Book Title: Jainpad Sagar 01
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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१७४ . जैनपदसागर प्रथमभागयचाहवस बन गये आप भिखारी हैं ॥ परिः गहत्यागी० ॥ ३॥ तजकर ज्ञानविराग आप बन, गये विषयवस अज्ञानी । खानपानमैं ऐस; इस्तरमैं सबके अगवानी ॥ धर्ममूल अरंहत देव निरग्रंथ गुरु हैं जिनवानी । इनके सँगमैं, महाशठ, भैरवकी पूजा ठानी ॥ अर्ज जिनेश्वर देव सुनो, यह मोहकर्म अनिवारी है। परिगहत्यागी०॥४॥
३६ । लावनी रंगत लंगडी।
(कुगुरु स्वरूप) सम्यग्ज्ञान विना जगमैं, पहिचाननवाला कोई नहीं। जैनधर्मको यथावत, जाननवाला कोई नहीं॥टेक॥ पहिले ज्ञान आपको चहिये, विना ज्ञान क्या समझेंगे।सत्य झूठका कहो वे, निरणय : कैसे कर लेंगे। विन निर्धार किये जिनमतकी, उर प्रतीत क्या धरलेंगे । विन प्रतीतके क्रियाकरि, भवदधि कैसें तिरलेंगे॥ दुर्लभ जान ज्ञान होना यह, मानववाला कोई नहीं। जैनधर्मको

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