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________________ समाधिमरण के अवसर में मुनिदीक्षा स्व. पं. मिलापचंद कटारिया जब किसी ब्रह्मचारी आदि श्रावक की जिस दिन मृत्यु | को अंतिम समय में मुनि बनने की क्या आवश्यकता है? होने को होती है तो प्रायः आज-कल उसे नग्नलिंग धारण उसका भी लक्ष्य उस वक्त सल्लेखनापूर्वक मरण करने का ही सका गहस्थावस्था का नाम भी बदलकर होना चाहिए न कि मनि बनने का। अपने जीवन में चिरकाल मुनित्व का द्योतक दूसरा ही कोई नाम रखकर पूर्णतः उसे | तक अणुव्रतों और महाव्रतों का पालना भी तभी सफल होता मुनि ही मान लिया जाता है और मृत्यु के बाद उसको उसी है जब समाधिमरण से देहांत हो। ऐसी हालत में मरणकाल नए नाम से पुकारा भी जाता है। परन्तु क्या यह प्रथा वर्तमान | में मुनि दीक्षा लेना निरुपयोगी है। रत्नकरड श्रावकाचार में में ही देखने में आ रही है या पहिले भी थी? और इसका | कहा है किकिसी समीचीन आगम से समर्थन भी होता है या नहीं, इस अंतक्रियाधिकरणं तपःफलं सकलदर्शिनः स्तुवते। पर विचार होना आवश्यक है। यह नहीं हो सकता कि तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम॥2॥ आजकल के साधु स्वेच्छा से जो कुछ कर दें वही प्रमाण अधिकार 5 मान लिया जावे। अर्थ- तपश्चर्या का फल समाधिमरण पर आश्रित है __ अंतिम समय में सावधक्रियाओं को त्याग कर सब परिग्रहों | ऐसा सर्वज्ञ भगवान् कहते हैं। इसलिए अंतसमय में अपनी का छोड देना यह जदी चीज है और मनि बनना जदी चीज | सारी शक्ति समाधिमरण के अनुष्ठान में लगानी चाहिए। है। मुनि बनने के लिए गुरू से दीक्षा लेनी पड़ती है और आदि पुराण में राजा महाबल की कथा में लिखा हैदीक्षा में प्रथम ही लौंच करना जरूरी होता है जिसे आजकल महाबल ने अवधिज्ञानी मुनि से अपनी शेष आयु एक अंतिम समय में मुनि बनने वाले नहीं करते हैं। वे प्राचीन | मास की जानकर समाधिमरण में चित्त लगाया। आठ दिन मर्यादा को भंग करते हैं। मरण के अवसर में मुनि बनने | तक तो उसने घर के चैत्यालय में महापूजा की। तदनंतर वालों को पंच समितियों, षट् आवश्यक, स्थिति, भोजन, | उसने सिद्धवरकूट चैत्यालय जा, वहां सिद्धप्रतिमा की पूजाकर अस्नान, अदंतधावन, आदि मूलगुणों के पालन करने का | सन्यास धारण किया। उसने गुरू की साक्षी से जीवनपर्यंत के अवसर ही नहीं आता है। परीषहों का सहना, तपस्या आदि लिए आहार, पानी, देह की ममता व बाह्याभ्यतंर परिग्रहों का भी उन्हें नहीं करनी पड़ती है। फिर भी उन्हें मुनि मान लेना | त्याग कर दिया। उस वक्त वह मुनि के समान मालूम पड़ता यह तो एक तरह से मुनित्व की विडंबना है। यदि कहो कि | था। उसने प्रायोपगमन सन्यास लिया था। इस प्रकार वह 22 किसी की मुनि दीक्षा लिए बाद दस पांच घंटों में ही सर्पविष दिन तक सल्लेखना विधि में रहकर अंत में प्राण त्यागकर आदि से मृत्यु हो जाए तो क्या वह मुनि नहीं माना जा दूसरे स्वर्ग में ललितांग देव हुआ। सकता? क्योंकि उसको भी मुनि के मूलगुणों के पालने का | इस कथा में भी महाबल के मुनि बनने की बात न अवसर नहीं प्राप्त हुआ है। उत्तर इसका यह है कि उसमें और | लिखकर यही लिखा है कि वह मुनि के समान जान पड़ता इसमें अंतर है। उसको तो यह पता नहीं था कि-मेरी मृत्यु | था। (देखो पर्व 5 का श्लोक 232) आज ही हो जाएगी इसलिए उसके तो मुनि बनते वक्त यह | आचार्य जिनसेन ने आदि पुराण के पर्व 38 लोक 161 में संकल्प रहता है कि-मुझे मूलगुणों का पालन करते हुए | ऐसा लिखा है कि-आचार्य को चाहिए कि वह किसी को परीषहें सहनी हैं एवं तपस्या करके निर्जरा करनी है इसलिए | मुनि दीक्षा देवे तो शुभ मुहूर्त देखकर देवे। अन्यथा उस वह तो मुनि माने जाने के योग्य है किन्तु दूसरा मृत्यु की | आचार्य ही को संघबाह्य कर देना चाहिए। निकटता के वक्त मुनि बनने वाला जब यह देखता है कि-मैं | इस कथन से मृत्यु समय में मुनि दीक्षा देने का स्पष्ट अब मरने ही वाला हूं, यह भोग सामग्री व धन कुटुम्बादि | निषेध सिद्ध होता है। क्योंकि अव्वल तो दीक्षा लेने वाले का सब थोड़ी ही देर में वैसे ही छूट रहे हैं तो इनको मैं ही क्यों | मरण समय होना यही अशुभ है। दूसरे उस दिन सभी को न त्याग दूं जिससे मैं मुनि माना जाने लगूंगा और उससे मेरा | | शुभ मुहूर्त का संयोग मिल जाए यह भी संभव नहीं है। बेड़ा भी पार हो जाए तो इसके सिवा और कल्याण का सरल | अंतसमय में मुनि दीक्षा लेने देने का कथन जैन-शास्त्रों में मार्ग भी क्या हो सकता है? ऐसा विचार कर वह मुनि बनता | कहीं नहीं है। इस विषय का वर्णन शास्त्रों में जिस ढंग से है। इस प्रकार दोनों की परिणति में बड़ा अंतर है। किया है उसका मतलब लोगों ने भ्रम से मुनि दीक्षा लेना दूसरी बात यह है कि - मुनि के भी जब यही बांछा | समझ लिया है। जबकि वैसा मतलब वहां के कथन का रहती है कि उसकी मृत्यु समाधि मरण पूर्वक हो तो श्रावक | निकलता नहीं है। इस प्रकार का वर्णन पं. आशाधरजी कृत अगस्त 2004 जिन भाषित 5 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.524288
Book TitleJinabhashita 2004 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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