Book Title: Jainpad Sagar 01
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 193
________________ · गुरुस्तुतिपंद-संग्रह । १७३ शिवहितकारी है ॥ टेर ॥ कुंदकुंद आदिक श्रीगुरु, उपकार कर गये सब जगका । शास्त्र बनाके सर्व, बरताव दिखागये शिवमगका ॥ सत जिनधर्म लहै सो ज्ञाता, सरन गहै जो इस मगका । ज्ञानचक्षुत लग सव, सत्य झूठ हर मजहवका ॥ ज्ञानविरागविषे सुनि भाई, शिवलक्ष्मी-सहकारी हैं ॥ परिगहत्यागी ॥१॥ विद्याके अभ्यास विना नहिं ज्ञानवृद्धिकों पाता है। विना ज्ञानके नहीं, परमागम मर्म लखाता है। परमागम विन धर्म न जाने, धर्मविना दुख पाता है। इस कारनतें एक यह, विद्या शिवसुखदाता है । हाय हाय विद्याके दुस्मन, आज धर्म-अधिकारी हैं ॥ परिगहत्यागी० ॥२॥ विषय-वासनामै फसि जिनने, धर्म कर्मकों लोप दिया। लोभ उदयसे जिन्होंने, सतमारगको गोप किया ॥ धर्मकल्पतरु-काटि आपने पापवृक्षकों रोप दिया। धिकधिक इनकों सत्य, कहनेवालोंपर कोप किया। कहा कहों वे विष

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