Book Title: Jainpad Sagar 01
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 198
________________ २७४ जैनपदसागर प्रथमभागसंत्खरूप लीज्यो पहचान् । इनको.जान यथावत निजपर, तत्त्वनको कीज्यो सरधान्।यह जिनमतको मूल है, याको पहिले निश्चय जान ॥ या विन भेष निरर्थक सब ही भववनमें भटकाते हैं। धिक धिक् ॥६॥ - ३८ । लावपि रंगत लंगडी। . देखो कालप्रभाव आज पाखंड जगतमें छाया है।जैनधर्मको नीच लोगोंने दाग लगाया है ।। टेर ॥ जगजाहर अरहंतदेव, निरग्रंथ गुरू हैं जिनमतके । दयाधर्म है जिनागम, सत्य वचन हैं जिनमतके ॥ इनहींको जाने. माने श्रद्धान, करें जन जिनमतके। सिवा इन्होंके औरकों, कभी न मानें जिनमतके । इनको तज अज्ञानों ने, मनकल्पित ठाट बनाया है.॥ जैनधर्मको ॥१॥ कोई बने.कलयुगी अचारज, आरज धर्म विसार दिया। महंत होके अधर्मके, कामोंको इख्त्यार किया पहिले नाम दिगंबर होके फिर वस्त्रादिक धार लिया। परिग्रह तजिकै बनिज

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