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ही कारण प्रतीत होता है। वह कारण है समयसारादि ग्रन्थों | यहाँ 'एस' (एषः अहम् यह मैं) सर्वनाम 'प्रवचनसार' में उनके कर्ता कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख न होना | ग्रन्थ के कर्ता के लिए प्रयुक्त हुआ है। टीकाकार अमृतचन्द्र (बारसाणुवेक्खा में प्रक्षिप्त है) और मुनिसंघों में भी यह | सूरि को इसकी व्याख्या ग्रन्थकार कुन्दकुन्द के नाम का प्रसिद्ध न हो पाना या इस प्रसिद्धि का लुप्त हो जाना कि उक्त | निर्देश करके करनी चाहिए थी, जैसे "यह मैं कुन्दकुन्द ग्रन्थों के कर्ता कुन्दकुन्द हैं। जैसे 'तत्त्वार्थसूत्र' में उसके उन ...... वर्धमान स्वामी को प्रणाम करता हूँ.......।" कर्ता गृध्रपिच्छ के नाम का उल्लेख न होने से और यह किन्तु उन्होंने "एष स्वसंवेदनप्रत्यक्षो दर्शनज्ञानसामान्यात्माहं प्रसिद्ध न होने से कि उसके कर्ता गृध्रपिच्छ हैं, टीकाकार .... श्री वर्धमानदेवं प्रणमामि" (यह मैं स्वसंवेदन प्रत्यक्ष पूज्यपाद स्वामी (5वीं शती ई.) और भट्ट अकलंक देव दर्शनज्ञानस्वरूप आत्मा .....श्री वर्धमान स्वामी को प्रणाम (7 वीं शती ई.) भी उनसे अपरिचित रहे आये, जिसके करता हूँ), इन शब्दों में की है। अर्थात् उन्होंने कुन्दकुन्द के फलस्वरूप वे अपनी टीकाओं में तत्त्वार्थसूत्रकार के रूप में नाम का उल्लेख नहीं किया। इसका कारण न तो यह हो उनका नाम निर्दिष्ट करने में असमर्थ रहे, वैसे ही समयसारादि सकता है कि कुन्दकुन्द से उन्हें कोई द्वेष था और न यह कि ग्रन्थों में कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख न होने से तथा यह | टीकाकार द्वारा ग्रन्थकर्ता के नाम का उल्लेख करने की प्रसिद्ध न होने से कि उन ग्रन्थों के रचयिता कुन्दकुन्द हैं, परम्परा नहीं थी। अन्यथानुपपत्ति से केवल यही कारण दसवीं शताब्दी ई. के टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र भी इस प्रकट होता है कि टीकाकार अमृतचन्द्र सूरि इस तथ्य से तथ्य से अनभिज्ञ रहे कि समयसारादि महान ग्रन्थों के अनभिज्ञ थे कि 'प्रवचनसार' के कर्ता वही कुन्दकुन्द हैं, रचयिता कुन्दकुन्द हैं जिनसे कुन्दकुन्दान्वय नाम का विशाल | जिनके नाम से प्रसिद्ध कुन्दकुन्दान्वय प्रचलित हुआ है। अन्वय प्रसूत हुआ।
___आचार्य जयसेन ने 'एस' सर्वनाम शिवकुमार नामक जिस प्रकार बहुत समय बाद आठवीं शती ई. में धवला | राजा के लिए प्रयुक्त माना है, जो संगत नहीं है, क्योंकि टीका के कर्ता वीरसेन स्वामी ने किसी प्राचीन लिखित ग्रन्थ की आद्य गाथाएँ मंगलाचरणरूप हैं और उनका प्रयोग स्रोत से यह ज्ञात होने पर कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता आचार्य | ग्रन्थकार ही करता है। स्वयं जयसेन ने प्रवचनसार के गृध्रपिच्छ हैं, धवला-टीका में इसका उल्लेख किया है, | द्वितीय अधिकार की अन्तिम गाथा की तात्पर्यवृत्ति में लिखा उसी प्रकार बारहवीं शती ई. में किसी प्राचीन ग्रन्थादि से | है कि आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार के कर्ता हैं और यह जानकारी प्राप्त होने पर कि समयसारादि ग्रन्थों के निर्माता | शिवकुमार महाराज श्रोता। उन्होंने समयसार तथा पंचास्तिकाय वही महान् कुन्दकुन्द हैं, जिनके नाम से कुन्दकुन्दान्वय | की तात्पर्यवृत्ति के आरंभ में भी यह उल्लेख कर दिया है प्रवाहित हुआ है, आचार्य जयसेन ने अपनी टीकाओं में उन | कि इन ग्रन्थों की रचना आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा हुई है। ग्रन्थों के निर्माता के रूप में आचार्य कुन्दकुन्द के नाम की किन्तु अमृतचन्द्र सूरि ने तीनों ग्रन्थों की टीका में कहीं भी चर्चा की है। आठवीं शती ई. से पहले के सभी ग्रन्थकार | कुन्दकुन्ददेव द्वारा उनके रचे जाने का उल्लेख नहीं किया। और टीकाकार इस तथ्य से अनभिज्ञ थे कि 'तत्त्वार्थसूत्र' | इससे स्पष्ट है कि आचार्य अमृतचन्द्र को यह ज्ञात नहीं था के कर्ता आचार्य गृध्रपिच्छ हैं और बारहवीं शताब्दी ई. के | कि समयसारादि ग्रन्थों के रचयिता आचार्य कुन्दकुन्द हैं पूर्ववर्ती समस्त ग्रन्थकर्ताओं और टीकाकारों को यह ज्ञान | और इससे यह भी स्पष्ट होता है कि उनके समय में मुनिनहीं था कि समयसारादि ग्रन्थ आचार्य कुन्दकुन्द की लेखनी | संघों में भी उक्त प्रकार की प्रसिद्धि नहीं थी। से प्रसूत हुए हैं। इसका प्रमाण 'प्रवचनसार' की निम्नलिखित आचार्य अमृतचन्द्र के समकालीन 'दर्शनसार' के कर्ता गाथा की अमृतचन्द्रकृत टीका में मिलता है--
देवसेन ने केवल इतना लिखा है कि "विदेहक्षेत्र के वर्तमान एस सुरासुर मणुसिंदवंदिदं धोदघाइकम्ममलं।।
तीर्थंकर सीमन्धर स्वामी के समवसरण में जाकर श्री पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं॥1/1॥
पद्मनन्दीनाथ (कुन्दकुन्दस्वामी) ने जो दिव्य ज्ञान प्राप्त किया
था, उसके द्वारा यदि वे बोध न देते, तो मुनिजन सच्चे मार्ग अर्थ : यह मैं उन धर्मतीर्थ के कर्ता श्री वर्धमान
को कैसे जानते?" (गाथा 43)। लगभग इसी समय (10 स्वामी को प्रमाण करता हूँ, जो सुरेन्द्रों, असुरेन्द्रों ओर नरेन्द्रों
वीं शती ई.) के आचार्य इन्द्रनन्दी ने 'श्रुतावतार' में कहा है के द्वारा वन्दित हैं तथा जिन्होंने घातिकर्मों के मल को धो
कि कुण्डकुन्दपुर के पद्मनन्दी ने षट्खण्डागम के आदि के डाला है।
तीन खण्डों पर 'परिकर्म' नामक ग्रन्थ की रचना की।
अगस्त 2004 जिन भाषित 13
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