Book Title: Jainology Parichaya 05
Author(s): Nalini Joshi
Publisher: Sanmati Tirth Prakashan Pune

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Page 15
________________ पाठ ४ तत्त्वार्थसूत्र की पृष्ठभूमि प्राचीन काल से जैनधर्म, विशिष्ट तत्त्वज्ञान के आधार पर विकसित हुआ है । जैन परम्परा का सबसे प्राचीन साहित्य, अर्धमागधी और शौरसेनी इन दोनों प्राकृत भाषा में विस्तार रूप से रचा गया है । ईसवी की चौथी शताब्दि में 'उमास्वाति' (उमास्वामी) नाम के प्रख्यात जैन आचार्य हए । तत्कालीन भारत के विद्वान, संस्कृत भाषा एवं संस्कृत सूत्रों में निबद्ध तत्त्वज्ञानों से (दर्शनों से) परिचित थे । जैन तत्त्वज्ञान प्राकृत में होने के कारण, उनका ध्यान जैन तत्त्वज्ञान के प्रति आकृष्ट नहीं हुआ था । उमास्वाति को यह कमी महसूस हुई। उन्होंने समग्र प्राकृत आगमों का अवलोकन करके, ‘संस्कृत' भाषा में, जैन तत्त्वज्ञान का सार संग्रहीत किया । उमास्वाति ने संस्कृत भाषा में निबद्ध कुल ३५७ सूत्र रचे । दस अध्यायों में वे सूत्र विभक्त किये । इस ग्रन्थ का पूरा नाम 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्र' है । इसे संक्षेप में 'तत्त्वार्थसूत्र' कहा जाता है । तत्त्वार्थसूत्र जैन परम्परा में लिखित ग्रन्थों में, सबसे पहला संस्कृत ग्रन्थ है । ग्रन्थ इतना ख्यातिप्राप्त है कि चौथी शताब्दि से लेकर आजतक जैन तत्त्वज्ञान का प्रत्येक अभ्यासक बहुत ही बारीकी से तत्त्वार्थसूत्र का अध्ययन करता है । तत्त्वार्थ के दस अध्यायों की संक्षिप्त जानकारी : अध्याय १ : ज्ञान शीर्षक से ही मालूम होता है कि ज्ञान के विषय में जो जो जैन धारणाएँ है, वे इस अध्याय में मैले दस अध्याय में ३५ सत्रो में ग्रथित की है । उमास्वाति का कथन है कि साधक एवं अभ्यासकों के लिए, जैन परम्परा ने मोक्ष का मार्ग दिखाया है। इसलिए तत्त्वार्थ का प्रथम सत्र यह है कि 'सम्यकदर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।' पदार्थों के यथातथ्य ज्ञान की रुचि 'सम्यकदर्शन' है। उसके बाद जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों का निर्देश है । तत्त्वों के विस्तृत के ज्ञान के लिए चौदह निकष अंकित किये हैं। इस अध्याय का विषय ज्ञान की विशेष विचारणा है । इसका आरम्भ ज्ञान के पाँच प्रकारों से दिया है । वे इस प्रकार हैं - मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्याय और केवलज्ञान । पाँच इन्द्रिय और मन के द्वारा प्राप्त किये जानेवाले ज्ञान को ‘मतिज्ञान' कहा है । 'श्रुतज्ञान' मुख्यतः आगमज्ञान है लेकिन अन्य-अन्य माध्यमों के द्वारा प्राप्त ज्ञानकारी स्वरूप ज्ञान को भी श्रुतज्ञान कहा है। ‘अवधि' और 'मन:पर्याय' ये दो ज्ञान विशिष्ट आत्मिक उन्नति के द्वारा प्राप्त होते हैं। अध्याय के अन्तिम दो सूत्र में पाँच नयों का निर्देश है । नय याने कि 'सत्य का आंशिक याने केवल एक दृष्टिकोन से होनेवाला ज्ञान' । उमास्वाति ने नयविषयक चर्चा को आरम्भ किया । बाद में उसी को सामने रखकर ‘स्याद्वाद' और 'अनेकान्तवाद' का विकास हुआ । अध्याय २ : जीव __ प्रथम अध्याय में सात पदार्थों का नाम निर्देश किया है । आगे के नौं अध्यायों में क्रमश: उनका विशेष विचार किया है। इस दूसरे अध्याय में जीव (आत्मा) इस पदार्थ का तात्त्विक स्वरूप भेद-प्रभेद आदि विषयों का वर्णन पाया जाता है । जीव कोई मूर्त चीज नहीं है । उसका वर्णन 'भावस्वरूप में पाया जाता है । जीव में होनेवाले पाँच भाव ये हैं -१) औपशमिक २) क्षायिक ३) क्षायोपशमिक ४) औदयिक और ५) पारिणामिक । जीव का लक्षण उपयोग' है । उपयोग का सामान्य अर्थ है, 'बोधरूप व्यापार अथवा ज्ञानचेतना' । हर एक छोटेबडे तरतम भाव से यह ज्ञानचेतना पायी जाती है ।

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