Book Title: Jainpad Sagar 01
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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गुरुस्तुतिपद -संग्रह ।
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ऐसे गुरुकी भक्ति करि बहु, नमों मनवच कायसों ॥ गुरुदेव मोहि छुडाय दीज्यो, मोहि रूपी वासों ॥ कुगुरु त्यागकर सेव सुगुरुकी घरहु जिनेश्वरधर्म महान | अचरजकारी ||४||
३४ । सुगुरुस्वरूपलावनी रंगत-लंगड़ी | • कहूं चिह्न कछु सुनो सुगुरुके जिनशासन अनुसारी हैं । भ्रमतमहारी जिन्होंके, वचन स्वपरहितकारी हैं ॥ ढेर || प्रथम दिगंबर भेष गुरूका वस्त्राभूषण त्याग दिया। शांतस्वरूपी अथिर जग, जान मान वैराग लिया | वनमै बसें कसें तन मनकूं, निजनिधिमय सद्ध्या न किया । परिगह त्यागी अनुपम, ज्ञानसुधा हित जान पिया । वदन चंद्रछवि अनुपम जिनने, वीतरागता धारी हैं ॥ भ्रमतम० ॥ १ ॥ असन हेत नहिं जात बुलाये, ना कछु संग ससवारी है | भेट न चाहें असन कछु, मिलै मधुर वा खारी है ॥ रागरोस नहिं करे कदाचित, जिनआज्ञा चित धारी हैं। भोजन करके गुरु

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