Book Title: Jainpad Sagar 01
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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गुरुस्तुतिपद-संग्रह। है, अंतरबाहिर विमल है जोई ॥ गुरु० ॥३॥ तारनतरनजिहाज सुगुरु हैं, सब कुटुंव डोबै जगतोई । द्यानत निशिदिन निर्मल मनमैं,. राखों गुरुपदपंकज दोई ।। गुरु०॥४॥ . (१९)
, धनि ते साधु रहत वनमाहीं ॥धनि०॥ टेक॥ शत्रु मित्र सुख दुख सम जान, दर्पन देखत पाप पलाहीं ॥ धनि०॥१॥अट्ठाईस मूलगुण धारहि, मनवचकायचपलता नाहीं । ग्रीषमं शैल-शिखर हिम-तटनी, पावस वर्षा अधिक सहाही ।। धनि ॥२॥ क्रोध मानछल लोभ नजानें; रागरोषनाहीं उनपाहीं। अमल अखंडित चिद्गुणमंडित, ब्रह्मज्ञानमैं लीन रहांहीं ॥धनि०॥ ३॥ तेई साधु लहँ केवलिपद, आठ-काठ-दहि शिवपुर जांहीं । धानत भवि तिनके गुण गावे,
१-२ गर्मीकी ऋतुमें पर्वतकी चोटी पर । ३ शीत ऋतुमे । . ४ नदीके किनारेपर । ५ आत्मीक गुणों सहित । ६ आत्मज्ञानमें ७ अष्टकर्मरूपी इंधनको जलाकर ।
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