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________________ वासना से वात्सल्य की ओर सुशीला पाटनी बात उत्तम ब्रह्मचर्य की है। विश्व के समस्त धर्मों में | पड़ते हैं, वैसे ही कामनाओं के पीछे दौड़ता हुआ मनुष्य ब्रह्मचर्य को एक पावन और पवित्र धर्म माना गया है। यह अपना जीवन बर्बाद कर लेता है, पर पाता कुछ नहीं, पा ही समस्त साधनाओं का मूल आधार है। ब्रह्मचर्य को अपनाए नहीं सकता। क्योंकि हम पूजा में पढ़ते हैं। बिना आत्मा की उपलब्धि असम्भव है। ब्रह्म का अर्थ है- ____ काम-भोग से आखिर कौन सा सुख मिलता है? हड्डियों आत्मा। आत्मा की उपलब्धि के लिए किया जाने वाला | के दो ढांचे के पारस्परिक संघर्ष से क्या मिलने वाला है? आचरण ब्रह्मचर्य है। आत्मोपलब्धि ही परम ब्रह्म की कुत्ता हड्डी चबाता है और उसे ऐसा लगता है, मानो उससे उपलब्धि है। जो व्यक्ति आत्मा के जितना निकट है वह रस आ रहा है। सूखी हड्डी में भला कोई रस है? हड्डी उतना ही बड़ा ब्रह्मचारी है तथा जो आत्मा से जितना दूर है चबाते-चबाते उसके मसूड़े छिल जाते हैं, उसके मुख से वह उतना ही बड़ा भ्रमचारी है। हमें ब्रह्मचारी और भ्रमचारी रक्त निकलता है और उसे लगता है यह रस हड्डी का है। में अन्तर करने के लिए चलना है। ब्रह्मचारी का अर्थ है काम भोग का सुख ऐसा ही है। जैसे कोई व्यक्ति खाज ब्रह्म (ब्रह्ममय आचरण करने वाला) में जीने वाला और खुजलाता है, उस समय उसे थोड़ी देर के लिए आराम भ्रमचारी का अर्थ है भ्रम में जीने वाला। भ्रम के टूटे बिना मिलता है, पर खाज खुजलाने के पश्चात उसे समझ में ब्रह्म को पाना असम्भव है और ब्रह्मा को पाने के लिए आता है कि खाज कितनी पीड़ादायक है। वस्तुतः ये भोग, उसका ज्ञान होना आवश्यक है। आत्मा की दूरी और नैकट्य भोगते समय मधुर लगते हैं पर परिपाक काल में बहुत से ही ब्रह्म और अब्रह्मचर्य का परिचय मिलता है। पीडादायी होते हैं । वासना उस किंपाक विषफल के समान काम और भोग ही हमें हमारी आत्मा से बाहर लाते हैं। है जो खाने में मधुर, देखने में सुन्दर और सूंघने में सुरभित कामनाओं से ग्रसित व्यक्ति का चित्त सारी दुनियाँ में दौड़ता | होता है, किन्तु जिसका परिणाम है-मृत्यु। रहता है। काम और भोग ही हमें भटकाने वाले तत्व हैं। काम--भोग से एक क्षण का सुख, बहुत काल का दु:ख, जिसके अंदर जितनी अधिक कामनाएँ हैं वह आत्मा से सीमित सुख और असीमित दु:ख मिलता है। ये संसार से अधिक दूर है, तथा जो कामनाओं से जितना अधिक मुक्त | मुक्ति के विपक्ष भूत हैं और सारे अनर्थों की मूल हैं। है वह आत्मा के उतना ही अधिक नज़दीक है। कामनाएँ | यदि तुम्हें भोग ही करना है तो अपनी चेतना का भोग हमें बहिर्मुखी बनाती हैं और कामना मुक्ति अन्तर्मुखता का | करो। चेतना का भोग ही वास्तविक ब्रह्मचर्य है। आत्मा में आधार है। उसके लिए काम-भोग की आकांक्षाओं से ऊपर | डूबना ही यथार्थ ब्रह्मचर्य है। उठना अनिवार्य है। ___ आत्मानुराग ही वास्तविक प्रेम है। आचार्यश्री ने मूकमाटी ___ जन्म-जन्मांतरों से मनुष्य काम का दास बना हुआ है। में लिखा है :अपनी वासनाओं की पूर्ति के लिए उसने क्या नहीं किया, प्रीत मैं उसे मानता हूँ पर मिला क्या? सिवाय प्यास, अतृप्ति और पीड़ा के? आज जो अंगातीत होता है तक का हमारा यही अनुभव है कि काम भोग की गीत मैं उसे मानता हूँ आकांक्षाओं-वासनाओं से अभी तक मनुष्य को कुछ भी जो संगातीत होता है नहीं मिला। भला कोई रेत से तेल निकालना चाहे तो उसे | देहानुराग और आत्मानुराग में बहुत अन्तर है। इन दोनों क्या प्राप्त होगा? किन्तु उसके बाद भी हमारी प्रवृत्ति नहीं | में उतना ही अन्तर है जितना कि वासना और वात्सल्य में। बदलती। मनुष्य बार-बार उनकी ओर आकर्षित होता है और पुन: अतृप्ति और प्यास में फंसकर रह जाता है। जैसे आर. के. हाऊस, मृगमरीचिका में मृग को दौड़-दौड़ कर अपने प्राण गँवाने । मदनगंज-किशनगढ़ कृत, व्रत, नियम का पालन करने वाले विवेकीजन स्वकर्त्तव्य से कदापि स्खलित नहीं होते। । मानव धर्म 20 अगस्त 2004 जिन भाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524288
Book TitleJinabhashita 2004 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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