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श्रमणचर्या का अभिन्न अंग अनियतविहार
डॉ. श्रेयांसकुमार जैन श्रमण का जीवन सर्वश्रेष्ठ है, इसीलिए गृहस्थ व्रतों का | स्थान में रहने की अनुमति नहीं दी गई है। वह तो भारूण्ड पालन करता हुआ प्रतिपल प्रतिक्षण यही चिन्तन करता है पक्षी की तरह अप्रमत्त होकर ग्रामानुग्राम विहार करता है। कि वह दिन कब आयेगा जिस दिन मैं श्रमणधर्म को ग्रहण विहार की दृष्टि से काल दो भागों में विभक्त है एक वर्षावास कर अपने जीवन को सार्थक करूँगा। चिन्तन मनन के और ऋतुबद्ध काल। वर्षाकाल में श्रमण को साढ़े तीन माह फलस्वरूप गहस्थ गहवास का त्याग कर रत्नत्रयधारी निर्ग्रन्थ या चार माह तक एक स्थान पर रूकना चाहिए। हाँकार्तिक वीतरागी गुरु की शरण में पहुँचकर स्वेच्छाचार विरोधिनी कृष्ण अमावस्या को चातुर्मास पूर्ण हो जाए तो कार्तिक जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार करके श्रमण साधु के स्वरूप को | शुक्ला पंचमी तक तो अवश्य ऐसे स्थान पर रूकना चाहिए प्राप्त करता है। जीवन को मंगलमय बनाता है, उसका मूल इसके बाद कार्तिक पूर्णिमा तक भी धर्मप्रभावना या अन्य उद्देश्य विभाव से हटकर सवभाव में रमण करना,प्रदर्शन न अपरिहार्य कार्यवश उसी स्थान पर साधु रूक सकते हैं। कर आत्मदर्शन करना, केवल आत्मविश्वास के पथ पर | दूसरा ऋतु काल है जिसमें स्वाध्याय आदि के निमित्त गुरु आगे बढ़ता रहना होता है।
आज्ञा पूर्वक एक माह रूकने का भी प्रावधान है। कहा भी ___ मूल उद्देश्य को ध्यान में रखकर नव दीक्षित साधु है- वसन्तादि छहों ऋतुओं में से प्रत्येक ऋतु में एक मास अपने गुरु के साथ संघीय परम्पराओं का पालन करते हुए पर्यन्त ही एक स्थान पर साधु रहे। अनगार धर्म 9/68-69 देशदेशान्तर में विहार करता है। आत्मा की साधना में लीन वर्षाकालस्य चतुर्षु मासेषु एकत्रैवावस्थानं श्रमणत्यागः॥ रहते हुए धर्म प्रभावना करता है। दीक्षा लेने के बाद साधु भ. अ. वि. टी. 421॥ अर्थात वर्षाकाल के चार माहों में का विहार निरन्तर होता है। साधु के विहार के प्रसंग में श्रमण का त्याग कर एक ही स्थान पर आवास करना आचार्य वट्टकेर स्वामी लिखते हैं
चाहिए। वर्षा ऋतु में चार माह एक स्थान पर रूकने का गहिदत्थेय विहारो विदिओ-गिहिदत्थ संसिदो चेव।
कारण है, वर्षा ऋतु में चारों और हरियाली होने से मार्गों के एत्तो तदिय विहारो णाणुण्णादो जिणवरेहिं ।। 140॥
अवरूद्ध होने तथा पृथ्विी त्रस-स्थावर जीवों की संख्या बढ़
जाने से अंतिम संयम आदि का पालन कठिन हो जाता है। मूलाचार विहार के गृहीतार्थ विहार और अगृहीतार्थ
अनगारधर्मामृत में वर्षावास के सम्बन्ध में कहा है किविहार ऐसे दो भेद हैं,इनके सिवाय जिनेश्वरों ने विहार की
. आषाढ़ शुक्ला, चतुर्दशी की रात्रि के प्रथम प्रहर में चैत्यभक्ति आज्ञा नहीं दी है।
आदि करके वर्षायोग ग्रहण करना चाहिए तथा कार्तिक जीवादि तत्वों के स्वरूप के ज्ञाता मुनियों का जो
कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि के पिछले प्रहर में चैत्यभक्ति आदि चरित्र का पालन करते हुए देशान्तर में विहार करते हैं,वह
करके वर्षायोग छोड़ना चाहिए। अनगारधर्मामृत 9-68-69 गृहीतार्थविहार है और जीवादि तत्त्वों को न जानकर चरित्र का पालन करते हुए जो मुनियों का विहार है, वह
गामेयरादिवासी जयरे पंचातवासिणों धीरा। अगृहीतार्थसंश्रितविहार है। इन दोनों प्रकार के विहारों के
सवणा फासुविहारी विविक्त एगांतवासी॥ अर्थ को समझकर यह ज्ञात होता है कि साधु को एक स्थान
॥मू. आ.- 4871 पर ही रहने का विधान नहीं है, वह तो एक गाँव से दूसरे
बोधपाहुड़ टीका में इस प्रकार कहा है कि - वसितै गाँव या एक नगर से दूसरे नगर में जाता रहता है, मूलाचार
वा ग्राम नगरादौ वा स्थामव्यं नगरे पंचरात्रे स्थातव्यं ग्रामे में कहा है-गाँव में एक दिन तथा नगर में पांच दिन अधिक
विशेषण न स्थातव्यम 42-107 ॥ अर्थात नगर में पांचरात्रि से अधिक रहकर विहार कर जाता है जैसा कि आचार्य
और गांव में विशेष नही रहना चाहिए। वर्षावास समाप्त सकलकीर्ति ने लिखा है- प्रासुक स्थान में रहने वाले विविक्त
होने पर श्रमण को विहार तो करना ही होता है किन्तु यदि एकान्त स्थान में निवास करने वाले मुनि किसी गाँव में एक
वर्षा का आधिक्य हो नदी नालों के तीव्र प्रवाह के कारण दिन रहते हैं और नगर में पांच दिन रहते हैं। र्यापरीषद के मार्ग दुर्गम हो गये हों, कीचड़ आदि की अधिकता हो या वर्णन प्रसंग में यही बात भट्टकलंकदेव ने कही है। श्वेताम्बर |
बीमारी आदि का भी कारण हो तो साधु वर्षायोग के बाद साहित्य में भी यही बात आयी है। निर्ग्रन्थमुनि को एक | भी नगर ग्राम के जिनमन्दिर में ठहरे रह सकते हैं। 8 अगस्त 2004 जिन भाषित
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