Book Title: Jainpad Sagar 01
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 204
________________ -- १८६ जैनपदसागर भागमभाग॥ टेक ॥ सब अमरेश अशेषविभवजुत, नगरनागपुर आये। नागदच सुर इंद्र वचनतें,ऐरावत सज धाये। लखयोजन शत वदन वदन वसु,. रद प्रतिसर ठहराये। सर सर सौपन वीसनलिनि प्रति, पदम पचीस विराजै ॥ वारी हो० ॥१॥ पदम पदम प्रति अष्टोत्तर शत, ठने सुदल मन हारी। ते.सब कोटि सताईसपै मुद,-जुत नाचत सुरनारी ॥ नवरस गान ठान काननको, उपजा. वत सुख भारी। बंक लय लावत लंके लचावत, दुति लखि दामिनि लाजै ॥ वारी हो० ॥२॥ गोप गोपतिर्य जाय माय ढिग, करी तास थुति सारी। सुखनिद्रा जननीको कर नमि, अंक लियो जगतारी ॥ लै वसु मंगल द्रव्य दिशैसुरी, चली अंग शुभंकारी । हरखि हरी चख-सहस करी तब, जिनवर निरखन काजै ॥ वारी हो०॥३॥. ११. समस्त विभव सहित । २ हस्थनापुर । ३ कुवेर । ४ आठ आठ..दांत । ५ बांकी।६ कमर । ७.गुप्तभावसे । ८ इन्द्राणी जाकर २ गोदीमें लिया । १० भगवानको। ११ दिक्कुमारिका देवियां ।

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