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जसहरचरिउ
था, वह अब धारा नरेशकी कोपाग्निसे भस्म हो गया । अब ये पुष्पदन्त कवि कहाँ निवास करेंगे ? अन्य ऐतिहासिक उल्लेखोंपरसे सिद्ध है कि धाराके परमारवंशी राजा हर्षदेव सीयकने विक्रम संवत् १०२९= ९७२ ई. में मान्यखेटको लूटा और जलाया था। यह घटना कृष्णराज तृतीयके राज्यकाल में नहीं, किन्तु उनके उत्तराधिकारी ‘खोट्टिगदेव' के राज्यकाल में घटित हुई थी । अतएव इस घटनाका उल्लेख ९६५ ई. में समाप्त हुए महापुराणमें किस प्रकार समाविष्ट हुआ ? इसका समाधान महापुराणके सम्पादक डॉ. परशुराम लक्ष्मण वैद्यने भलीभाँति कर दिया है कि अनेक प्राचीन प्रतियोंमें ये सन्धिके आदिके पद्य नहीं पाये जाते तथा भिन्न प्रतियों में वे भिन्न स्थानोंपर भी आये हैं । इससे प्रतीत होता है कि उनका समावेश ग्रन्थ पूर्ण हो जाने तथा उसकी अनेक प्रतियाँ निकल जानेके पश्चात् किया गया है। इससे इतना अवश्य सिद्ध होता है कि पुष्पदन्त कवि ९७२ ई. तक मान्यखेटमें ही रहे । सम्भवतः नगरकी उक्त विध्वस्त अवस्थाका ही चित्रण उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थके अन्तिम कडवकमें किया है कि “जब नगरमें कपाल और नरकंकाल पड़े हुए थे, निर्धन घर बहुत हो गये थे और भीषण दुष्काल फैल गया था ऐसे समय में भी नन्न मन्त्रीने पुण्यसे प्रेरित होकर भक्तिपूर्वक मेरा बड़ा उपकार किया। उन्होंने मुझे अपने विशाल भवनमें रखा, सरस भोजन कराया, स्निग्ध वस्त्र पहननेको दिये और उत्तम ताम्बूलोंसे मेरा सम्मान किया" । इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि पुष्पदन्तने यशोधर चरितकी समाप्ति ई. सन् ९७२ में मान्यखेटके उक्त विध्वंसकी घटनाके पश्चात् की । इस प्रकार प्रस्तुत कृति जसहरचरिउ पुष्पदन्तकी उक्त तीन रचनाओं में कालकी दृष्टिसे अन्तिम सिद्ध होती है ।
४. प्रक्षेपों का समावेश
'जसहरचरिउ' के प्रथम सम्पादक डॉ. वैद्यने जिन चार-पाँच प्राचीन प्रतियोंके आधारसे ग्रन्थका सम्पादन किया था उन्हें उन्होंने मुख्यतः दो परम्पराओंमें विभाजित किया था । सेनगण द्वारा सुरक्षित प्राचीन प्रति सन् १३३३ ई. में जीर्ण हो चुकी थी । अतएव वह उस समय भी दो-तीन शती प्राचीन रही होगी, और इस प्रकार उसका लेखनकाल कविके रचनाकालसे बहुत दूरवर्ती नहीं रहता । उसकी परम्परामें लिखी गयी उत्तरकालवर्ती प्रतियोंमें प्रस्तुत ग्रन्थके निम्न तीन अनुच्छेद नहीं पाये जाते :
१. सन्धि १, ५, ३ से लेकर १, ८, १७ तक भैरवानन्दके आगमन विषयक | २. सन्धि १, २४, ९ से १, २७, २३ तक यशोधर के विवाह विषयक
३. सन्धि ४, २२, १७ से ४, ३०, १५ तक नाना पात्रोंके भव-भ्रमण विषयक । २३ से अन्त तक के कवकों आदिमें दुवई पद्य भी नहीं पाये जाते ।
किन्तु बलात्कारगण परम्परा की प्रतियोंमें इनका सद्भाव पाया जाता है । ये पाठ-भेद आकस्मिक नहीं हैं । वे योजनाबद्ध हैं, जिसकी सूचना उक्त तीनों स्थलोंपर स्पष्टतः दे दी गयी है । प्रथम प्रक्षिप्त प्रकरण अन्तकी तीन पंक्तियोंमें कहा गया है कि गन्धर्व कहता है कि "यह राजा और योगीश्वरका संयोग मैंने किया है और अब इसके आगे कविकुल-तिलक सरस्वती-निलय कविराज पुष्पदन्त देवी स्वरूपका वर्णन करते हैं ।” इसके पश्चात् नवाँ प्रकरण प्रारम्भ होता है । द्वितीय प्रकरणकी अन्तिम पंक्ति में कहा गया है। कि “पूर्वकालमें जो कुछ वासवसेनने रचा था उसे देखकर गन्धर्वने यह कविता की ।" तीसरे प्रसंगकी सत्रह पंक्तियों में उक्त तीनों सन्दर्भ जोड़े जानेका विस्तारसे विवरण दिया गया है, जिसका सार-संक्षेप इस प्रकार है— एक बार पट्टन निवासी छंगे साहुके पौत्र, खेला साहुके पुत्र बीसल साहुने कृष्ण के पुत्र पं. ठक्कुर गन्धर्वसे कहा कि आप पुष्पदन्तकृत 'जसहर चरिउ' में कौल ( भैरवानन्द ) के राजकुल में प्रवेश, यशोधरके विवाह तथा सब पात्रोंके भवभ्रमणके वर्णन प्रविष्ट कर दीजिए । तदनुसार ही गन्धर्वने इन तीनों प्रकरणोंकी रचना करके साहुजीको सुनाया, जिससे वे बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने यह रचना पूर्वकालीन वत्सराज कवि द्वारा वस्तुबन्ध काव्यके आधारसे उस समय की जब वे योगिनीपुर ( दिल्ली ) में उक्त साहुजीके घरपर सुखपूर्वक निवास कर रहे थे । यह रचना विक्रम संवत् १३६५, वैशाख कृष्ण द्वितीया तृतीया दिन रविवार को
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