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प्रस्तावना
२१
पुष्पदन्तने अपने जीवन और स्वभाव के विषयमें और भी अनेक बातें कही हैं । यद्यपि उन्होंने मुनिदीक्षा नहीं ली थी, तथापि वे गृह व पुत्र कलत्रादिसे हीन थे । वे जीर्ण वस्त्र या वल्कल धारण करते थे और नंगी भूमिपर शयन भी कर लेते थे । वे धूल-धूसरित शरीर भी रहते थे और नदी, वापी व तालाब में स्नान भी कर लेते थे । उन्होंने अपनेको निर्धन और धनी लोगों के प्रति समता भाव रखनेवाले, समस्त जीवों के निष्कारण मित्र, कलिकालके पापोंसे मुक्त और जिनेन्द्र-भक्त कहा है। उनकी रचनाओं में अनेक स्थानोंपर उनके अभिमान मेरु व अभिमानांक, काव्य-पिशाच, सरस्वती - बान्धव, वागीश्वरी-निकेत आदि विरुद पाये जाते हैं । एक-दो स्थानोंपर उन्होंने अपना उल्लेख 'खण्ड' नामसे भी किया है । सम्भव है यह उनका घरु नाम हो (महा. पु. १, ३, ९ व १, ६, १ ) । यह नाम या विरुद कुछ विचित्र सा प्रतीत होता है । किन्तु सम्भव है यह उनके महाराष्ट्र में प्रचलित खाण्डेराव, अथवा गुजरातमें लोकप्रिय खाण्डु भाई जैसे नामका सूचक हो ।
३. रचना-काल
पुष्पदन्तने अपने रचना - कालका कोई स्पष्ट उल्लेख तो नहीं किया, किन्तु उनकी रचनाओं में ऐसे अनेक संकेत पाये जाते हैं, जिनसे उनके रचना-कालका भली-भाँति निर्णय किया जा सकता है। इन उल्लेखोंमें सबसे महत्त्वपूर्ण है उनके समय के मान्यखेट - नरेश कृष्णराज का । यद्यपि मान्यखेटके राष्ट्रकूट नरेशोंकी वंशावली में कृष्णराज नामके तीन राजाओंका नाम पाया जाता है, तथापि उन्होंने अपने समयके कृष्णराजके विषय में यह भी कहा है कि उन्होंने चोल देशके राजाको युद्ध में पराजित किया था और मार भी दिया था । इससे उक्त कृष्णराज वे ही सिद्ध हो जाते हैं, जिन्होंने अन्य ऐतिहासिक प्रमाणोंके अनुसार, ईसवी सन् ९३९-९६७ तक राज्य किया था और उसी बीच उन्होंने सन् ९४९ में चोल- नरेशपर आक्रमणकर टोंडमण्डल अर्थात् मद्रास और आंध्रके सीमावर्ती अर्काट, वेल्लोर और चिंगलपुर जिलेका प्रदेश जीत लिया था । इस युद्धमें चोल-नरेश राजराज भी मारा गया था। महापुराणमें यह भी स्पष्ट उल्लेख है कि कविने उसकी रचना सिद्धार्थ संवत्सरमें प्रारम्भ की थी और उसे क्रोधन संवत्सर में समाप्त किया था । ये संवत्सरोंके नाम साठसाला संवत्सर-चक्र में आते हैं और प्रत्येककी पुनरावृत्ति साठ सालमें होती है । उन दोनों संवत्सरोंके बीच छह वर्षका अन्तर पाया जाता है । उक्त कृष्णराज तृतीयके राजकालमें सिद्धार्थ संवत्सर ई. सन् ९५९ में व क्रोधन संवत्सर ९६५ ई. में पड़ा था । कविने अपनी उस रचनाको समाप्तिकी तिथि आषाढ शुक्ल दशमी भी अंकित की है । यह स्वामी कन्नू पिल्लाईके एफेमेरिसके अनुसार रविवार, ११ जून, सन् ९६५ ई. सिद्ध होता I
महापुराण की रचना भरतमन्त्रीके जीवनकाल में ही समाप्त हो गयी थी और उसकी प्रत्येक संध्यन्त पुष्पिकामें उसे भरत अनुमोदित कहा गया है । किन्तु जान पड़ता है, भरतकी मृत्यु कृष्णराजके राज्यकाल में ही हो गयी थी और उनके स्थानपर उनके पुत्र नन्न महामन्त्री के पदपर प्रतिष्ठित हो गये थे । यह बात णायकुमारचरिउसे स्पष्ट हो जाती है । वहाँ प्रथम कडवकके अन्तमें ही कहा गया है कि उस की रचना के समय मान्यखेटकी रक्षा श्री कृष्णराज के हाथकी करवाल द्वारा की जा रही थी । और फिर आगे कहा गया है कि उनके महामन्त्री नन्नकी प्रार्थनासे उन्होंने उस ग्रन्थकी रचना की और उसे 'नन्न - नामांकित' किया । 'जसहरचरिउ' में कृष्णराजका कोई उल्लेख नहीं है और आदिमें नन्न द्वारा प्रार्थना आदिका भी कोई संकेत नहीं है । किन्तु उसकी पुष्पिकाओं में उसे महामहल्ल- नन्न कण्णाहरण ( महामन्त्री नन्न कर्णाभरण ) कहा गया है । इससे प्रतीत होता है कि उसकी रचना महापुराण और णायकुमारचरिउके पश्चात् हुई ।
उक्त काल-निर्णय में एक कठिनाई उपस्थित होती है । वह यह है कि महापुराणकी सन्धियोंके आदिमें जो भरतकी प्रशंसा विषयक संस्कृत श्लोक पाये जाते हैं उनमें एक पद्य ( महा. पु. ५० ) में यह भी कहा पाया जाता है कि जो मान्यखेट नगर दीन और अनाथोंका घर था, सदैव जनपूर्ण रहता था, जिसके उपवनोंमें फूली लताएँ लहराती रहती थीं और जो अपनी सुन्दरतासे इन्द्रपुरीकी शोभा को भी पराजित करता
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