Book Title: Jin Dharm Vivechan Author(s): Yashpal Jain, Rakesh Jain Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 4
________________ जिनधर्म-विवेचन ६ ५. मूल ग्रन्थों के सन्दर्भों की शुद्धता बनाये रखने का विशेष प्रयास किया गया है । इसप्रकार इस पुस्तक का सम्पादन-संशोधन करते हुए मेरा भी विषय के सम्बन्ध में विशेष अध्ययन हुआ है और ज्ञान में निर्मलता वृद्धिंगत हुई है। मुझे इस कार्य को करने का अवसर प्रदान करके आदरणीय यशपाल अण्णाजी ने मेरा परम उपकार ही किया है। यह विषय, हमारे अपने कल्याण में अत्यन्त उपयोगी है, अतः पाठकों से इसका गहराई से अध्ययन करने का आग्रहपूर्वक निवेदन है। आदरणीय अण्णाजी ने मुझसे कहा कि मैं यहाँ अपने शोध ग्रन्थ का कुछ परिचय लिखूँ, ताकि पाठकों को उसकी कुछ जानकारी हो सके, अत: यहाँ उसका संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करने का प्रयास करता हूँ "यह शोध-प्रबन्ध, संस्कृत भाषा में श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली के अंतर्गत माननीय डॉ. वीरसागर जैन दिल्ली के कुशल निर्देशन में प्रस्तुत किया गया है। इस शोध-प्रबन्ध का मुख्य शीर्षक 'जैनदर्शन में अर्थ के द्रव्यगुण- पर्याय का स्वरूप' है; इसमें सात अध्याय हैं ह्र १. प्रथम अध्याय में 'प्रस्तावना' के रूप में जैनदर्शन के संक्षिप्त इतिहास के साथ-साथ विशेषरूप से द्रव्य-गुण- पर्याय को जानने का प्रयोजन बताया गया है। २. द्वितीय अध्याय में 'अर्थ का अनुशीलन' किया गया है; क्योंकि प्रवचनसार की गाथा ८७ में अर्थ के तीन प्रकार बताये गये हैं ह्र द्रव्य, गुण और पर्याय। इसमें अर्थ की अनेकान्तात्मकता, सत्ता का निरूपण, द्रव्यक्षेत्र - काल-भाव के आलोक में लोक / विश्व का स्वरूप, इसके अन्तर्गत विश्व, पदार्थ, वस्तु, अस्तिकाय, तत्त्व, भाव आदि का पृथक्-पृथक् विवेचन भी किया गया है। (4) सम्पादकीय ३. तृतीय अध्याय में 'द्रव्य का अनुशीलन' के अन्तर्गत द्रव्य क्या है ? द्रव्य का स्वरूप, सत्ता, गुण, पर्याय, उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य आदि की अपेक्षा क्या है ? इसीप्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय की परस्पर भिन्नताअभिन्नता, षड् द्रव्य, द्रव्य की शुद्धता-अशुद्धता का स्वरूप इत्यादि विषयों का अध्ययन किया गया है। ७ ४. चतुर्थ अध्याय में ‘गुण का अनुशीलन' करते हुए, गुणों के पर्यायवाची, गुणों की द्रव्याश्रितता, गुणों की निर्गुणता, गुणों की नित्यानित्यात्मकता, गुण शब्द के अन्यत्र प्रयोग; जैसे- गुणस्थान, पंच परमेष्ठियों के क्रमशः ४६, ८, ३६, २५, २८ आदि विशेष गुण, गुण की पदार्थरूपता, गुणार्थिकनय, गुणों की परिणमनशीलता, गुणों के अ प्रकार से भेद-प्रभेद, सैंतालीस शक्तियाँ इत्यादि विषयों को संगृहीत किया गया है । ५. पंचम अध्याय में 'पर्याय की व्याख्या' की गई है; उसमें विशेषरूप से पर्याय की व्युत्पत्ति स्वरूप एवं लक्षण, पर्याय के द्रव्यपर्याय, गुणपर्याय, स्वभावपर्याय, विभावपर्याय, अर्थपर्याय, व्यंजनपर्याय, शुद्धपर्याय, अशुद्धपर्याय, कारणशुद्धपर्याय, कार्यशुद्धपर्याय, क्रमभावीपर्याय, सहभावीपर्याय, स्वपर्याय, परपर्याय, ऊर्ध्वपर्याय, तिर्यक् पर्याय, अनादिपर्याय, सादिपर्याय, सदुत्पाद, असदुत्पाद आदि भेद-प्रभेदों, पर्याय का काल, चार अभाव, क्रमबद्धपर्याय, पंच समवाय आदि विषयों का अनुशीलन किया गया है। ६. षष्ठम अध्याय में विशेषरूप से 'द्रव्य-गुण- पर्याय की परस्पर आश्रयता' को उद्घाटित किया गया है। एक ही द्रव्य में अन्यत्व - अनन्यत्व, द्रव्य की तात्कालिक व त्रैकालिक अनन्यता, नयदृष्टि-प्रमाणदृष्टि से द्रव्य गुण- पर्याय का स्वरूप, द्रव्य-गुण- पर्याय की पृथक्-पृथक् नित्यानित्यता, द्रव्य- अस्तिकाय-पदार्थ-तत्त्व की द्रव्य-क्षेत्र-काल- भावमयता,Page Navigation
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