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४. २८.३३] हिन्दी अनुवाद
१५३ चरणोंके भक्तको सब घरका भार सौंप दिया और स्वयं समस्त द्वन्द्वसे मुक्त होकर मनमें समताभावकी साधना करते हुए घर ही में रहने लगा। इस शुभ भावनासे युक्त होते हुए घर ही में उसने अपने शरीरका परित्याग किया और अगले जन्म में श्रीपति नामक वणिक्के घरमें उसका पुत्र हुआ। उसका नाम गोवर्धन रखा गया। वह विशाल गुणशाली, सम्यक्त्ववान्, देदीप्यमानमस्तकवाला, करुणाका निधान और परम परोपकारी हुआ। उसीने यशोमति राजाका सम्बोधन कराया । सुदत्तमुनि कहते हैं-हे राजन् मारिदत्त, वे हो तपरूपी लक्ष्मी के गृह गोवर्धन मुनि मेरे संघमें हो विहार करते हैं और देखो, वे यहाँ हो बैठे हैं ।
इन समस्त जन्म-जन्मान्तरोंके वृत्तान्त सुनकर राजा मारिदत्त आनन्द और शोकसे पूरित हो गये । वे बोले-हे मुनिराज, मैं आपको पूर्ण विनय करने में समर्थ नहीं हूँ। हे प्रमो, आपने मेरा सम्बोधन किया और आपने मुझे धर्मलाभ दिया है। अब सुप्रसन्न होकर मुझे दीक्षा दीजिए। मैं तपश्चरण करूंगा और आपकी शिक्षाको पालूंगा। इसपर आचार्यने उनको दिगम्बर मुनिकी दीक्षा दे दो, और मारिदत्त अपनी राज्यलक्ष्मीसे मक्त हो गये। उनके साथ अन्य पैंतोस नरेश भी नीतिसे अपने कषायोंको जीतकर निर्ग्रन्थ मुनि हो गये। राजा मारिदत्तको दीक्षासे विभूषित हुआ देख योगोश्वर भैरवानन्दको भी वैराग्य उत्पन्न हो गया और वे बोल उठे-के स्वामि-श्रेष्ट हे विशाल गणशाली आचार्य, मझे भी दोक्षा देनेको कृपा कीजिए । मनिने कहा-क्योंकि तम्हारे हाथमें छह अंगुलियाँ हैं, अतएव अधिकांग होने के कारण तुम्हारे लिए दोक्षाका विधान नहीं है। तब भैरवानन्दने कहा-हे देव, तब मैं क्या करूं? इसपर आचार्य बोले कि तुम दृढ़ता पूर्वक अनशनव्रतका पालन करो। तुम्हारे शरीरके लक्षणोंसे दिखाई देता है कि अब तुम्हारी आयु अल्प ही शेष है। अतएव अपनी भलाईके लिए तुम शीघ्र यही उपाय करो। इसपर भैरवने भव्य संन्यास धारण किया और बाईस दिन तक सब प्रकारसे उसका पालन करते हुए खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय इन चारों प्रकारके आहारोंके त्याग सहित शरीरका परित्याग करके वे तीसरे स्वर्ग में देव उत्पन्न हुए।
अभयरुचिने अपना क्षुल्लक पद छोड़ दिया और उन्होंने तत्काल मुनिपद ग्रहण कर लिया। उनकी बहिन राजकुमारी अभयमतिने कामध्यानके प्रघातोंका अवरोध करनेवाला स्तनपट बाँध लिया और विरक्तभावसे शुद्धभाव कुसुमावली आर्यिकाके चरणमूलमें अपना क्षुल्लिका-व्रत छोड़कर आर्यिका-चरित्र ग्रहण कर लिया। फिर वह और अभयरुचि निर्मल निर्ग्रन्थ मार्गका अनुसरण करते तथा यतियोंके नानागुणोंका स्मरण करते हुए दोनों ही वहीं देवीके वनमें गये । उन्होंने दर्शन, ज्ञान, चरण और तप, इस चतुर्विध आराधनाको अपने मनमें धारण किया, तापहारो द्वादश प्रकारके तपका आचरण किया और फिर पन्द्रह दिन तक संन्यास करके समाधिपूर्वक उन दोनोंने अपने प्राणोंका परित्याग किया। वे दोनों हो ईशान स्वर्ग में जाकर देवरूपसे उत्पन्न हुए, और वहाँ तत्काल ही सैकड़ों देव उनको सेवा करने लगे। इस प्रकार सम्यक्त्वके बलसे अभयमतिके स्त्रीलिंगका छेदन हो गया और वे दोनों ही देव होकर विमानमें क्रीड़ा करने लगे। वे वहाँ जगत्में उत्तम प्रतिमाओंसे मण्डित अकृत्रिम जिन-भवनोंकी वन्दना करने लगे। इस प्रकार सम्यक्त्वसे स्वर्ग और मोक्ष मिलता है और सम्यक्त्वसे ही अचल सुखकी प्राप्ति होती है।
वे मुनीन्द्र सुदत्त भी अपने चतुर्विध संघ सहित वहीं आ गये और वे तुरन्त सिद्धगिरि नामक पर्वतपर जाकर विराजमान हो गये ॥२८॥
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