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जसहरचरिउ आवीरवन नामक क्षेत्र है वही उनका मूल निवास रहा होगा। वे शकोंके साथ व आगे-पीछे भारतमें आये, और उन्होंने पंजाबमें अपना आधिपत्य जमाया। भरत कत नाट्यशास्त्रमें आभीर जातिका उल्लेख और उनकी वाणीको एक विभाषा माना है। वहीं यह भी कहा गया है कि हिमवान् पर्वतसे लेकर सिन्धु सौवीर तक जो जन-जातियाँ निवास करती हैं वे उकार-बहुल भाषाका प्रयोग करती हैं । स्पष्टतः यह भाषा पुरानी अपभ्रंश ही हो सकती है। जिस प्रदेशको आज हरयाणा कहा जाता है उसका शुद्ध प्राचीन नाम "आभीरकानाम" है । वहींसे वे शक-साम्राज्यके विस्तारके साथ दक्षिण और पूर्वकी ओर फैले । मध्यप्रदेशमें विदिशा और झाँसीके बोचका 'अहीरवार' तथा प्रदेश भरमें फैली हुई अहीर जाति आभीरोंके प्रभावको व्यक्त
हैं। इनका आधनिक व्यवसाय प्रधानतः पशपालन और कषि है। उनकी अपनी विशिष्ट गीत और नत्यको परम्परा भी है। आश्चर्य नहीं जो ये आभीर ईरानकी परानी गीत-नत्यकी प्रणाली लेकर आये हैं। उसका प्रभाव अपभ्रंश काव्य-शैलीपर पड़ा है। तुकबन्दी फारसीकी एक परानी विशेषता है जो संस्कतके पादान्त यमकसे मिलती-जुलती होते हुए भी अपनी विशेषता रखती है। उसकी पुरानी काव्य-रचनाका टकसाली छन्द अब रूबाई कहलाता है. जिसका प्राचीन नाम दुबैती है। उससे दुगना चार पदोंवाला छन्द चहारवती है। ये स्पष्टतः द्विपदी और चतुष्पदी अर्थात् दुवई या दोहा और चौपइया या चौपाई जिनका अपभ्रंश काव्यमें बाहुल्य है, के पूर्वगामी व कुछ अंशमें जन्मदाता रहे हों और वह शैली आभीरोंके द्वारा लायी गयी हो तो आश्चर्य नहीं। इसी कारण तो दण्डीको अपभ्रंश काव्य आभीरोंकी वाणीमय अथवा उससे प्रभावित प्रतीत हुआ। हरयानामें अपभ्रंश रचनाकी परम्परा प्राचीन कालसे प्रचलित रही प्रतीत होती है । वहाँके सबसे अधिक प्रसिद्ध कवि श्रीधर १२वीं शतीमें अनंगपाल नरेशके राज्यकालमें हुए और उनकी छह रचनाओंका अब तक पता चल गया है-चन्द्रप्रभचरिउ, शान्तिनाथ च., पार्श्वनाथ च., महावीर च. सुकुमाल च, और भविसयत्त च.।
इस प्रसंगमें यह भी ध्यान देने योग्य है कि अपभ्रंश भाषाका विशिष्ट रूप वहीं निखरकर हमारे सम्मुख आता है जहाँ दुवई तथा उसके रूपान्तर ध्रुवक व घत्ता और टकसाली चौपइया व उसके रूपान्तर सोलह मात्रिक चरणोंवाले पज्झटिका आडिल्ला आदि छन्दोंका प्रयोग किया गया है। यही शैली हिन्दी में आदिकालके सुफी कवियों जायसी आदिकी रचनाओंमें दोहा-चौपाईके रूपमें विकसित हई पायी जाती है और इनकी प्रेरणामें ईरानी-फारसी कविताका प्रभाव स्पष्ट ही है। जहाँ अन्य छन्दों का उपयोग हुआ है उदाहरणार्थ प्रस्तुत रचनामें १-१०, १५, १६ आदि वहाँ प्राकृतकी पद-रचना-प्रवृत्ति प्रधान है ।
__इसी सन्दर्भ में यह भी विचारणीय है कि अपभ्रंशको मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदिके समान प्राकृतकी ही एक धारा माना जाये या उससे पृथक् । ऊपर दो अति प्राचीन काव्य-शास्त्रकार भामह और दण्डीका मत दिया ही जा चुका है। वे संस्कृत और प्राकृत के समान अपभ्रंशको एक स्वतन्त्र ही वाङ्मय स्वीकार करते हैं। बलभी ( आधुनिकवाला सौराष्ट्र ) के मैत्रिक वंशी नरेश धरसेन द्वि. के एक दानपत्रमें उनके पिता गुहसेन ( सन् ५५६-५६७ ई. ) को संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश इन तीनों भाषाओंकी प्रबन्धरचनामें निपुण कहा गया है । इसका कारण भी स्पष्ट है कि अपभ्रंशकी पदरचना और 'काव्य-शैली प्राकत परम्परासे भिन्न है । दण्डीके समयमें उसको भिन्नता और भी अधिक रही होगी। त्रिभुवन स्वयंभूने स्पष्ट ही कहा है कि
ताव च्चिय सच्छन्दो भमइ अवब्भंस-मत्त-मायंगो ।
जाव ण सयंभु-बायरण-अंकुसो पडइ ॥ अर्थात् जब तक स्वयम्भूका व्याकरणरूपी अंकुश नहीं लगाया गया, तब तक अपभ्रंशरूपी मत्तमातंग स्वच्छन्द भ्रमण करता रहा । दुर्भाग्यतः हमें स्वयम्भू कृत उक्त व्याकरण उपलभ्य नहीं हुआ। किन्तु उनकी विशाल रचनाएँ पउम-चरिउ और रिट्ठ-णेमि-चरिउ ( हरिवंश पुराण ) उपलभ्य हैं जिनसे उनके द्वारा तथा उनके उल्लिखित पूर्ववर्ती चउमुख कवि द्वारा निखारा गया अपभ्रंशका परिनिष्टित रूप हमारे
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