Book Title: Jinabhashita 2004 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 14
________________ यह आश्चर्य की बात कि जिन महान् आचार्य कुन्दकुन्द ने जिनशासन को विकृति से बचाने के लिए श्रमणधर्म और श्रावकधर्म के जिनोक्त स्वरूप को प्रकाशित करनेवाली अमर साहित्यरचना की और आगमोक्त श्रमणधर्म का अक्षरश: पालन करनेवाली श्रमणपरम्परा का पुनरुत्थान किया, जिसके फलस्वरूप उनका नाम भगवान् महावीर और गौतम गणधर के बाद मंगलरूप में स्मरणीय बन गया, उनके नाम का उल्लेख बारहवीं शताब्दी ई. के पूर्व तक किसी भी दिगम्बराचार्य ने अपने ग्रन्थ में नहीं किया। आठवीं शती ई. के वीरसेन स्वामी ने धवला - जयधवला में तत्त्वार्थसूत्र के कर्त्ता गृध्रपिच्छाचार्य, तिलोयपण्णत्तीकार आचार्य यतिवृषभ, समन्तभद्र, पूज्यपाद स्वामी आदि के नाम का उल्लेख तो किया है, किन्तु कुन्दकुन्द के नाम का निर्देश कहीं नहीं किया, जब कि उनके द्वारा रचित समयसारादि ग्रन्थों को आगमप्रमाण के रूप में स्वीकार करते हुए उनसे अनेक गाथाएँ धवलादि में उद्धृत कर अपने कथन की पुष्टि की है। उनके शिष्य आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में समन्तभद्र, सिद्धसेन, पूज्यपाद देवनन्दी, जटासिंहनन्दी, भट्ट अकलंक, वीरसेन स्वामी आदि का स्तवन किया है, किन्तु उनकी जिह्वा पर कुन्दकुन्द का नाम नहीं आया। पुन्नाटसंघी जिनसेन ने भी हरिवंशपुराण में उपर्युक्त आचार्यों की स्तुति की है, किन्तु इनकी लेखनी से भी कुन्दकुन्द का नाम नहीं उतरा । प्राचीन जैन ग्रन्थकारों द्वारा कुन्दकुन्द के नाम - अनुल्लेख का कारण इसका कारण क्या है? यह विचारणीय है । श्वेताम्बर विद्वान् प्रो. ढाकी ने एक अनोखी कल्पना की है। वे लिखते हैं कि दसवीं शताब्दी ई. ( आचार्य अमृतचन्द्र के समय) के पूर्व तक न तो किसी दिगम्बर आचार्य ने अपने ग्रन्थ में कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख किया है, न ही उनके ग्रन्थों पर टीका लिखी गई। इससे सिद्ध होता है कि वे आचार्य अमृतचन्द्र के सौ-दो सौ वर्ष पूर्व ही हुए थे (The Date of Kundakundacharya, Aspects of Jainology, Vol. III, P. 187-189) स्व. पं. सुखलाल जी संघवी (श्वेताम्बर विद्वान् ) और स्व. पं. नाथूराम जी प्रेमी के बीच इस विषय में पत्रव्यवहार हुआ था। संघवी जी के पत्र के उत्तर में प्रेमी जी ने लिखा था ‘“ श्रुतावतार, आदिपुराण, हरिवंशपुराण, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति अगस्त 2004 जिन भाषित 12 Jain Education International प्रो. रतनचन्द्र जैन | आदि प्राचीन ग्रन्थों में जो आचार्य-परम्परा दी हुई है, उसमें उमास्वाति का बिलकुल उल्लेख नहीं है।....... आदिपुराण, हरिवंशपुराण आदि के कर्त्ताओं ने कुन्दकुन्द का भी उल्लेख नहीं किया है, यह विचारणीय बात है। मेरी समझ में कुन्दकुन्द एक खास आम्नाय या सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे। उन्होंने जैनधर्म को वेदान्त के साँचे में ढाला था। जान पड़ता है कि जिनसेन आदि के समय तक उनका मत सर्वमान्य नहीं हुआ, इसीलिए उनके प्रति उन्हें कोई आदरभाव नहीं था।" (पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोधसंस्थान वाराणसी द्वारा प्रकाशित 'तत्त्वार्थसूत्र' की प्रस्तावना, पृ. 73-74)। इस पर आपत्ति करते हुए प्रो. ढाकी प्रश्न करते हैं कि यदि कुन्दकुन्द की नई विचारधारा से अन्य आचार्य सहमत नहीं थे, तो उन्होंने उसका प्रतिवाद क्यों नहीं किया और असहमत होते हुए भी उनके ग्रन्थों का अनुसरण क्यों किया जाता रहा? प्रो. ढाकी का यह प्रश्न उचित है। मैं भी प्रेमी जी से सहमत नहीं हूँ। कुन्दकुन्द के 'वोच्छामि समयपाहुडमिडमो सुयकेवलीभणियं' ये वचन प्रमाण हैं कि उन्होंने किसी नये आम्नाय या सम्प्रदाय का प्रवर्तन नहीं किया था अर्थात् जैन धर्म को वेदान्त के साँचे में नहीं ढाला था, बल्कि श्रुतकेवली भद्रबाहु ने जैसा उपदेश दिया था, वैसा ही उन्होंने अपने प्राभृतग्रन्थों में प्ररूपित किया है तथा कोई भी दिगम्बराचार्य उनके द्वारा प्ररूपित वस्तुतत्त्व से असहमत नहीं था, अपितु सभी आचार्य उनके वचनों को प्रमाणस्वरूप मानते थे । इसीलिए भगवती आराधना, मूलाचार, तिलोयपण्णत्ती, सर्वार्थसिद्धि, भगवती आराधना की विजयोदया टीका, धवला - जयधवला आदि में कुन्दकुन्द की अनेक गाथाएँ ज्यों की त्यों आत्मसात् की गयी हैं, अथवा प्रमाणस्वरूप उद्धृत की गयी हैं । तत्त्वार्थसूत्र की रचना तो प्रमुखतः कुन्दकुन्द के ही ग्रन्थों पर आधारित है । वीरसेन स्वामी ने धवला टीका में न केवल कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का नामोल्लेख किया है, अपितु उनके वचन प्रमाणरूप में उद्धृत किये हैं । और इस प्रकार उन्होंने 'वक्तृप्रामाण्याद् वचन प्रामाण्यम्' इस स्वमान्य न्याय के अनुसार कुन्दकुन्द को प्रामाणिक वक्ता स्वीकार किया है। फिर भी उन्होंने उनके नाम की चर्चा नहीं की। इसका एक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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