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________________ एक ओर वे अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनि धन्य हैं, जो घोर कष्टों (उपसर्ग) को सहते हुए भी विरोधियों पर कुपित न होकर उन्हें क्षमा करते हैं । दूसरी ओर वे श्रुतसागर जैसे मुनि धन्य हैं जो गुरु आज्ञा के पालन तथा संघ की रक्षा के लिए स्वयं उपसर्ग झेलते हैं। तीसरी ओर वे विष्णुकुमारमुनि धन्य हैं जो स्वपररक्षा, धर्मरक्षा तथा मुनिरक्षा के भाव से अपनी शक्ति का उपयोग न्याय व धर्म की प्रतिष्ठा में करते हैं तथा जीतने के बाद भी शत्रु के प्रति शत्रुता न रखकर उसे क्षमा कर देते हैं। चौथी ओर वे श्रावक- उनकी गुरुभक्ति धन्य है जो मुनियों के उपसर्गनिवारण तक स्वयं अन्न जल का त्याग कर उपसर्ग दूर करने की प्रार्थना करते हैं। वास्तव में मुनि समाज के लिए दिशानिर्देशक एवं पथप्रदर्शक का कार्य करते हैं, हमें सुयोग प्राप्त इन मुनियों का संरक्षण करते हुए आहारदानादिक देकर स्वयं के जीवन को कृतार्थ करना चाहिए । 4 रक्षा बन्धन पर्व हमें बताता है कि बंधनों से अपनी आत्मा की रक्षा करो। हमारा अध्यात्म कहता है कि हमारे लिए रक्षणीय हमारी आत्मा है, जिसे अहितकर प्रवृत्तियों से निवृत्ति दिलानी है। हमारे लिए अहितकर हैं - विषय और कषाय । कहा भी है। 'आतम के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय' । विषय कषायों से कड़ी आत्मा अपना उद्धार नहीं कर सकती, अतः क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषायों के पाश से आत्मा की रक्षा आवश्यक है। विभावदशा का त्याग कर स्वभाव की ओर उन्मुख होना ही रक्षा बन्धन है। विषय वासनाओं के जाल से मुक्ति के लिए मन पर नियंत्रण स्थापित करना आवश्यक है। हमारा प्रयत्न हो कि हमारा मन इन्द्रियोन्मुख न होकर अतीन्द्रियआत्मा की ओर मुड़े। यही मानव जीवन की सार्थकता है। आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में लिखा है - इन्द्रियाणि न गुप्तानि नाभ्यस्तश्चित्तनिर्जय । न निर्वेदः कृतो मित्र नात्मा दुःखेन भावितः ॥ एवमेवापवर्गाय प्रवृत्तैर्ध्यानसाधने । स्वमेव वञ्चितं मूढैर्लोकद्वयपथच्युतैः ॥ अर्थात् हे मित्र ! जिन्होंने इन्द्रियों को वश में नहीं किया, चित्त को जीतने का अभ्यास नहीं किया, वैराग्य को प्राप्त नहीं हुए, आत्मा को कष्टों से भाया नहीं और वृथा ही मोक्ष हेतु ध्यान में प्रवृत हो गये, उन्होंने अपने को ठगा और इहलोक, परलोक दोनों से च्युत हुए। हमारे हृदय में प्रेम, वात्सल्य, क्षमाशीलता, अहिंसा तथा धर्म (समाज, राष्ट्र, अध्यात्म) की रक्षा के भाव जागृत हों, इसी भावना एवं प्रयत्न के साथ रक्षाबन्धन पर्व मनाना चाहिए । श्रमण तुम्हारी वाणी के अमृत रस का हम पान करें । विषदूर विषमता का होवे, समरस जीवन निर्माण करें संशोधन कर पढ़ने की कृपा करें जुलाई 2004 के 'जिनभाषित' में प्रकाशित 'कर्मसिद्धान्तव्यवस्था से वेदवैषम्य की सिद्धि' नामक लेख में प्रूफरीडिंग में असावधानी के कारण प्रथम अनुच्छेद (पैरा) में कुछ वाक्य त्रुटिपूर्ण हो गये हैं। उक्त वाक्यों को इस प्रकार पढ़ा जाए। "देवों, नारकियों, भोगभूमिजों तथा कर्मभूमि के सम्मूर्च्छनज संज्ञी - असंज्ञी तिर्यंचों और सम्मूर्च्छनज मनुष्यों में द्रव्यवेद और भाववेद समान ही होते हैं ..... किन्तु कर्मभूमि के गर्भज संज्ञी असंज्ञी तिर्यंचों और मनुष्यों में व्यवस्था कुछ भिन्न है । " अगस्त 2004 जिन भाषित डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन एल - 65, न्यू इन्दिरा नगर, बुरहानपुर (म.प्र.) Jain Education International For Private & Personal Use Only संपादक www.jainelibrary.org
SR No.524288
Book TitleJinabhashita 2004 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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