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प्राकृतिक चिकित्सा
पवन पानी पृथ्वी, प्रकाश और आकाश पंच तत्व के खेल से, बना जगत का पाश । प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार हमारा शरीर वायु, जल, तेल या अग्नि, पृथ्वी और आकाश रूप पंच तत्व से निर्मित है तथा वे ही नैसर्गिक उपचारों के साधन हैं जिनमें वायुचिकित्सा, जल- चिकित्सा, मिट्टी- चिकित्सा, सूर्यकिरण चिकित्सा तथा आकाश तत्व के प्रयोग शामिल होते हैं।
वायु है वरदान
आइए जानते हैं वायु के बारे में जल को जीवन माना गया है, परन्तु वायु को प्राण कहा गया है। एक मिनट भी यदि हमें वायु न मिले तो हम घबरा उठते हैं, ज्यादा देर तक न मिले तो हमारा प्राणान्त तक हो सकता है। यह प्राणी मात्र का अत्यन्त आवश्यक भोज्य तत्व है। हम लोग दुनिया के सबसे धनवान तथा भाग्यशाली जीव हैं क्योंकि हमारे चारों तरफ से उत्तम शुद्ध वायु हमें आवृत्त किए हुए है। प्रतिदिन हम जितना भोजन करते हैं और जल पीते हैं, उससे सात गुना वायु भक्षण करते हैं । एक आदमी एक मिनिट में 16 से 18 बार तक श्वास लेता है। आक्सीजन से प्रकाश और ताप दोनों प्राप्त होते हैं। स्वास्थ्य प्राप्ति एवं रोग निवारण की दृष्टि से वायु स्नान एक बेजोड़ नैसर्गिक माध्यम है।
वायु स्नान जिस प्रकार घर को स्वच्छ रखने के लिए घर की खिड़कियाँ और झरोखे खोलकर अंदर जाती हवा का प्रवेश आवश्यक है, उसी प्रकार इस शरीर रूपी घर में त्वचा छिद्र (रोमकूप) रुपी झरोखे से होकर ताजी वायु का प्रवेश नित्य होते रहना परमावश्यक है। कपड़ों से सदैव शरीर को लपेटे रहने से त्वचा पीली पड़ जाती है और रोमकूप अकर्मण्य होकर शिथिल पड़ जाते हैं, और बहुत से तो एकदम बंद ही हो जाते हैं। फलस्वरूप कब्जियत, हृदयरोग तथा डायबिटिज आदि भयानक रोग सामने आते हैं। वायुस्नान से हम समस्त संसार के आनंद को मानो पी जाते हैं।
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हमारे जैन साधु सारे जीवन भर इसी आनंद का रसपान करते हैं। वायुस्नान शरीर की स्वास्थ्य रक्षक एवं रोग प्रतिरोधक जीवनी शक्ति को बलशाली बनाता है। शरीर का कठोरीकरण करके हर वातावरण के अनुकूल ढाल देता है। प्रकृति हर प्राणी को निर्वस्त्र पैदा करती है और सभी निर्वस्त्र ही यहाँ से विदा हो जाते हैं। लेकिन मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जिसे जन्म लेते ही कपड़ों से ढक दिया जाता है ढ़कने का अर्थ है, प्रकृति की गोद से अलग करना। जितना हम बच्चों के शरीर
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डा. वन्दना जैन
को वस्त्रों से लादते हैं उतनी ही उनकी रोग प्रतिरोधक जीवनीशक्ति कमजोर होती जाती है। हर बच्चा हमेशा रुग्ण रहने लगता है। संश्लेषित कपड़े से ही ढ़कना है तो उन्हें सूती तथा पतले सछिद्र कपड़े से ढ़कें ताकि त्वचा से हवा का सम्पर्क बना रहे ।
बच्चे कपड़े को कभी पसन्द नहीं करते हैं वे बार-बार उसे फेंक देते हैं, वे प्रकृति के ज्यादा समीप हैं। ठण्ड के दिनों में भी आप उन्हें ढ़कने तथा ओढ़ने का प्रयास करते हैं। लेकिन वे बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। आप इस नैसर्गिक प्रवृत्ति एवं उनके शरीर की माँग को नहीं समझ पाने के कारण प्रेमवश बच्चों के साथ ज्यादती कर बैठते हैं ।
दक्षिणी कंबोडिया के सने फानास नामक एक किशोर ने अभी तक कपड़े ही नहीं पहने हैं, उसके पिता ने उसे कई बार बुरी तरह पीटा फिर भी उसने कपड़े नहीं पहने। कपड़े से जो अंग ज्यादा देर तक ढ़का रहता है, वह अंग उतना ही नाजुक हो जाता है, गुप्तांग बराबर ढ़के रहने के कारण ही सबसे नाजुक अंग है। सिर, हाथ व चेहरा कम ढ़का रहता है इसलिए ये अंग प्रत्येक वातावरण का सहजता से मुकाबला कर लेते हैं। हम जितना ठंड से भयभीत रहते हैं भय के कारण ही ठंड की ज्यादा अनुभूति होती है। ठंड के दिनों में भी कुछ मिनिट निर्वस्त्र रहने का अभ्यास डालें। महात्मा गांधी जी तथा जर्मनी के प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक 'एडोल्फ जुस्ट' इसका अभ्यास किया करते थे ।
चारों तरफ से हवा हमें घेरे हुए है, हवा का बाहरी तथा आंतरिक प्रयोग दोनों ही शरीर के अंदर रक्त को हीमोग्लोबिन द्वारा सोख लिया जाता है। ऑक्सी हीमोग्लोबीन के रूप में हवा रक्त प्रवाह के साथ समस्त अंगों को नवजीवन, नई ऊर्जा प्रदान करती है। शहरी तथा औद्योगिक क्षेत्र की हवा प्रदूषित होती है। उसमें Co, Co2, So2, NH3 सायनाइड आदि अनेक विषैली गैसें होती हैं, जो श्वांस के सहारे जाकर हृदय फेफड़े, गुर्दे, यकृत, रक्त, अस्थि मज्जा को प्रदूषित कर क्षतिग्रस्त करती हैं। भोपाल का गैस काण्ड इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। जिसमें हजारों लोग वे मौत मारे गए।
हवा, मौसम तथा पर्यावरण के अनुसार निरंतर बदलती रहती है, प्रत्येक मौसम में शीतल वायुमण्डल में घूमने से रक्त का संचार तीव्र होकर रक्त ऑक्सीकरण या शुद्धिकरण क्रिया बढ़ जाती है। गर्म वायुमण्डल में हवा की कमी के कारण
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अगस्त 2004 जिन भाषित 23 www.jainelibrary.org