर महान उपसर्ग हो रहा है।' उसे सुनकर पुष्पदन्त नामक विद्याधर क्षुल्लक ने पूछा- 'भगवन कहाँ पर ? किन मुनियों के ऊपर उपसर्ग हो रहा है?' आचार्य ने कहा- 'हस्तिनापुर में अकंपनाचार्य आदि मुनियों के ऊपर उपसर्ग हो रहा है।' क्षुल्लक ने पूछा 'वह उपसर्ग कैसे नष्ट होगा?' आचार्य ने उत्तर दिया- 'धरणिभूषण पर्वत पर विष्णुकुमार मुनि ठहरे हैं। उन्हें विक्रिया ऋद्धि प्राप्त है, वह उपसर्ग का नाश करेंगे' यह सुनकर क्षुल्लक ने उनके समीप जाकर सब वृत्तान्त सुनाया। विष्णुकुमार (मुनि) 'क्या मुझे विक्रिया ऋद्धि है?' यह विचार कर विक्रिया ऋद्धि के लिए हाथ फैलाया। वह हाथ पर्वत को भेदकर दूर चला गया। अनन्तर विक्रिया ऋद्धि का निर्माण कर हस्तिनापुर जाकर उन्होंने पद्मराज से कहा- 'क्या मुनियों के ऊपर उपसर्ग तुमने कराया है? आपके कुल में किसी ने भी ऐसा नहीं किया' पद्मराज ने कहा- 'क्या करूँ ? पहले इन्हें मैंने वर दे दिया है। ' अनन्तर विष्णुकुमार मुनि ने वामन (बौने) ब्राह्मण का रूप धारण कर दिव्यध्वनि से प्रार्थना की। बलि ने कहा- 'आपको क्या दूँ?' उन्होंने कहा 'तीन डग भूमि दीजिए।' 'हठी ब्राह्मण अन्य बहुत मांगो' इस प्रकार बारम्बार लोगों के द्वारा कहे जाने पर भी वे वही माँगने लगे। हाथ में जल लेने आदि की विधि से तीन पैर भूमि दिए जाने (का संकल्प लिए जाने पर उन्होंने एक पैर मेरु पर रखा, दूसरा पैर मानुषोत्तर पर्वत पर तथा तीसरे पैर से देवविमान आदि में क्षोभ उत्पन्न कर बलि की पीठ पर उस पैर को रखकर बलि को बाँधकर मुनियों के उपसर्ग का निवारण किया। अनन्तर वे चारों मंत्री और पद्म भयवश आकर विष्णु कुमार और अकम्पनाचार्यादि मुनियों के पैरों में पड़ गए। वे मंत्री श्रावक हो गये । व्यन्तर देवों ने विष्णुकुमार की पूजा की ( पृ 29-31) इस प्रकार विष्णुकुमार मुनि ने वात्सल्य भावना से अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनियों के ऊपर किये जा रहे उपसर्ग को दूर करने के बाद प्रायश्चित पूर्वक पुनः दीक्षा धारणकर आत्मसाधना की । इधर आम जनता ने यह प्रतिज्ञा कर रखी थी कि मुनियों के उपसर्ग निवारण होने पर आहार कराने के बाद ही भोजन ग्रहण करेंगे । अतः | अनेक दिनों के उपवास करने वाले उन मुनियों को दूध की सीमियों का हल्का (पथ्य) आहार कराया तथा परस्पर में एक दूसरे की रक्षा के भाव से संकल्पबद्ध हो बन्धन बाँधा, जिसकी पावन स्मृति में आज भी प्रतिवर्ष श्रावक शुक्ल पूर्णिमा (उपसर्ग निवारण दिवस) को रक्षाबन्धन मनाया जाता है। - कालान्तर में यह रक्षाबन्धन पर्व भाई-बहिन के पवित्र प्रेम का प्रतीक, देश रक्षा का प्रतीक, वात्सल्य का प्रतीक पर्व बन गया है। इस दिन बहिनें अपने भाइयों की कलाई पर राखी बाँधने के साथ ही भाई से अपनी आजीवन रक्षा का पुरस्कार पाती हैं। वास्तव में यह पर्व देव -शास्त्र-गुरु ( मुनि) रक्षण, सामाजिक एवं राष्ट्रीय सुरक्षा के रूप में यह सन्देश जन-जन में प्रचारित करता है कि हम सब संकल्पबद्ध एकता के साथ ही आत्मरक्षा कर सकते हैं। इसी दिन यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करने की भी परम्परा है, जिसे रत्नत्रय के प्रतीक स्वरूप श्रावकोचित अष्टमूल गुणों यथा-मद्य ( शराब, भांग, गांजा, चरस ) मांस, मधु ( शहद ) तथा पंच उदुम्बर (बड़, पीपल, पाकर, ऊमर, कठूमर) फलों के त्याग के पालन करने की प्रतिज्ञा के साथ धारण किया जाता है। इस दिन नियम से हमें मुनियों (साधुओं) को प्रथम आहार दान तथा शास्त्र भेंट आदि ज्ञानदान के साथ साधर्मी श्रावकों को वात्सल्यभाव से उपकृत करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only अगस्त 2004 जिन भाषित 3 www.jainelibrary.org
SR No.524288
Book TitleJinabhashita 2004 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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