Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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३२
जैनपदसंग्रह |
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सरमें दुख सह्यो घनेरो । सो दुखभानन खपर. पिछानन, तुमविन आन न कारन हेरो ॥ मैं० ॥ २ ॥ चाह भई शिवराहलाहकी, गयो उछाह असंजमकेरो । दौलत हितविराग चित आन्यो, जान्यो रूप ज्ञानहग मेरो ॥ मैं० ॥ ३ ॥
३०.
प्यारी लागे म्हाने जिन छवि थारी ॥ टेक ॥ परमनिराकुलपद दरसावत, वर विरागताकारी । पटभूषन विन पै सुंदरता, सुरनरमुनिमनहारी || प्यारी० ॥ १ ॥ जाहि विलोकत भवि निज निधि लहि, चिरविभावता टारी । निरेनिमेपतें देख सैचीपति, सुरत सफल विचारी || प्यारी० ||२|| महिमा अकथ होत लख ताको, पशु सम समकितधारी । दौलत रहो ताहि निरखनकी, भव भव ठेव हमारी || प्यारी० ॥ ३ ॥
३१..
निरख सुख पायो, जिन मुखचंद | नि० ॥ टेक ॥ मोह महातम नाश भयो है, उरअंबुज
१ लाभ - प्राप्तिकी । २ टिमकाररहित । ३ इन्द्रः । ४ देवपणा ।

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