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हिन्दी अनुवाद
१९. तलवर और मुनिका संवाद
तलवरने कहा—योद्धाके शासन में तो धनुषको हो धर्म कहा गया है । उसके छोरोंपर जो प्रत्यंचा बँधी रहती है, वही उसका गुण है, तथा रणमें शत्रुका विनाश करनेके लिए जो बाण छोड़ा जाता है वही मोक्ष है । इसके अतिरिक्त मैं अन्य किसी धर्मं, गुण या मोक्षको नहीं जानता । मैं तो अपनी पाँचों इन्द्रियों के सुखों को ही सुख मानता हूँ । किन्तु तू तो ऐसा दुर्बल दिखाई देता है, तेरे पास न चोर है न वस्त्र और न कम्बल । तेरे आठों अंग दुर्बल और खिन्न हो रहे हैं, तथा तेरे नेत्र जाकर कपाल में विलीन हो गये हैं । तेरा शरीर पसीनेसे लिप्त है । इसे धो क्यों नहीं डालता ? तू रात-दिन में एक पलके लिए भी सोता क्यों नहीं ? अपने मुखपर नेत्रोंको बन्द कर तू किस बात का ध्यान करता है और हम जैसे लोगों में भ्रान्ति उत्पन्न करता है ? इसपर मुनिने कहा- मैं अपना ध्यान लगाकर जीव और कर्म इन दो का विभाजन करता हूँ। तथा जीवके लिए उस शाश्वत स्थान, अजर-अमर परमनिर्वाणकी अभिलाषा करता हूँ । यह जीव पुरुष हुआ, स्त्री हुई और नपुंसक भी हुआ । शान्त स्वभाव भी हुआ और यमदूतके समान प्रचण्ड भी । राजा भी व दोन याचक भी । रूपवान् और कुरूप भी । मलिनगोत्र व उज्ज्वलगोत्र भी । तथा बलहीन व अतुल बलशाली भी । वह नरभव में आर्य भी हुआ और म्लेच्छ भी तथा दरिद्रो और धनवान् भी । विद्वान् होकर फिर चाण्डाल भी हुआ । इस संसारको ऐसी ही विषम दशा है || १९||
३. २१.२ ]
२०. मुनिका उपदेश
यह जीव क्रूर मांसाहारी भी हुआ और वनमें तृणचारी मृग भी हुआ । तत्पश्चात् रत्नप्रभा आदिक नरकोंमें उत्पन्न होकर बड़े-बड़े आघात सहे । नरकवासी होकर फिर जलचर हुआ, थलचर व नभचर हुआ और फिर तिर्यंच हुआ । इन भवों में इसने बहुतसे पाप किये । फिर कुछ कुत्सित देवोंके भवमें जा पड़ा जहां रत्नत्रयका अभाव रहा। इस प्रकार अन्य अन्य देह धारण करते हुए और छोड़ते हुए जीते और मरते हुए, हाय बाप, दुःख सहते हुए बहुत काल व्यतीत हुआ । मैं अपने मनमें दुःखको पापका फल मानता हूँ, और इसीलिए इन्द्रिय-सुखों की निन्दा करता हूँ । मैं तो भिक्षा मांगता हूँ, तपस्या करता हूँ, थोड़ा सा खाता हूँ और निर्जन स्थान में निवास करता हूँ । धर्मका उपदेश देता हूँ या फिर मौनसे रहता हूँ । मैं मोहकी इच्छा नहीं करता और निद्रा में भी नहीं जाता । मैं क्रोध नहीं करता तथा कपटको खरोंच फेंकता हूँ । मानको खँच फेंकता हूँ तथा लोभका त्याग करता हूँ । देहके दुःख में उद्वेग उत्पन्न होता है, किन्तु मैं कहीं भी कामका उन्माद नहीं करता । न मैं भयसे आतुर होता और न शोकसे भींजता हूँ । में न हिंसा कार्य करता और न दम्भ उत्पन्न करता । मैं स्त्रीके देखने में अन्धा हूँ, गीत सुनने में बहरा, कुतीर्थ - पन्थ में गमन करने में लँगड़ा एवं अधार्मिक कथा वर्णन में मूक रहता हूँ ||२०||
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२१. मुनिचर्या तथा जीवको सत्ता
जो यह आहारदेह अर्थात् अन्नमयशरीर है, वह जोवसे भिन्न है और अचेतन है, ऐसा मैं मानता हूँ। वह जो सचेतनके समान दौड़ता फिरता है, वह वैसा ही है, जैसे बैलके द्वारा खींची
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