Book Title: Jinabhashita 2004 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 21
________________ आदर्श जीवन शैली ही धर्म है प्रो. वी. के. जैन किसी भी देश, समाज और व्यक्ति का विकास तभी | योजना 'जियो और जीने दो' का सर्वत्र अभाव सा परिलक्षित संभव है जब वह अपने धर्म का पालन करे। वस्तु के | हो रहा है। स्वभाव को धर्म कहा जाता है और धारण किया जाता है। वास्तव में धर्म कोई संगठन. समाज, पंथ या इसलिए धर्म के स्वरुप को प्रतिपादित करते हुए कहा जाता | सम्प्रदाय नहीं है। धर्म जीवन जीने की आदर्श शैली है। है कि धारयतीति धर्मः अर्थात जिसे धारण किया जाये वह | सुख से रहने की, शांति और परमानंद प्राप्त करने की कला धर्म है। धर्म न तो ओढ़ने की चीज है न ही बिछाने की। | है। विश्व में सभी धर्म दुष्कर्मों से बचाने और सत्कर्मों में धर्म प्रदर्शन अथवा दिखावे की वस्तु नहीं है। धर्म कोई प्रवृत्त होकर जीवन सँवारने का उपदेश देते हैं। स्वयं की वस्त्र नहीं है कि जिसे पहन लिया वह धार्मिक हो गया। उन्नति के साथ-साथ सबकी उन्नति हमारा ध्येय बन जाना धर्म कोई भाषण भी नहीं है जिसने सुन लिया वह धार्मिक | चाहिए। तभी धर्म जीवन में उतर सकेगा तथा हम सही बन गया। कोई भी बाह्य आडम्बर धर्म को उजागर नहीं | धार्मिक बनकर अच्छे इंसान बनने की ओर अग्रसर हो कर सकता । स्वामी सम्पूर्णानन्द सरस्वती कहते थे कि सूर्य सकेंगे। उदय हुआ है यह बात बतानी नहीं पड़ती। प्रकाश और धर्मच्युत हो जाने पर मनुष्य और समाज के विनाश गर्मी स्वयं इस बात का परिचय देते हैं कि सूर्योदय हो गया | को कोई टाल नहीं सकता। इस शाश्वत सत्य को समझ है। इसी प्रकार धर्मधारण करने वाला धर्मात्मा किसी परिचय | लेने पर धर्म का पालन करना आसान हो जाता है। का मोहताज नहीं होता। उसका परिचय यह कहकर नहीं दिया जाता कि वह नित्यप्रति अभिषेक करता है, पूजा प्रोफेसर- वाणिज्य विभाग, शा. स्नाकोत्तर महाविद्यालय, मन्दसौर (म.प्र.) अर्चना करता है, स्वाध्याय करता है, लम्बी-लम्बी जाप देता है, प्रतिक्रमण करता है और व्रतोपवास करता है। कोई ग्रन्थ परिचय व्यक्ति धर्मात्मा है या नहीं इसका पता इस बात से लगता है ग्रन्थ का नाम - मानव धर्म कि उसके चारों और रहने वालों पर उसके व्यवहार से कोई लेखक - बा.ब.पं. श्री भूरामल शास्त्री - बा.ब.प. सुखदायक प्रभाव पड़ता है या नहीं। अपनी चारों ओर की (आ.ज्ञानसागर जी) अवस्थाओं में धर्मात्मा रूपी सूर्य की धूप का गुनगुनाने संस्करण - प्रथम (मार्च 2004) वाला अहसास है। प्रतियां - 2200 (पृष्ठ 224) हमारे दैनन्दिनी जीवन में ढेर सारे तनाव हैं, जिनसे लागत मूल्य - 50/- रूपये विक्रय मूल्य - 25/- रूपये हमारा जीवन कष्टकर हो रहा है। बहुत सारे बोझ हैं सिर पर डाक खर्च - 7/- रूपये जिन्हें हम चाहे- अनचाहे ढोने के लिए अभिशप्त हैं। फिर सम्पादन - डॉ. शीतलचन्द जैन, धर्म को भी हम बोझ के समान ढोयें तो ऐसे धर्म से क्या पं. रतनलाल बैनाड़ा, ब्र. भरत जैन। लाभ? धर्म तो वह है जिसकी सुरभि-जीवनमें प्यार, करूणा, मानव धर्म आचार्य समंतभद्र स्वामी द्वारा रचित स्नेह, वात्सल्य, सदभाव, श्रद्धा और सहयोग का संचार रत्नकरण्ड श्रावकाचार पर आधारित है। जिसमें बा.ब्र. पं. भूरामल शास्त्री ने (हिन्दी गद्य) में मानव जीवन और करती है और जिसमें उक्त भावों के पुष्प प्रस्फुटित हो जायें, आचार की व्याख्या सटीक वाक्यों में छोटे-छोटे उदाहरणों वही सच्चा धर्मात्मा है। एवं प्रेरक सूक्तियों के माध्यम से की है। भावार्थ मूलश्लोक वर्तमान में धर्म के नाम पर मानव छोटे- छोटे के नीचे आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा रचित टुकड़ों में बंट गया है। धर्म की गलत धारणा, त्रुटिपूर्ण ज्ञानोदयछंद का पद्यानुवाद पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य कत अन्वयार्थ जोड़ा गया है। सम्पर्क सूत्र व्याख्या और गलत व्यवस्था ने समाज में कड़वाहट, अशांति, ब्र.भरत जैन तनाव, निराशा, हताशा,असहयोग, द्वेष और घृणा फैलायी आचार्य ज्ञानसागर ग्रन्थमाला, है। भाईचारा, सहयोग, प्रेम एवं सहअस्तित्व धर्म की परिभाषा श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान से लगभग बहिष्कृत हो गये हैं। तीर्थंकरों की कालजयी वीरोदय नगर, सांगानेर, जयपुर (राज.) फोन नं. 0141-2730552, 3418497 अगस्त 2004 जिन भाषित 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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