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प्रथम वक्षस्कार - सिद्धायतनकूट की अवस्थिति
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उस सिद्धायतन के भीतर अत्यंत समतल, सुंदर भूमिभाग है, जो मुरज आदि के चर्मपुट रूप ऊपरी भाग के सदृश है यावत् उस सिद्धायतन के अत्यंत समतल, सुंदर भूमिभाग के बीचोंबीच देवच्छंदक-देवासन विशेष बतलाया गया है। यह लम्बाई तथा चौड़ाई में पांच सौ-पांच सौ धनुष तथा ऊँचाई में पांच सौ धनुष से कुछ अधिक है। वह सम्पूर्णतः रत्नमय है। ___वहाँ तीर्थंकरों के शरीर की ऊँचाई जितनी ऊँची एक सौ आठ जिन प्रतिमाएं हैं यावत् वहाँ धूप खेने के कुड़छे - धूपदान रखे हैं। __विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सिद्धायतन कूट के अंतर्गत एक सौ आठ जिन प्रतिमाओं का उल्लेख हुआ है परन्तु ये जिन प्रतिमाएं तीर्थंकरों की नहीं है। निम्न शंका-समाधान से यह विषय स्पष्ट हो जायगा। . .
जिन प्रतिमा तीर्थकरों की नहीं । शंका - जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र के प्रथम वक्षस्कार में जिन प्रतिमा का उल्लेख है वे देवों द्वारा पूजी जाती हैं तो फिर मूर्तिपूजा मानने में क्या बाधा है? ___समाधान - उपरोक्त आगम पाठ में जहाँ जिन प्रतिमा का उल्लेख है उसके आगे पीछे के वर्णन से यह सिद्ध होता है कि ये मूर्तियाँ सरागी देवों की हैं, तीर्थंकर भगवान् की नहीं तथा भौतिक सुख-समृद्धि की लालसा से देवों द्वारा पूजी जाती हैं, धर्म समझ कर नहीं। ___ शंका - 'जिन प्रतिमा' शब्द का अर्थ 'तीर्थंकर की मूर्ति' होता है तो आप ‘सरागी देवों की मूर्ति' ऐसा अर्थ किस आधार से मानते हैं?
समाधान - ठाणांग सूत्र के तीसरे स्थान के चौथे उद्देशक में तीन प्रकार के जिन बताये हैं. “तओ जिणा पण्णत्ता तं जहां - ओहिणाण जिणे, मण पजवणाण जिणे, केवल णाण जिणे" अर्थात् तीन प्रकार के जिन होते हैं -- १. अवधि ज्ञानी जिन २. मनःपर्यव ज्ञानी जिन ३. केवल ज्ञानी जिन। इस पाठ में अवधि ज्ञानी को भी जिन कहा है तथा पन्नवणा सूत्र के तेतीसवें अवधि पद में अवधि ज्ञानी के दो भेद बताये हैं - सम्यग् दृष्टि और मिथ्या दृष्टि। इस पाठ के आधार से लोक में जितने भी देव हैं चाहे सम्यग् दृष्टि हों या मिथ्या दृष्टि, वे सभी अवधि ज्ञानी ही होने से 'जिन' कहलाते हैं और इनकी मूर्ति 'जिन प्रतिमा' कहलाती है। अतः कामदेव, भैरु, यक्ष, यक्षिनी, भूत, प्रेत, पित्तर आदि की मूर्तियाँ भी जिन प्रतिमा ही होती हैं और सांसारिक लालसा से इनकी पूजा की जाती है, धर्म के लिए नहीं। क्योंकि इनकी पूजा में छह
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