Book Title: Jainpad Sagar 01
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 202
________________ હર जैनपदसागर प्रथमभाग आयो । तहँ पाय अतिशय दुख अनंते, नरक सातनि गयो ॥ २ ॥ नरकनतणे अति घोर दुख सह नरजनम गह, दुख सह्यो । फिर सुर असुर गति पायकर, कोउ पुण्यवशः नरतन लह्यो । सो बालपन मैं खेल खोयो, युवावस्था धुनि गही' । सांसारि- विषय - कषाय-वश, सुख लह्यो रंच न दुख यही । अब अधमरे सम वृद्धपनमैं, शक्ति कुछ भी ना रही । अतएव शांति प्रदाय लेखि तुम, चरनकी शरना गही || अब शांतिसागर सुगुण- आंकर, दया करहू दीनपर । तुम चरनपंकज सिरनवाकर, बंदहू मन लायकर 118 11 गझन

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