Book Title: Jainpad Sagar 01
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जैनपदसागर प्रथमभाग
नहिं आई ये घर आये, चरन कमल अब घोलें । विधि पड़गाहे असन कराये, निधि बध गई अतोलै ॥ माई ० ॥ २ ॥ नगर जिमाया कोइ न रहाया, यों अचरज कहों कोलें ॥ माई॥ ३ ॥ अन्य मुनीसर धन यह दानी, बुधजन यों मुख बोलै ॥ माई० ॥ ४ ॥
२६ । राग बंगला | वीतराग मुनिराजा मोकों दरस वताजा, दरस बताजा धर्म सुनाजा || वीतराग० ॥टेर || परिगहरत न नगन छवि थांकी, तारन तरन जिहाजा ॥ वीतराग ॥१॥ जीवन मरन विपति अर संपति, दुख सुख किंकर राजा । सबमें समता रमता निजमैं, करत आपनों काजा ॥ वीतराग० ॥ २ ॥ तनकारागृह भोग भुजंगसा, परिकर शत्रुसमाजा। ऐसी जानि त्याग वन बसिकै, राखत धर्म इलाजा ॥ वीतराग० ॥३॥ कर्मविनासी मुनिवनवासी, तीन लोक-शिर
१ बंट गई ।
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