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________________ है, जो एक स्थान पर रहते हैं, उनकी सल्लेखना समाधि भी | लिखते हैं 'शय्या और आसन की शुद्धि में तत्पर साधु को आगमोक्त रीति से संभव है? अतः वर्तमान में मुनि/आर्यिका/ स्त्री, क्षुद्र, चोर, महापापी, जुआरी, शराबी और पक्षियों को त्यागी/व्रती सभी को विचार करना चाहिए कि जीवन भर पकड़ने वाले पापी जनों के स्थान में वास नहीं करना की सार्थकता निहित स्वार्थ के कारण खो न जाये। चाहिए तथा श्रृंगार विकार, आभूषण, उज्जवल वेश, वेश्या मूलाचार प्रदीप में कहा है- प्रासुक स्थान में रहने | की क्रीड़ा से अभिप्राय (सुन्दर) गीत, नृत्य, वादित्र आदि वाले और विविक्त एकान्त स्थान में निवास करने वाले मुनि से व्याप्त शाला आदि में निवास का त्याग करना चाहिए। किसी गाँव में एक दिन रहते हैं और नगर में पाँच दिन रहते शयनासन शुद्धि वाले हैं संयतों को तो अकृत्रिम (प्राकृतिक) हैं। सर्वथा एकान्त स्थान को ढूँढने वाले और शुक्लध्यान में पर्वत की गुफा वृक्ष' से नहीं बनाए गये हों और जिनके अपना मन लगाने वाले मुनिराज इस लोक में गंध-गज बनने बनाने में अपनी ओर से किसी तरह का आरम्भ नहीं (मदोन्मत्त) हाथी के समान ध्यान के आनन्द का महासुख हुआ है ऐसे स्वभाविक रीति से (अकृत्रिम) बने हुए पर्वत प्राप्त करते हैं। (31-32) की गुफाएं या वृक्षों के कोटर आदि तथा बनवाये हुए सूने आचार्य शिवार्य वसतिका आदि में ममत्व के अभाव मकान वसतिका आदि अथवा जिनमें रहना छोड़ दिया गया को भी अनियतविहार मानते हैं है अथवा छुड़ा दिया गया है ऐसे मोचितावास स्थानों में वसधीसु य उवधीसुय गामे णयरे गणे य सण्णिजणे। | रहना चाहिए। सव्वत्थ अपडिबद्धो समासदो अणियदविहारो॥ वर्तमान में वसतिकओं के निर्माण की होड़ लगी हुई भग. आ. 153॥ | है, चाहे वह किसी भी नाम से निर्मित करायी जाय। हाँ वसतिका में, उपकरण में, ग्राम में. नगर में, संघ में गृहस्थ का आवास आठ दस कमरों का हो सकता है। श्रावकों में ममता के बन्धन को न प्राप्त होने वाला किन्तु मुनि की वसतिकाएँ बहुमजली इमारतों से युक्त विशाल अनियतविहार करने वाला साध है। अर्थात जो ऐसा नहीं परिसर में नाना विभागों से अलंकृत होने से ही गौरव है। मानता कि वह वसतिका मेरी है, मैं इसका स्वामी हूँ सभी | तभी तो मुनि या आर्यिका पचास लाख या करोड़ों की परद्रव्यों, परक्षेत्रों, परकालों से बंधा हूँ वह अनियमितविहार | परियोजना में जुटे हुए हैं। ऐसा करने में ही तो पूर्वाचार्यों करने वाला है। के कथन का उल्लंघन कर अपना श्रेष्ठत्व स्थापित करने की उक्त सभी लाभ अनियतविहार करने वाले को ही प्राप्त सफलता है, क्योंकि पूर्वाचार्यों ने तो गिरि कंदरा या वन में हो सकते हैं, जो एक स्थान पर रहकर धर्म का पालन करना निवास करने को कहा है- शून्यघर पर्वतगुफा, वृक्षमूल, चाहें, वह संभव नहीं है। अकृत्रिमघर, श्मशानभूमि, भयानक वन, उद्यानघर, नदी साधु को निरन्तर विहारी होने के कारण श्रेष्ठ कहा है | का किनारा आदि उपयुक्त वसतिकाएं हैं। बोधपाहुड़ में भी कवि ऋषभदास ने कहा है कहा है इनके अतिरिक्त अनुदिष्ट देव मन्दिर, धर्मशालाएं, स्त्री का मायके रहना, पुरूष का ससुराल में रहना और | शिक्षाघर आदि भी उपयुक्त वसितकाएं हैं। साधुओं का एक स्थान पर तीनों ही अनिष्टकारी है। जिनेन्द्रमन्दिरे सारे स्थितिं कुर्वन्ति येऽङ्गिनः। हिन्दी के किसी कवि ने कहा है तेभ्यः संवर्द्धते धर्मो धर्मात्संपत् परानृणाम्॥ बहता पानी निर्मला, बन्धा सो गन्दा होय। श्रेष्ठ जिनमन्दिर में जो मुनिराज आदि ठहरते हैं, उनसे साधु तो रमता भला दाग न लागे कोय॥ | धर्म बढ़ता है और धर्म से मनुष्यों को श्रेष्ठ सम्पत्ति की प्राप्ति साधुव्रती श्रेष्ठ कहा गया है जो एक स्थान छोड़कर | होती है और भी कहा गया हैदूसरे स्थानों को जाता है। साधु के निवास के विषय में मुनिः कश्चित् स्थानं रचयति यतो जैनभवने, शास्त्रों में विशद विवेचन किया गया है। वे मुनिराज पहाड़ों विधत्ते व्याख्यानं यदवगमतो धर्मनिरताः। पर ही पर्यंकासन, अर्धपर्यंकासन व उत्कृष्ट वीरासन धारण भवन्तो भव्यौघा भवजलधिमुत्तीर्यसखिनरकर व हाथी की सूंड के समान आसन लगाकर अथवा ततस्तत्कारी किं जनयति जनो यन्न सुकृतम्।। मगर के मुख का सा आसन लगाकर अथवा एक करवट से यतश्च जिनमन्दिर में कोई मनिराज आकर ठहरते हैं. लेटकर अथवा कठिन आसनों को धारण पूर्ण रात्रि बिता तथा व्याख्यान करते हैं, जिनके ज्ञान ने भव्य जीवों के देते हैं। समूह धर्म में लीन होते हुए संसार समुद्र को पारकर सुखी भट्टाकलंकदेव साधु के योग्य निवास के सम्बन्ध में | होते हैं। अतः जिनमन्दिर के निर्माण कराने वाला पुरूष 10 अगस्त 2004 जिन भाषित - For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.524288
Book TitleJinabhashita 2004 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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