Book Title: Jin Dharm Vivechan
Author(s): Yashpal Jain, Rakesh Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 6
________________ जिनधर्म-विवेचन परवर्ती चिन्तकों को बरैयाजी की यह कृति भी विस्तृत जान पड़ी तो उन्होंने इसे ही आधार बनाकर लघु जैन सिद्धान्त प्रवेशिका की रचना की है। जो विशेषरूप से समाज में प्रचलित है। ____ इसी लघु जैन सिद्धान्त प्रवेशिका के आधार से वयोवृद्ध विद्वान् श्री रामजीभाई माणिकचन्दजी दोशी ने श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला के तीन भागों की रचना की है। इन्हीं तीन भागों को आधार बनाकर श्री जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला के सात भाग एवं लघु जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला की रचनाएँ पण्डित श्री कैलाशचन्दजी बुलन्दशहर वालों ने की है। उपर्युक्त सभी कृतियों के आधार से ही मैंने भी जिनधर्म-प्रवेशिका की रचना की है। यद्यपि करीब १० वर्ष पहले मैंने अपनी ही कृति जिनधर्मप्रवेशिका के आधार पर जिनधर्म-विवेचन लिखा था, तथापि उससे मैं उतना सन्तुष्ट नहीं हो पाया था, इस कारण उसका प्रकाशन नहीं कराया; अतः मैंने पुनः नये प्रयास के साथ जिनधर्म-विवेचन लिख दिया है। अपने जीवन में मैंने भी अपनी पात्रता के अनुसार जिज्ञासु पात्र जीवों को धर्म समझाने का प्रयास किया है। उस प्रयास के आधार से मैं यह कहना चाहता हूँ कि जिनधर्म-विवेचन का भी समाज अवश्य लाभ लेगा; क्योंकि जिनधर्म-प्रवेशिका का हिन्दी, मराठी और कन्नड़ मातृभाषिक लोगों ने लाभ लिया है और ले रहे हैं। लाभ लेने वालों की संख्या कितनी है, इस सम्बन्ध में मैं अधिक सोचता नहीं; क्योंकि साक्षात् तीर्थंकर की दिव्यध्वनि जब समवसरण के माध्यम से खिरती थी, तब भी मर्यादित जीव ही सत्यार्थ तत्त्व का लाभ लेते थे। विषय-कषाय के पोषण से रहित वीतरागी तत्त्व का लाभ लेनेवाले लोग नियम से हमेशा मर्यादित ही रहेंगे - ऐसा ही वस्तुस्वरूप है; अतः धर्मलाभ लेनेवालों की संख्या में कमी से मैं कभी भी प्रभावित नहीं होता। इस कृति में जो कुछ तात्त्विक विषय बताया गया है, वह सब सर्वज्ञकथित एवं आचार्यों द्वारा रचित जिनवाणी का ही है। मैंने तो मात्र अपने उपयोग/ज्ञान को निर्मल बनाने की भावना से ही यह विषय लिखने का विकल्प किया है। इस कृति में जो विषय सत्य है, वह तो जिनवाणी का है और जो कमियाँ हैं, वह सब मेरी हैं - ऐसा मेरा नम्र निवेदन है । अस्तु ! ॥ वीतरागाय नमः ।। जिनधर्म-विवेचन मंगलाचरण देव-शास्त्र-गुरु को नमूं; नमूं दिगम्बर धर्म । वीतरागता हो प्रगट; सहज मिले शिव शर्म ।। पंच परम पद विश्व में; आगम के अनुसार। उनकी श्रद्धा भक्ति से; होउं भवोदधि पार ।। शासन वीर जिनेन्द्र का; वर्त रहा है आज । उनके चरणों में नमन; सहज सफल सब काज ।। घाति कर्म सब नाश कर; अनन्त चतुष्टय पाय। सप्त धातु से रहित तन; औदारिक कहलाय ।। दोष अठारह हैं नहीं; शुद्ध ज्ञान-भण्डार। हैं अरहन्त परमेष्ठी; ध्यान धरो गुण-धार ।। अष्ट कर्म का नाश कर; लिए अष्ट गुण-धार। ज्ञाता-दृष्टा लोक के; निराकार अविकार।। लोक-शिखर पर वास है; ज्ञानरूप घन पिण्ड । सिद्ध सदा ही ध्याइये; शिव सुख मिले अखण्ड। कुन्दकुन्द को नित नमन; दिया 'समय' का सार। भूल सकेगा कौन कब; उनका यह उपकार? है यह 'जिनधर्म-विवेचन'; जिन शासन का द्वार। कथन करे जिनधर्म का; आगम के अनुसार।। - श्री बाबूलालजी बाँझल, गुना (6)

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