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जसहरचरिउ
'न' और 'ण' के प्रयोग सम्बन्धी वैयाकरणोंके नियमोंके साथ-साथ लिपिकार द्वारा किये गये प्रयोगोंकी ओर भी विशेष ध्यान देना चाहिए ।
कुछ प्रतियोंमें कुछ प्रक्षिप्त प्रकरण छूटे हैं और कुछमें वे सम्मिलित पाये जाते हैं । इसका विस्तारसे विचार इसी प्रस्तावना में अन्यत्र किया जा रहा है ।
२. ग्रन्थकार परिचय
प्राचीन कवियों द्वारा अपनी रचनाओं में स्वयंका वैयक्तिक वृत्तान्त देना बहुत कम पाया जाता है । संस्कृत काव्यों में इसका प्रारम्भ बाणभट्टने किया। वे सातवीं शती के प्रारम्भिक अर्द्धभागमें सम्राट् हर्षवर्धन ( ६०६-६४० ई.) के समकालीन थे और उन्होंने अपनी दोनों रचनाओं 'कादम्बरी' और 'हर्षचरित' में अपने विषय में भी बहुत कुछ लिखा है । अपभ्रंशके सर्वप्राचीन ज्ञात कवि स्वयंभू कृत 'पउमचरिउ' तथा 'रिट्टणेमिचरिउ' इन दोनों महाकाव्योंमें उनके कर्ताके सम्बन्धमें भी बहुत कुछ वैयक्तिक वर्णन पाया जाता है | महाकवि पुष्पदन्तकी अभी तक जो तीन रचनाएँ प्राप्त हुई हैं अर्थात् महापुराण, णायकुमारचरिउ तथा प्रस्तुत 'जसहर चरिउ' इन तीनोंमें ही कविने अपने वंश, माता-पिता तथा स्वयंका बहुत कुछ वृत्तान्त दे दिया है। इसके अनुसार वे जन्मतः काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे । उनके पिताका नाम केशवभट्ट और माताका नाम मुग्धादेवी था । ये दोनों पहले शिव के भक्त थे, किन्तु पश्चात् एक जैन गुरुके उपदेशसे जैन धर्मावलम्बी हो गये और उन्होंने जैन संन्यास - विधिसे मरण किया । स्वयं पुष्पदन्त अपने जीवनकी प्रारम्भिक अवस्था में सम्भवतः जैन नहीं थे । वे कहीं किसी वीरराव नामक राजाके आश्रयमें रहते थे, और उन्हीं की प्रशंसामें उन्होंने कुछ काव्यकी रचना की थी । सम्भवतः उन्होंने धन व नारी-विषयक अर्थात् भोग-विलास एवं श्रृंगार विषयात्मक भी कुछ रचनाएँ की थीं, जिसका संकेत हमें प्रस्तुत ग्रन्थमें भी मिलता है ।
णण्णहो मंदिरि णिवसंतु संतु । अहिमाणमेरु कइ पुप्फयंतु ॥ चितइ य हो धणणारी - कहा । पज्जत्तउ कयदुक्किय पहा ॥ कह धम्मणिबद्धी का वि कहमि । कहियाइँ जाइँ सिवसोक्खु लहमि ॥ ( जस. १, १, ४-६ )
किन्तु उन्होंने अपनी उपलभ्य प्रथम रचना महापुराणके आदिमें जो कुछ कहा है उससे सिद्ध होता है। कि वे उक्त राजाको सदैव प्रसन्न नहीं रख सके । सम्भव है उनके जैनधर्मकी ओर झुकावके कारण तथा शृंगारात्मक रचनाओंसे विरक्ति हो जानेसे वह नरेश रुष्ट हो गया हो, जिससे उसका आश्रय छोड़कर कवि देशान्तर में जाने का निश्चय कर लिया । उन्होंने कहा है कि वे एक बड़े दुर्गम और दीर्घमार्गको यात्रा तय कर जब मान्यखेट नगरमें पहुँचे तब वे बहुत ही थके हुए थे और नये चन्द्रमा के समान देहसे क्षीण हो गये थेदुग्गम-दीहर-पंथेण रीणु ।
णव- इंदु जेम देहेण खीणु ( महा. पु. १, ३, ६
जब वे नगरके उपवनमें विश्राम कर रहे थे तब किन्हीं दो पुरुषोंने आकर उनसे प्रार्थना की कि वे नगर में चलें । किन्तु उन्होंने इसे अस्वीकार करते हुए कहा कि बड़े और धनी पुरुषोंके व्यवहारसे वे खिन्न हो चुके हैं । उनके आश्रय में रहनेकी अपेक्षा वे निर्जन वनमें ही रहना अधिक अच्छा समझते हैं । किन्तु जब उन पुरुषोंने मान्यखेट नरेशके मन्त्री भरतकी सज्जनता और धर्मप्रेमकी प्रशंसा करते हुए उनसे भेंट करने का आग्रह किया तब वे बड़ी कठिनाईसे नगर में प्रविष्ट होनेके लिए तैयार हुए। वहाँ जानेपर महामन्त्री भरतने उनका बड़ा स्वागत किया और उन्हें अपने ही भवनमें निवास दिया, तथा उनके भोजन-वस्त्रादिकी भी उत्तम व्यवस्था की। फिर धीरे-धीरे जब उनका रोष शान्त हो गया तब स्वयं भरत मन्त्रीने उनसे काव्य-रचना करनेकी प्रार्थना की, उन्होंने बड़ी कठिनाईसे स्वीकार किया और वे महापुराणकी रचना में प्रवृत्त हुए ।
जिसे
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