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आचार्यवर्य सिद्धान्तानुसार संग्रह में वर्षाकाल में मुनि | देशान्तरों में विहार करने वाले साधु को उस क्षेत्र का को सीमित क्षेत्र से बाहर जाने की परिस्थितियों को भी | परिज्ञान होता है जो क्षेत्र कर्दम, अकुंर त्रस जीवों की बहुलता दर्शाते हैं
से रहित हैं। जीव बाधा रहित गमन योग्य क्षेत्र को भी जान द्वादश योजनान्येव वर्षाकाले-भिगच्छति । लेता है। जिस क्षेत्र में आहार पान मिलना सुलभ होता है यदि संघस्य कार्येण तदा शुद्धो न दुष्यति ॥ 10-60॥ | और सल्लेखना आदि के योग्य होता है उसका भी ज्ञान वर्षाकाल में संघ के कार्य के लिए यदि मुनि बारह | होता है। इसलिए अनियतविहार आवश्यक है। इसी सम्बन्ध योजन तक कहीं जायेगा तो उसका प्रायश्चित ही नहीं है | में और भी कहा हैऔर यदि वाद-विवाद से महासंघ के नाश होने का प्रसंग
प्रेक्ष्यन्ते बहदेश संश्रयवशात्संवेगिताद्यांप्तय हो तो वर्षाकाल में भी देशान्तर जाना दोषयुक्त नहीं है। स्तीर्थाधीश्वर केवली द्वयमही निर्वाणभूम्यादयः।
भगवती आराधना में तो अनियतविहार नामक साधु स्थैर्य धैर्यं विरागतादिषु गुणेष्वाचार्यवर्ये, की चर्या का पृथक अधिकार ही है। इसमें अनियतविहार
क्षणाद्विद्या वित्तसमागमाधिगमो नूनार्थ सार्थस्य च॥ द्वारा साधु के दर्शन की शुद्धता, स्थितिकरण, भावना,
अनियतविहार करने में अनेक देशों का आश्रय लेना अतिशयार्थ-कुशलता, क्षेत्रपरिमार्गणा गुणों की उत्पत्ति बतायी पड़ता है जिसमें संवेग वैराग्य आदि अनेक गुणों को धारण
करने वाले अनेक आप्तजनों के पूज्य पुरुषों के दर्शन होते अनेक क्षेत्रों में विहार करने से साधु तीर्थंकरों की | हैं। तीर्थंकरों को जहाँ- जहाँ केवल ज्ञान प्रगट हुआ है जन्म, तप, ज्ञान और समवशरण की भूमियों के दर्शन और | अथवा जहाँ- जहाँ निर्वाण प्राप्त होता है उन समस्त तीर्थक्षेत्रों ध्यान करने से अपने सम्यक्त्व को निर्मल रखता है। जगह- | के दर्शन प्राप्त होते हैं। अनेक उत्तमोत्तम आचार्यों के दर्शन जगह विहार के काल में अन्य वीतरागी साधकों से मिलने | से धीरता वैराग्य आदि उत्तम गुणों से स्थिरता प्राप्त होती है पर संयम की अभिवृद्धि होती है उनके उत्तम चरित्र को | और विद्यारूपी धन की प्राप्ति होने से निश्चित अर्थों के जानकर स्वयं उत्तम चरित्र पालन के प्रति उत्साह बढ़ता है। | समूह का ज्ञान होता है। सदाकाल विहार करते रहने पर धर्म में प्रीति बढ़ती है। पाप
अनियत विहारी साधक की सल्लेखना भी ठीक तरह से भयभीत रहता है। सूत्रार्थ में प्रवीणता आती है। दूसरे के | से होती है क्योंकि वह जगह-जगह विहार करते रहने के संयम को देखने से धर्माराधकों की धर्मराधना को देखने से | कारण उन स्थानों में भी परिचित होता है, जहाँ धार्मिकता स्वयं को धर्म में स्थितिकरण की भावना जगती है। निरन्तर | होती है। एकान्त, शान्त, निराकुलता रह सकती है। नियतवासी विहार करने वाले साधु को चर्या परीषह होती है, कंकर | प्रायः स्थान विषयक अथवा अपने निकटस्थ लोगों के प्रति मिट्टी पैरों में चुभती है। पादत्राण रहित चरणों से मार्ग में | रागभाव रखने लगते हैं अतः दूसरे अपरिचित स्थान और चलने पर जो वेदना उत्पन्न होती है उसे संक्लेश भाव रहित | मनुष्यों के बीच पहुँचकर साधक भली प्रकार से संल्लेखना सहन करने पर चर्यापरीषह सहन होती है जिससे संयम में | ग्रहण कर आत्मकल्याण कर सकता है कहा भी हैवृद्धि होती है। क्षुधा, तृषा, शीत उष्ण परीषह सहन की सद्रूपं बहुसूरी भक्तिकयुतं क्षमादि दोषोज्झितं, शक्ति बढ़ती है। अनेक क्षेत्रों में विहार करने वाले साधु को
क्षेत्रपात्रमीक्ष्यते तनुपरित्यागस्य निःसंगता।। अतिशय रूप अर्थ में प्रवीणता भी आ जाती है। जैसा कि
सर्वस्मिन्नपि चेतनेतर बहिः संगे स्वशिष्यादिके, कहा गया है
गर्वस्वयापचयः परीषहजयः सल्लेखना चोत्तमा॥ णाणादेसे कुसलो णाणादेसेगदाण सत्थाएं।
मुनिराज को सल्लेखना धारण करने के लिए ऐसे क्षेत्र अभिलाव अत्थकुसलो होदि य देसप्पवेसेण॥
देखने चाहिए, जहाँ पर राजा उत्तम धार्मिक हो, जहाँ के ॥भग. आ. 153॥
लोग सब आचार्यादिकों की बहुत भक्ति करने वाले हों। नवीन-नवीन स्थानों पर विहार करने से अनेक देशों | जहाँ पर निर्धन और दरिद्र प्रजा न हो। इसी प्रकार पात्र ऐसे के रीति-रिवाज का ज्ञान होता है लोगों के चरित्र पालन की | देखने चाहिए जिनके शरीर त्याग करने में भी निर्मोहपना हो योग्यता-अयोग्यता की जानकारी होती है। अनेक मंदिरों | तथा अपने शिष्यादिकों में भी अभिमान न हो और जो आदि स्थानों पर विराजमान शास्त्रों में प्रवीणता होती है। परिषहों को अच्छी तरह जीतने वाले हों ऐसा क्षेत्र और अर्थ बोध होता है। अनेक आचार्यों के दर्शन लाभ से अतिशय | पात्रों को अच्छी तरह देखकर सल्लेखना धारण करनी चाहिए। रूप से अर्थ में कुशलता भी होती है।
उक्त व्यवस्था अनियतविहारी साधु की ही बन सकती
अगस्त 2004 जिन भाषित 9 For Private & Personal Use Only
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