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जसहरचरिउ ( २, २३-२४ ) से किस हिन्दी पाठककी जीभमें पानी न आ जायगा ? अपभ्रंश काव्योंमें तत्सम, तद्भव व देशी शब्दावलिके प्रचुर प्रयोगके साथ-साथ प्रायः सभी आधुनिक आर्य भाषाओंके उद्गम-सूचक पदों और महावरोंका बाहुल्य पाया जाता है । ९. काव्य गुण
पुष्पदन्त महाकवि हैं, वागीश्वरी-देवी-निकेत हैं । उन्होंने अपभ्रंश काव्यको उत्कृष्ट रूप दिया और उसे संस्कृत महाकाव्योंके सम-स्तरपर. ला बैठाया। छन्द, अलंकार, रस, भाव आदि काव्य-गुणोंसे उनकी रचनाएँ भरपूर हैं। वे भारतीय साहित्य, धर्म और दर्शनसे भलीभाँति परिचित हैं जिसका विवरण मैं णायकुमार-चरिउकी प्रस्तावनामें प्रस्तुत कर चुका हूँ। वे स्वयं कुकवि और सुकविके दोषों और गुणोंके प्रति इतने जागरूक है कि इन उपमानोंका उपयोग वे बारम्बार करते पाये जाते हैं। उदाहरणार्थ निम्नलिखित उक्तियोंपर ध्यान दीजिये :१) भंगालइँ णं कुकवित्तणा'।
जहिँ णील-णेत्त-णिद्धइँ तणाइँ ॥ ( १, ३, ६ ) थेरहो पयाइँ ण हु चिक्कमति । जिह कुकइहिँ तिह विहडेवि जंति ।। ( १, २८, ६ ) हउँ जणियउ ताइँ महासईए । तणुरुहु कव्वत्थु व कइमईए ॥( १, २३, १०) जेवण-वेलइँ महयहइ सह ।
बहु-रस-रसोइ णं सुक इ-कह ॥ वर्णन-सौन्दर्य, वैचित्र्य व अलंकारादिकी छटाके लिए देश-वर्णन (१, ३ व १, २१ ) नगर-वर्णन ( १, ४ व १, २२) राजा व रानी ( १, ५; १, २३) बुढ़ापेकी दुर्दशा (', २८) मनुष्य-शरीरकी प्रकृति ( २, ११ ) तथा प्रीतिभोज ( २, २३-२४ ) पढ़िए और उनके रस-भाव-अलंकारोंका आनन्द लीजिए। १०. छन्द-योजना
अपभ्रंश काव्योंमें छन्दोंका बाहल्य व वैशिष्ट्य पाया जाता है। यहाँ संस्कृत और प्राकृतके प्रायः सभी वणिक और मात्रिक छन्दोंके अतिरिक्त कुछ नवीन छन्दोंका प्रयोग भी हुआ है, जिन्होंने हिन्दी आदि आधनिक भाषाओंकी काव्य-शैलीको प्रभावित ही नहीं किया, किन्तु इसे एक नयी दिशा प्रदान की। अपभ्रंशमें जिन नये छन्दोंका आविष्कार हआ उन सबकी विशेषता है पादान्त यमककी अनिवार्यता जो हिन्दी में तुकबन्दीके नामसे प्रतिष्ठित हई।
____ अपभ्रंशके कथात्मक प्रबन्ध-काव्यों व चरित्रोंकी एक टकसाली शैली है जिसके अनुसार रचनाको अनेक सन्धियों ( परिच्छेदों) में विभाजित किया जाता है। प्रत्येक सन्धिमें अनेक कडवकोंका समावेश होता है और प्रत्येक कडवकमें अनेक अर्धालियाँ और अन्तमें एक पत्ता छन्द रखा जाता है जो सन्धिके आदिसे अन्त तक एक सा रहता है और उसका स्वरूप सन्धिके प्रारम्भमें ही प्रायः 'ध्रवक' के रूपमें स्पष्ट कर दिया जाता है। कभी-कभी प्रत्येक कडवकके प्रारम्भमें एक 'दुवई' छन्द भी सम्बद्ध रहता है। स्वयम्भ कृत पउमचरिउ और रिठ्ठ-णेमि-चरिउ ( हरिवंश पुराण ) तथा पुष्पदन्तकी तीनों रचनाएँ महापुराण, णायकुमारचरिउ तथा प्रस्तुत रचना जसहर-चरिउ इसी शैलीसे रचे गये हैं। स्वयम्भूने यह भी कह दिया है कि यह शैली उन्हें उनके पूर्ववर्ती कवि चतुर्मुखसे प्राप्त हुई थी।
जसहर चरिउमें कुल चार सन्धियाँ हैं जिनमें क्रमशः २९, ३७, ४१ और ३१ कडवकोंका समावेश हुआ और उनकी कुल संख्या १३८ है । कडवकोंमें १०-१२ पंक्तियों या अर्धालियोंसे लेकर अधिकसे अधिक
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