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क्योंकि सूत्र में आए हुए च शब्द से उनका समुच्चय हो जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि तत्त्वार्थसूत्र अध्याय -2, सूत्र 7 'जीवभव्याभव्यत्वानि च' इसमें जो च शब्द दिया है उससे अस्तित्व, वस्तुत्व आदि पारिणामिक भाव हैं, उनको ग्रहण कर लेना चाहिए। इन अस्तित्व आदि गुणों के पारिणामिक भाव होते हुए भी सूत्र में गिनती में न लेने का कारण यह है कि यह जीव में पाये जाने वाले असाधारण भाव नहीं हैं। बल्कि साधारण भाव हैं, क्योंकि अजीव में भी पाये जाते हैं। निष्कर्ष यह है कि जीव में पांचों भाव, पुद्गल में औदयिक व पारणामिक ये दो भाव तथा धर्म, अधर्म, आकाश, काल में केवल पारिणामिक भाव पाया जाता है।
जिज्ञासा- जब बारहवें स्वर्ग से ऊपर के देव नीचे नहीं जाते, तो सीता के जीव ने नरक में जाकर लक्ष्मण आदि को उपदेश कैसे दिया ?
समाधान- यह सत्य है कि 12वें स्वर्ग से ऊपर के देव मध्य लोक तक तो आते हैं, पर अधोलोक में नहीं जाते। तत्वार्थसूत्र अध्याय - 1, सूत्र - 8 की टीका में पैरा-85 के तत्वार्थ- वृत्ति विशेषताओं में आचार्य प्रभाचन्द लिखते हैं कि "शंका - विहार की अपेक्षा 8 राजू स्पर्श क्यों नहीं कहा?
समाधान - ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए क्योंकि शुल्क लेश्या वाले देवों का अधोलोक में विहार नहीं होता ।
आगम में दो प्रकार से कथन पाया जाता है 1. साधारण 2. विशेष से । अतः इस कथन को हमें इस प्रकार ग्रहण करना चाहिए कि साधारणतया 12वें स्वर्ग से ऊपर के देवों का अधोलोक गमन नहीं पाया जाता परन्तु विशेष रूप से क्वचित् कदाचित् पाया भी जाता है। जैसे सर्वार्थसिद्धि में चतुर्थ गुणस्थान से ऊपर सप्तम गुणस्थान तक केवल तीन शुभ लेश्या ही कही गई हैं। परन्तु तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9, सूत्र 47 की टीका करते हुए पुनः वकुश और प्रतिसेवना कुशील भावलिंगी साधुओं के छहों लेश्या कही गई हैं। इस विषय को भी हमें साधारण तथा विशेष कथन मानकर स्वीकार करना चाहिए।
प्रश्नकर्ता श्री कामताप्रसाद, मुजफ्फरनगर । जिज्ञासा - राजा श्रेणिक की मृत्यु को अकाल मरण माना जाए या नहीं?
जैसा कि श्री धवला पुस्तक 10, पृष्ठ 237 पर कहा है"परभवि आउए बद्धे पच्छा भुंजमाणाउअस्स कदलीघादो णत्थि जहासरूवेण चैव वेदेदित्ति "
अर्थ - परभव संबंधी आयु के बंधने के पश्चात भुज्यमान आयु का कदलीघात नहीं होता, किन्तु वह जितनी थी उतनी
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प्रश्नकर्ता - ब्र. रविन्द्र भैय्याजी ।
जिज्ञासा क्या विदेह क्षेत्र के जिनालयों में क्षेत्रपाल आदि की मूर्तियां होती हैं ?
समाधान- श्री सिद्धान्तसार दीपक अधिकार - 8, श्लोक नं. 147-151 में इस प्रकार कहा गया है - "विदेहक्षेत्रस्थ देशों के सर्व नगरों एवं ग्रामों आदि में मणिमय और स्वर्णमय जिन चैत्यालयों की पंक्तियां हैं। वे जिनमन्दिर उन्नत और प्रकाशमान तोरणों से युक्त रत्नमय सहस्त्रों जिन बिम्बों से भरे हुए और रत्नमय उपकरणों से परिपूर्ण हैं, वहां कहीं भी कुदेवालय नहीं हैं। (147-148) वहां पर मुनष्यों और देवगणों से पूजित और वन्दित तथा प्रकाशमान दीप्ति से युक्त जिनेन्द्र भगवान की दिव्यमूर्तियाँ ही प्रचुर मात्रा में हैं, नीच देवों की मूर्तियां नहीं हैं। (149) वहां उत्पन्न होने वाले
समाधान- राजा श्रेणिक ने मरण से पूर्व नरकायु का बंध कर लिया था । आगम के अनुसार परभव संबंधी आयु का बंध कर लेने वाले जीवों का अकालमरण नहीं होता है। प्रवीण समस्त अभ्युदय सुख एवं अन्य समस्त सर्व अर्थ की
सिद्धि के लिये नाना प्रकार की पूजनविधि से जिनेन्द्र भगवान को ही पूजते हैं (150) विवाह एवं जन्म आदि कार्यों में तथा अन्य मंगल कार्यों में एक परमेष्ठी अर्थात अर्हन्त, सिद्ध आदि का ही पूजन होता है, क्षेत्रपाल आदि का नहीं। (151)
अगस्त 2004 जिन भाषित
का ही वेदन करता है ।
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अतः राजा श्रेणिक का अकालमण नहीं हुआ ।
जिज्ञासा सभी मुक्त जीवों की गति मोड़े रहित सीधी होती है फिर क्या समुद्र एवं पर्वतों के ऊपर सिद्धालय में स्थान खाली होगा?
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समाधान आगम में संहरण सिद्धों का वर्णन पाया जाता है। (सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ 374) जिन मुनिराजों को पूर्व बैर वश देव, ध्यान करते हुए आकाश में ले जाते हैं और ऊपर से किसी भी पर्वत या समुद्र के ऊपर छोड़ देते हैं और वे मुनिराज पहाड़ या समुद्र की ओर आते-आते बीच में ही अथवा वहां गिरकर मोक्ष प्राप्त करते हैं वे संहरण सिद्ध कहलाते हैं। ऐसे संहरण सिद्ध सभी समुद्र, पर्वत आदि से होते हैं और उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के सब समयों में होते हैं। (राजवार्तिक अध्याय - 10, सूत्र - 9 टीका ) अत : 45 लाख योजन व्यास वाले समस्त मनुष्य लोक के ऊपर सिद्धालय में एक भी प्रदेश ऐसा नहीं है जहाँ सिद्ध भगवान विराजमान न
। यहाँ यह भी जानना चाहिए कि तिलोयपण्णत्ति अधिकार9, गाथा - 15 के अनुसार अर्थ मनुष्य लोक प्रमाण स्थित तनु वात वलय के उपरिम भाग में सब सिद्धों के सिर सदृश होते हैं । अधस्तन भाग में कोई विसदृश होते हैं । अर्थातकेवल ज्ञान प्राप्ति से पूर्व उन मुनिराज का शरीर किसी भी आसन में क्यों न हो, सिद्ध अवस्था में तो सभी मुक्त आत्माओं के सिर तनु वातवलय के अंतिम भाग को समान रूप से स्पर्श करते हुए होते हैं ।
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