Book Title: Jainpad Sagar 01
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

View full book text
Previous | Next

Page 199
________________ गुरुस्तुतिपद-संग्रह । . १७९” व्यापार व्याजका कार किया || देखो हीन आ चरन करिकै, भगतनकों सरमाया है । जैनधर्मकों० ॥२॥ केई. भोले जीव जिन्होंने, जिनशा सनको नहिं जाना । जो कुछ जैसी किसीने, कही उसीको सच माना || खानपान लड़ने में चातुर, पढने में मन अलसाना । क्रोधी मानी लोभवश, लिया कृपणताका वाना || हाय हाय ऐसे जीवोंने, नरभव वृथा गुमाया है || जैनधर्मकों ० || ३ || कोई उद्यमहीन दीन नर, पेट काज है' चमचारी | खान पानकों मिला तब, धरयो भेषस्वेच्छाचारी | पूछेपर वे जबाव दें हम इतने ही दिन व्रतधारी । धिकधिक उनको धर्मपद, छोड़ भये जे गृहचारी । सुनिये देव जिनेश्वर अरजी, यह कलयुगकी छाया है || जैनधर्मको ० ॥ ४ ॥ , " ३९ । लावनी, गृहस्थाचार्यकी, रंगत-लंगडी । उत्तम नर जिनमतकों धारें, सो श्रावक कहलाते हैं | कोई उन्हीं मैं गृहस्थाचारजका पद पाते हैं | टेर ॥ गर्भादिक संस्कार क्रिया- जेंट

Loading...

Page Navigation
1 ... 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213