Book Title: Jainpad Sagar 01
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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१६८ जैनपदसागर प्रथमभागहिरदै धारयो वैराग ।। वनमैं॥३॥ (एजी) रजनी भयानक कारी, विचरै व्यंतर वैताल ॥ वनमैं । ॥४॥ बरसै विकट धनमाला, दमकै दामिनि चालै वाय॥ वनमैं० ॥५॥ सरदी कपिन मद गालै, थरहर कांपैं सब गात ॥ वनमैं०॥६॥ रविकी किरन सर सोखें,गिरिपैठाड़े मुनिराज वनमैं ॥७॥ जिनके चरनकी सेवा, देवै शिवसुख साज ॥ वनमै० ॥८॥ अरजी जिनेश्वर येही, प्रभुजी राखो मेरी लाज ॥ वनमैं०॥९॥
. ३२ 1 रंगत लंगड़ी । .. परम वीतरागी गृहत्यागी, शिवभागी निरग्रंथ महान । अचरजकारी जिन्होंकी, परनति जाने सकल जहाँन ॥ टेर॥ त्रस थावर हिंसा तज दीनी, झूट वचन नहिं भाखत हैं। परिगह त्यागी दया,-खटकायतनी उर राखंत हैं ॥ चौरी तजै महादुखदाई, परसनेह सब नाखत हैं। जिनमें रचिकै गुरुजी, ब्रह्मचर्यरस.चाखत हैं.॥ .

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