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परिग्रह से निवृत्ति का साधन - उत्तम त्याग धर्म
जैन धर्म में उत्तम त्याग का महत्वपूर्ण स्थान है । आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो यह कहा जा सकता है। कि त्याग के बिना कोई भी प्राणी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता । दिगम्बर जैन धर्म में दिगम्बर साधुओं का नग्न विचरण यह सन्देश जन-जन को देता है कि मोक्ष प्राप्ति के लिए सांसारिक प्रलोभनों का तो त्याग करना ही पड़ता है अन्तरंग में क्रोध मान, माया, लोभ तथा राग-द्वेष का त्याग अति आवश्यक है । उत्तम त्याग धर्म हमें इसी बात की प्रेरणा देता है।
जैन आचार्यों ने एक वाक्य में ही त्याग को समझा दिया है कि अप्राप्त भोगों की इच्छा न करना और प्राप्त सुखों से विमुख हो जाना त्याग है। प्रवचन- सार में आचार्य जिनसेन कहते हैं- 'निजशुद्धात्म परिग्रहं कृत्वा बाह्याभ्यन्तर परिग्रहः निवृत्ति त्याग: ।' अर्थात निज शुद्धात्म के परिग्रह पूर्वक बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से निवृत्ति त्याग है । वारस अणुवेक्खा में कहा गया है
णिव्वे गतियं भावइ मोहं चइऊण सव्व दव्वेसु । जो तस्स हवेच्चागो इदि भविदं जिणवरिं देहि ॥ जो जीव सम्पूर्ण परद्रव्यों से मोह छोड़कर संसार, शरीर और भोगों से उदासीन परिणाम रखता है उसके त्याग धर्म होता है। राजवार्तिक में लिखा है पर की प्रीति के लिए अपनी वस्तु को देना त्याग है। 'संयतस्य योग्यं ज्ञानादि दानं त्यागः' अर्थात संयत को संयम की रक्षा एवं वृद्धि में साधक, योग्य उपकरणों को देना त्याग है। त्याग आत्मा का स्वभाव होने से इसे धर्म कहा गया है
जैन धर्म में दो तरह की स्थिति देखी जाती है जिसके अपने-अपने नियम तथा कायदे हैं। इस आधार पर धर्म दो तरह का हो जाता है। 1- मुनिधर्म और श्रावक धर्म । धर्म का उद्देश्य एक ही है- वह है मोक्षप्राप्ति । दशलक्षण धर्म मुनि और श्रावक दोनों के लिए हैं। मुनिगण अन्तरंग और बाह्य परिग्रह से रहित हों इसीलिए त्याग आवश्यक है। बाह्य परिग्रह तो मुनिगण मुनिदीक्षा के साथ ही छोड़ देते हैं परन्तु राग-द्वेष बना रहता है या बना रह सकता है इसलिए मुनिगण पर्यूषण पर्व में उत्तम त्याग धर्म के दिन विशेष रूप से रागद्वेष के त्याग हेतु पुनः संकल्पित होने की भावना भाते हैं इसलिए रागद्वेष से स्वयं को छुड़ाने तथा वस्तुओं के प्रति राग के अभाव को त्याग कहा गया । यह रागद्वेष
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डॉ नरेन्द्र जैन भारती
अनादिकाल से आत्मा के साथ लगा हुआ है, तथा जीव को कषाय सहित करता है उत्तम त्याग धर्म हमें कषाय, रागद्वेष से हटाकर आत्महित में लगाता है।
श्रावक या गृहस्थ तो परिग्रही होता है अतः उसे बाह्य परिग्रह का भी त्याग करना है जिसे वह श्रावक धर्म में वर्णित योग्य पात्र में दानादि देकर परिग्रह का त्याग करता है इसीलिए दान भी त्याग है परन्तु इसमें भी ममत्वभाव का त्याग तथा निरभिमानता होनी चाहिए दान में भी ममत्व भाव, रागभाव हटाया जाता है। दान की सार्थकता तभी होती है जब 'अनुग्रहार्थ स्वस्याति सर्गो दानम्' की भावना करते हुए उस दान के प्रति हमारे मन में किसी प्रकार का मोह या सम्मान तथा प्रतिष्ठा का लोभ न हो । पूज्यपाद स्वामी ने कहा है- परोपकारः सम्यग्ज्ञानादिवृद्धि स्वोपकारः पुण्य संचय: जिन्हें दान दिया जाता है उनके सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानादि की वृद्धि होती है, यही अपना उपकार है और दान देने से जो पुण्य का संचय होता है वह अपना उपकार है। मुनि और श्रावकों को दृष्टिगत रखते हुए पं. द्यानतराय जी ने पूजन में कहा है
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'उत्तम त्याग कह्यौ जग सारा औषधि शास्त्र, अभय, आहारा ।
निचै राग-द्वेष निरवारे ज्ञाता दोनों दान सम्हारै ॥ ' संसार में औषधि, शास्त्र, अभय और आहार दान को श्रेष्ठ कहा गया है और निश्चय से राग-द्वेष को छोड़ने को त्याग कहा गया है। जो ज्ञानी होते हैं वे यथाशक्ति दोनों प्रकारों को सम्भालते हैं।
औषधि दान - ज्ञान, ध्यान और तपस्या रत साधुओं को पीड़ा होने तथा किसी जीव मात्र को रोग से दुःखी देखकर उसकी पीड़ा को दूर करने के लिए औषधि आदि देना औषधि दान है।
शास्त्र दान - ज्ञानवृद्धि के लिए ऐसे ग्रन्थों को देना, जिससे आत्मा का कल्याण हो सके, जिनवाणी का प्रचार हो, शास्त्र दान कहलाता है।
अभय दान - छह काय के जीवों की रक्षा करना उन्हें भयमुक्त करना तथा अपने प्राणों का घात करने वाले जीव को भी क्षमा कर देना अभय दान है।
आहार दान - मुनियों को नवधाभक्ति पूर्वक आहार देना तथा संसारी जीवों की भूख शान्त करने के लिए भोजन
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अगस्त 2004 जिन भाषित 15 www.jainelibrary.org