SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान की जन्मभूमि में अंतर क्यों ? कैलाश मड़बैया हिन्दी साहित्य सम्मेलन के हाल में सम्पन्न अधिवेशन | आश्चर्य तो यह हुआ कि वहाँ दर्शन कर रहे एक श्रावक में बहुचर्चित पौराणिक अयोध्या जाने का अवसर मिला। यह | ने हमें बताया कि मुगल सल्तनत के समय यहाँ भी एक सच है कि अयोध्या पूरी तरह राममय है, न तो वहाँ किसी | मस्जिद बना दी गई थी परन्तु तब उनके वजीर को यह सपना तरह का विवाद है, न ही विवाद की गुंजाइश । हाँ सरकार ने | आया कि वहाँ जमीन में आज भी आदिनाथ स्वामी की जन्म अपना अस्तित्त्व प्रदर्शित करने के लिए अवश्य इतने धन का | स्थली पर दीपक जल रहा है, श्रीफल एवं कलश विद्यमान है अपव्यय किया है कि इन पैसों से राम जन्म भूमि पर विशाल | अतः वहां इबादत नहीं हो सकती। परन्तु सुल्तान नहीं माना गरिमामय मंदिर तो बन ही सकता था, मुस्लिमों के लिए | कि जमीन के अन्दर इतने वर्षों तक जलता दीपक रह ही नहीं आलीशान मस्जिद भी। सकता। परन्तु कुछ समय बाद फिर वजीर को सपना आया परन्तु अयोध्या के लोगों से संवाद स्थापित करने और कि मस्जिद हटाओ वरना अनर्थ हो सकता है। वजीर फिर नगर भ्रमण कर ऐसा प्रतीत हुआ कि सचमुच राजनीतिज्ञ सुल्तान के सामने रोया कि खुदाई करा ली जावे तो असलियत बड़ी चीज होते हैं, इतने कि राई को पर्वत बना दें। अब सामने आ जायेगी। सुल्तान ने कहा कि यदि जलता दीपक मुस्लिम चाहें भी कि वे मस्जिद की बात छोड़कर मंदिर नहीं मिला तो तुम्हें जमीन में उसी जगह गाड़ दिया जायेगा। बनाने में सहयोग करें तो कदाचित् राजनीतिज्ञ ऐसा नहीं होने | वजीर ने सोचा अनर्थ तो कैसे भी होना है अतएव सुल्तान की देंगे और परिस्थितियाँ इतनी जबरदस्त निर्मित हो चकी हैं कि वहाँ मस्जिद बन भी जाये तो मुसलमान शांति से इबादत नहीं | बचेंगे ही भगवान के भी दर्शन हो जायेंगे। अंततः काफी कर सकेंगे। मेरे एक मध्यप्रदेशीय युवा साहित्यकार ने प्रश्न | जद्दोजहद के बाद खुदाई की गई। और यह क्या .... सचमुच किया कि भाई साहब राम को संगीनों में क्यों रखा गया है? | जमीन के अन्दर जलता हुआ दीपक, कलश और श्रीफल यहाँ तो विरोध है ही नहीं, मंदिर ही क्यों नहीं बना लेते? मैंने | मूर्ति के सामने विद्यमान मिला। परिणामत: न केवल वजीर कहा-मंदिर बन जायेगा तो वोट क्या तुम दिलवा दोगे? | को बख्शा गया वरन् यह वरदान भी दिया गया कि मुल्लाओं राजनीतिज्ञों को मंदिर थोड़े ही बनवाना है, मुद्दा बनाये रखना | में विवाद न फैले अत: एक रात में जैन धर्मावलंबी जितना है। सोने की मुर्गी का कोई भी समझदार एक दिन ही पेट नहीं निर्माण कर सकें आदिनाथ जन्मस्थली पर कर लें। तब यह फाड़ता है, अवसर-अवसर पर सोने के अण्डे लिए जाते हैं। | ऋषभदेव टोंक का तत्काल निर्माण हो सका। परिक्रमा की सुना तो था कि घूरे के दिन भी फिरते हैं। कभी जहाँ | गली इसी कारण सबेरे--सबेरे तक बहुत संकीर्ण बन सकी सागर था वहाँ आज शानदार शहर और जहाँ शानदार बस्तियां | थी। थीं वहाँ आज समुद्र हैं। परन्तु इतिहास और पुराण पढने वाले उपर्युक्त घटना की सत्यता शंकास्पद हो सकती है,परन्तु यह देखकर आश्चर्यचकित होते होंगे कि अयोध्या जैसा वेद-पुराण, आगम, ग्रन्थ यदि सही हैं तो यह निर्विवाद है कि प्राचीनतम और गौरवशाली नगर आज प्रगति के गर्त में सचमुच भगवान आदिनाथ अर्थात् ऋषभनाथ की यही स्थली वह ध्वस्त हो चुका है। ऐसा नहीं कि अल्पसंख्यक मुस्लिमों की पावन, पुण्य, प्राचीन और प्रणम्य भूमि है जहाँ से विश्व में जैन ही परेशानियाँ बढ़ी हैं और बढ़ी हैं तो शायद बाबर के विवाद धर्म का अभ्युदय हुआ। उन्हीं ऋषभनाथ के पुत्र भरत के नाम के बढ़ने से, परन्तु परेशानियाँ तो उनकी भी कम नहीं है जिन | पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा - पर कोई विवाद नहीं है। पौराणिक इतिहास साक्षी है कि नाभेः पुत्रश्च ऋषभः वृषभाद् भरतोऽभवत्। अयोध्या, वेदों में वर्णित आदिनाथ (केशी), प्रथम जैनतीर्थंकर तस्या नाम्ना वर्ष भारतं चेति कीर्त्यते॥7॥ ऋषभनाथ की जन्म स्थली है। सरयू किनारे आज के "स्वर्ग | -स्कंध पुराण, माहेश्वरखण्ड, कौमारखण्ड, (अध्याय 37) द्वार" मोहल्ले में पुराने थाने के निकट अयोध्या में आदिनाथ इतिहासकार वासुदेवसरण अग्रवाल ने भी उपर्युक्त तथ्य जन्म स्थली टोंक के दर्शन मात्र से यह प्रतीत होता है कि | की पुष्टि कर कहा है कि आदिनाथ के ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम आस-पास तो खण्डहर, वीरानगी और सरयू का पावन तट | पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा है। डॉ. सर्वपल्ली आदि पवित्र चिन्ह भगवान ऋषभदेव की जन्म भूमि की पुष्टि | राधाकृष्णन ने "इण्डियन फ्लास्फी" पुस्तक के पृष्ठ 387 पर करने के लिए पर्याप्त हैं। कहा है कि ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी तक लोग तीर्थंकर ऋषभदेव अगस्त 2004 जिन भाषित 17 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.524288
Book TitleJinabhashita 2004 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy