Book Title: Jinabhashita 2004 08 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 8
________________ सागारधर्मामृत के 8 वें अध्याय में निम्न प्रकार पाया जाता | का अर्थ यहां क्षुल्लिका मालूम पड़ता है। पं. आशाधर जी ने इसी कथन को भगवती आराधना की गाथा 81 की अपनी त्रिस्थानदोषयुक्तायाप्यापवादिकलिंगिने। मूलाराधना टीका में निम्न प्रकार किया है। महाव्रतार्थिने दद्याल्लिंगमौत्सर्गिकं तदा ॥35॥ स्त्रियां अपि औत्सर्गिकं आगमऽभिहितं, परिग्रहमल्पं निर्यापके समर्प्य स्वं भक्त्यारोप्य महाव्रतम्। कर्वत्या इति योज्यं औत्सर्गिकं तपस्विनीनां, शाटकमात्र निश्चेलो भावयेदन्यस्त्वनारोपितमेव तत्॥44॥ परिग्रहे ऽपि तत्र ममत्व परित्यागादपचारतो अर्थ-अंडकोश और लिंगेन्द्रिय संबंधी तीन दोष युक्त भी नैग्रन्थव्यवहारणानुसरणात।आपवादिकं श्राविकाणां तथा हो तथापि आपवादिक लिंगी कहिए 11 वीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट विधममत्व परित्यागाभावादुपचारोतोऽपि नैग्रन्थ्य श्रावक जो कि आर्य कहलाता है वह यदि महाव्रत का अर्थी | | व्यवहारानवतारात्। तत्र संन्यास काले लिंग हो तो उसे समाधिमरण के अवसर में आचार्य मुनि के 4 | तपस्विनीनामयोग्यस्थाने प्राक्तनं इतरासां पुंसामिवेति (लिंगों-चिह्नों) में से एक नग्नलिंग को देवे। अर्थात् वस्त्र | योज्यम्। इदमत्र तात्पर्यं-तपस्विनी मृत्युकाले योग्ये स्थाने छुड़ाकर उसको नग्न बना दे। वस्त्रमात्रमपि त्यजति। अन्या तु यदि योग्यं स्थानं लभते, __ जब वह निचेल हो जाए तो अपने को भक्ति से निर्यापक | यदि च महर्द्धिका सलज्जा मिथ्यात्व प्रचुर ज्ञातिश्च न, कहिए समाधिमरण कराने वाले आचार्य के अधीन करके | तदा पुंवद्वस्त्रमपि मुंचति।नो चेत् प्रालिंगेनैव म्रियते। और उनके वचनों से अपने में महाव्रतों की भावना भावे। यह | अर्थ- आगम में स्त्री के भी उत्सर्ग लिंग बताया है वह उत्कृष्ट श्रावक यदि लज्जा आदि के वश से समाधिमरण के अल्पपरिग्रहवाली श्राविका (क्षुल्लिका) के संन्यासकाल में वक्त वस्त्र त्याग न कर सके तो वह अपने में महाव्रतों का | बताया है। आर्यिकाओं के तो वैसे ही औत्सर्गिक लिंग होता आरोपण नहीं कर सकता है। क्योंकि सग्रंथ को महाव्रतों के | है। क्योंकि उनके साड़ी मात्र में भी ममत्व न होने से उपचार आरोपण करने का अधिकार नहीं है। उसे बिना आरोपित | से उनमें निर्ग्रन्थता का व्यवहार है। जबकि क्षुल्लिका किए ही महाव्रतों की भावना भानी चाहिए। श्राविकाओं के उस प्रकार से ममत्व का त्याग नहीं होता __ भगवती आराधना की गाथा 80 में नग्नत्व, लौच, पिच्छिका | इसलिए उनमें उपचार से भी निर्ग्रन्थता का व्यवहार नहीं है। धारण, और शरीर संस्कार हीनता ऐसा 4 चिह्न (लिंग) मुनि | अतः उनके आपवादिक लिंग होता है। संन्यासकाल में योग्य के बताए हैं। स्थान आदि न मिले तो आर्यिकाओं के पूर्वकालीन लिंग ही इस प्रकरण में आशाधर ने श्लोक 38 में ऐसा कहा है | रहता है। तथा क्षुल्लिकाओं के सन्यासकाल में क्षुल्लक पुरुषों की तरह उत्सर्ग लिंग और अपवाद लिंग दोनों होते हैं। औत्सर्गिकमन्यद्धा लिंगमुक्तं जिनैः स्त्रियाः। तात्पर्य यह है कि-आर्यिका मृत्युकाल में योग्य स्थान के पुंवत्तदिष्यते मृत्युकाले स्वल्पीकृतोपधेः॥38॥ मिलने पर वस्त्र मात्र को भी त्याग देती है और क्षुल्लिका अर्थ- जिनेन्द्रों ने स्त्री के जो औत्सर्गिक और आपवादिक योग्य स्थान मिलने पर यदि महर्द्धिका , सलज्जा और कट्टर खिंग कहा है। उसमें औत्सर्गिक लिंग श्रुतज्ञों ने मृत्युकाल में मिथ्यात्वी जाति की न हो तो वह भी क्षुल्लक पुरुष की तरह पुरुष की तरह एकांतवसतिका आदि सामग्री के होने पर वस्त्र | वस्त्रों को त्याग कर नग्न हो जाती है। और यदि वह सलज्जा मात्र को भी त्याग देने वाली क्षुल्लिका के लिए माना है। आदि हो तो समाधि मरण के समय में अपने पूर्वलिंग को अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार औत्सर्गिक लिंग धारण धारण की हुई ही मरती है। करने वाले पुरुष के मरण समय में औत्सर्गिक लिंग ही कहा क्षुल्लिका वह कहलाती है जो आर्यिका से कुछ अधिक है। और आपवादिक लिंग वाले के लिए ऊपर जैसा कथन वस्त्र रखती है और जितना रखती है उतने में उसके ममत्व किया है वैसा ही स्त्री के लिए भी समझना चाहिए। अर्थात् भाव रहता है। मस्तक के बाल कैंची आदि से उतरवाती है। योग्य स्थान मिलने पर आर्यिका नग्न लिंग धारण करे और उसे क्षुल्लक पुरुष के स्थानापन्न समझनी चाहिए। उसकी क्षुल्लिका भी नग्न लिंग धारण करे। किन्तु क्षुल्लिका यदि | गणना श्राविकाओं में की जाती है। और आर्यिका के अपनी समद्धिशाली घर की हो यानी राजघराने आदि की हो और | साड़ी में ममत्व नहीं होता इसलिए वह सवस्त्रा होकर भी नग्न होने में उसे शर्म आती हो तो वह नग्न न होकर क्षुल्लिका | मुनि के स्थानापन्न समझी जाती है और इसी से शास्त्रों में के वेष में ही रह कर समाधि मरण करे। उसके उपचार से महाव्रत माना है। ऊपर के श्लोकों में क्षुल्लक पुरुष के लिंग धारण का ____ इन उपर्युक्त उल्लेखों से यही प्रगट होता है कि-उत्कृष्ट कथन किया है और इस श्लोक में स्त्री क्षुल्लिका के लिए | श्रावकों(क्षुल्लकों) के लिए समाधिमरण के अवसर में नग्न कथन किया है। श्लोक में प्रयुक्त 'स्वल्पीकृतोपधेः' वाक्य । हो जाने की शास्त्राज्ञा है। जिससे कि उनमें महाव्रतों की 6 अगस्त 2004 जिन भाषित कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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